हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की स्थापना की 43वीं वर्षगांठ पर भाषण :
आइए, हम एक आधुनिक लोकतंत्र के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाएं, जिसमें मज़दूर और किसान एजेंडा तय करेंगे!

साथियों,

केंद्रीय समिति की ओर से, हमारी पार्टी की 43वीं वर्षगांठ के इस उत्सव में आप सभी का स्वागत करते हुए मुझे बहुत खुशी है।

पार्टी की हर सालगिरह पर हम देश के मज़दूर वर्ग और लोगों की स्थिति का जायज़ा लेते हैं। हम चर्चा करते हैं कि हुक्मरान सरमायदार वर्ग के ख़िलाफ़ वर्ग संघर्ष को कैसे आगे बढ़ाया जाए।

हमारे देश के हुक्मरान भविष्य की एक सुखद तस्वीर पेश कर रहे हैं। वे इसे अमृत काल कह रहे हैं। उनका दावा है कि देश की आज़ादी के शताब्दी वर्ष, यानी 2047 तक हम एक बहुत ही विकसित देश बन जाएंगे। उन्होंने नीति आयोग को इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक दीर्घकालिक विकास रणनीति तैयार करने का काम सौंपा है, जिसे ”विकसित भारत 2047“ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

विकसित भारत के बारे में पूरा प्रचार इस हक़ीक़त को छुपाता है कि हमारा समाज, विरोधी हितों वाले वर्गों में बंटा हुआ है। एक तरफ़ पूंजीपति वर्ग है, वह वर्ग जिसके पास बड़े पैमाने पर उत्पादन और विनिमय के साधन हैं। इस वर्ग की अगुवाई इजारेदार पूंजीवादी समूह करते हैं। दूसरी तरफ़ मज़दूर, किसान और दूसरे मेहनतकश व दबे-कुचले लोग हैं।

आर्थिक व्यवस्था मज़दूर वर्ग के शोषण तथा किसानों और अन्य छोटे उत्पादकों की लूट को बढ़ाकर, पूंजीपति वर्ग के मुनाफ़ों को अधिकतम करने के उद्देश्य से चलायी जाती है। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे पूंजीपति वर्ग और अमीर होता जाता है, जबकि मज़दूर और किसान ग़रीब ही बने रहते हैं और उनमें से कई पहले से भी अधिक ग़रीब हो जाते हैं।

कार्ल माक्र्स ने बताया है कि पूंजीवादी व्यवस्था के चलते, एक ध्रुव पर धन का संचय तथा उसके साथ-साथ, दूसरे ध्रुव पर दुख, परिश्रम की पीड़ा, गुलामी, अज्ञानता, क्रूरता और मानसिक गिरावट का संचय है। उन्होंने इसे पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम बताया है।

हमारे देश के हुक्मरान, पूंजीवादी व्यवस्था के चरित्र को छिपा रहे हैं जब वे यह दावा करते हैं कि पूंजीवादी विकास सभी के लिए खुशहाली लाएगा। वे इस सच्चाई को छुपा रहे हैं कि हमारा समाज विरोधी हितों वाले वर्गों में बंटा हुआ है। वे इस सच्चाई को छिपा रहे हैं कि पूंजीवादी विकास से एक ध्रुव पर धन और दूसरे ध्रुव पर ग़रीबी पैदा होती है।

हमारे सामने जो आंकड़े हैं, उनसे पता चलता है कि जीवन जीने के ख़र्चों की बढ़ोतरी को ध्यान में रखते हुए, औद्योगिक मज़दूरों के वेतनों में पिछले दो दशकों में गिरावट आई है। दूसरी ओर, इसी अवधि में इजारेदार पूंजीपति साल-दर-साल भारी मुनाफ़़े कमाते रहे हैं। उनमें से कई अब दुनिया के सबसे अमीर पूंजीपतियों में गिने जाते हैं।

अधिकतम मुनाफ़ा बनाने की अपनी लालच को पूरा करने के लिए, पूंजीपति मांग करते रहे हैं कि सरकारी मालिकी वाली विभिन्न कंपनियों और सार्वजनिक सेवाओं को उन्हें सौंप दिया जाए। कांग्रेस पार्टी और भाजपा की अगुवाई वाली, एक के बाद दूसरी, सभी सरकारें इस मांग को पूरा करती रही हैं। निजीकरण, विनिवेश और सार्वजनिक-निजी भागीदारी के बैनर तले, अनमोल राष्ट्रीय संपत्तियों और सार्वजनिक सेवाओं को निजी कंपनियों को सस्ते में बेच दिया गया है, ताकि वे अधिकतम मुनाफ़े हासिल कर सकें। इस कार्यक्रम में दूरसंचार, कोयला, बिजली, रेलवे, बैंकिंग, बीमा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसे कई क्षेत्रों को शामिल किया गया है।

“ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस” सुनिश्चित करने के नाम पर, तरह-तरह के मज़दूर-विरोधी क़ानून बनाए गए हैं। हाल ही में लागू की गई चार श्रम संहिताएं कांग्रेस पार्टी और भाजपा की सरकारों के चलते, लंबे समय से तैयार की जा रही थीं। पूंजीपति अब स्वयं प्रमाणित करेंगे कि वे श्रम क़ानूनों का पालन कर रहे हैं या नहीं। तालाबंदी और मज़दूरों की छंटनी करने को आसान बना दिया गया है। मज़दूरों के लिए हड़ताल करना बेहद कठिन बना दिया गया है। ठेके पर काम करवाना अब आम बात बन गयी है, ताकि मज़दूरों को किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा न देनी पड़े।

विदेशी पूंजीपतियों को हमारे देश में निवेश करने को आकर्षित करने के लिए, हिन्दोस्तानी पूंजीपति काम के दिन को 12 घंटे तक बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। वे महिला मज़दूरों से रात की पाली में काम करवाने पर लगे सभी प्रतिबंध ख़त्म करना चाहते हैं। कुछ राज्य सरकारों ने पूंजीपतियों की इन मांगों पर अमल करना शुरू कर दिया है।

पूंजीपतियों ने इस विचार पर बहस शुरू कर दी है कि अगले 25 वर्षों में हिन्दोस्तान को ऊंची आमदनी वाला देश बनाने के लिए देश के मज़दूरों को हर हफ्ते 70 घंटे काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

दूसरे शब्दों में, पूंजीपति वर्ग मज़दूरों के बढ़ते शोषण को पूंजीवादी विकास को तेज़ करने और तथाकथित विकसित भारत के अपने लक्ष्य को हासिल करने की कुंजी मानता है।

एक के बाद एक, सरकारें कृषि व्यापार को पूरी तरह से इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों के अधीन लाने के लिए कई क़दम उठाती रही हैं, जिससे किसान बड़े पैमाने पर तबाह हो रहे हैं। जबकि सन 2020 में बनाए गए तीन कृषि क़ानूनों को किसानों के लंबे संघर्ष के बाद वापस ले लिया गया था, तो कृषि व्यापार के उदारीकरण के एजेंडे को कई अन्य तरीक़ों से आगे बढ़ाया जा रहा है। करोड़ों किसान परिवारों के नौजवान कृषि में कोई भविष्य नहीं देख कर, उद्योगों या सेवाओं में नौकरियां तलाश रहे हैं।

पूंजीपति वर्ग के पास बेरोज़गारी की समस्या का कोई समाधान नहीं है। पहले की तरह, निर्माण क्षेत्र सबसे ज्यादा रोज़गार दिलाने वाला क्षेत्र है, जिसमें पुरुष, महिलाएं और बच्चे भी बेहद ख़तरनाक हालतों में, बहुत ही कम वेतन पर, घंटों-घंटों तक मेहनत करने को मजबूर हैं।

बढ़ते आईटी उद्योग में कॉलेजों से शिक्षित युवाओं के एक हिस्से से ज्यादा से ज्यादा काम लिया जा रहा है और उसका अत्यधिक शोषण किया जा रहा है। कई शिक्षित लोगों को गिग डिलीवरी क्षेत्र में कम वेतन वाली नौकरियों में काम करने को मजबूर किया जाता है।

हमारे देश के नौजवानों को यह यक़ीन दिलाया जा रहा है कि हिन्दोस्तान अगले 25 वर्षों में तीव्र पूंजीवादी विकास हासिल करके एक ”विकसित देश“ बन जाएगा। सच्चाई यह है कि जब तक पूंजीपति हिन्दोस्तान पर राज करते हैं, तब तक आर्थिक व्यवस्था की दिशा मज़दूरों के अधिकतम शोषण और किसानों की लूट के ज़रिये, एक अमीर अल्पसंख्यक तबके के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़े पैदा करने की दिशा ही रहेगी। एक अमीर अल्पसंख्यक तबका और अधिक अमीर होता जाएगा, जबकि अधिकांश मेहनतकश लोग ग़रीब बने रहेंगे तथा समय के साथ-साथ, उनकी हालतें और गिरती जायेंगी।

विकसित भारत का नज़रिया पूंजीपति वर्ग का नज़रिया है, जो सिर्फ़ अपने संकीर्ण हितों की परवाह करता है, और मेहनतकश लोगों की भलाई के बारे में बिल्कुल नहीं। इसका असली उद्देश्य हमारे देश के अधिक से अधिक पूंजीपतियों को, मेहनतकश जनता की क़ीमत पर, दुनिया के सबसे अमीर लोगों की श्रेणी में शामिल करना है। इसका उद्देश्य हिन्दोस्तान को सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवादी देशों के क्लब में शामिल करना है।

साथियों,

अगर हम हाल के घटनाक्रमों पर नज़र डालें तो हम देख सकते हैं कि अपने समाज में मुख्य वर्ग अंतर्विरोध और तीव्र होता जा रहा है। हम इसे मज़दूरों और किसानों के बढ़ते संघर्षों में देखते हैं, जो अपनी रोज़ी-रोटी के अधिकार की मांग कर रहे हैं और निजीकरण और उदारीकरण का विरोध कर रहे हैं। हम इसे महिलाओं के उत्पीड़न के ख़िलाफ़, एक महिला और एक इंसान के रूप में अपने अधिकारों की मांग करते हुए महिलाओं के संघर्ष में देखते हैं। हम इसे बढ़ती बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ नौजवानों के विरोध प्रदर्शनों में देखते हैं। हम इसे राजकीय आतंकवाद और लोकतांत्रिक अधिकारों के उल्लंघन के ख़िलाफ़ सभी प्रगतिशील ताक़तों के विरोध प्रदर्शन में देखते हैं।

हुक्मरान वर्ग लोगों को वर्ग संघर्ष के रास्ते से हटाने और लोगों की एकता को तोड़ने के लिए, उनके बीच हर तरह के सांप्रदायिक बंटवारे को भड़काता रहता है। पूंजीपति वर्ग और उसकी पार्टियां इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए, राज्य और केंद्र स्तर पर समय-समय पर होने वाले चुनावों का उपयोग करती हैं।

मिसाल के तौर पर, पांच राज्यों के हालिया चुनावों के अभियानों में हमने देखा कि कैसे भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों ने लोगों की जातिवादी और धार्मिक पहचान के आधार पर वोट की अपील की। उनके नेताओं ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नीचे से नीचे स्तर के झूठ और बदनामी का सहारा लिया। उन्होंने बेरोज़गारी और मुद्रास्फीति जैसे वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए, लोगों को आपस में बांटने वाले मुद्दे उठाए।

पूंजीपति वर्ग और उसकी पार्टियों का झूठा प्रचार चुनाव अभियान के साथ समाप्त नहीं होता है। चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद, तरह-तरह के चुनाव विश्लेषक और तथाकथित विशेषज्ञ यह समझाने के लिए हर प्रकार के नकली सिद्धांत फैलाते हैं कि एक पार्टी क्यों जीती और दूसरी क्यों हारी। वे यह धारणा बनाते हैं कि लोगों ने धार्मिक और जातिगत आधार पर वोट दिया, या परिणाम फलां पार्टी या नेता में लोगों के विश्वास को दर्शाते हैं। इस तरह के सभी प्रचारों का उद्देश्य इस सच्चाई को छिपाना है, कि मौजूदा व्यवस्था में लोग चुनाव के नतीजे तय नहीं करते हैं।

इजारेदार पूंजीपतियों की अगुवाई में सरमायदार वर्ग चुनावों के नतीजे निर्धारित करता है। सरमायदार अपने विशाल धन बल, समाचार और सोशल मीडिया पर अपने नियंत्रण और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की हैकिंग व धांधली के तरह-तरह के तरीक़ों का उपयोग करके ऐसा करते हैं। सरमायदार अपनी पसंद की पार्टी को कार्यकारी शक्ति सौंपने के लिए चुनावी प्रक्रिया का उपयोग करते हैं, जबकि यह गलत धारणा बनाते हैं कि लोगों ने उस पार्टी को जनादेश दिया है।

यह भ्रम कि चुनाव लोगों की इच्छा को प्रकट करता है, यह सरमायदारों की हुकूमत को वैधता दिलाने का काम करता है। यह मज़दूरों और किसानों को सरमायदार वर्ग की हुक्मशाही के तले दबाये रखने का काम करता है। यही कारण है कि हमारी पार्टी ने यह समझाने का बीड़ा उठाया है कि हिन्दोस्तान पर कौन राज करता है और कैसे राज करता है। सरकार चलाने वाली पार्टी के पीछे सरमायदार वर्ग है, जिसका नेतृत्व इजारेदार घरानों द्वारा किया जाता है। यही लोग हैं जो एजेंडा तय कर रहे हैं। ये ही देश के असली हुक्मरान हैं।

सरमायदार वर्ग का चरित्र ही ऐसा है कि वह प्रतिस्पर्धी गुटों और प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक पार्टियों में बंटा हुआ है। हमारे देश में केंद्र और राज्य स्तर पर कई सरमायदारी पार्टियां हैं। जबकि वे सत्ता की सीटों पर क़ब्ज़ा करने के लिए एक-दूसरे के साथ कड़ी प्रतिस्पर्धा में लगी हुयी हैं, तो ये सभी पार्टियां सरमायदार वर्ग द्वारा निर्धारित एजेंडे को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जब वे सरकार में नहीं होती हैं, तो वे शोषित और पीड़ित लोगों के हितों के लिए लड़ने का दिखावा करती हैं। लेकिन जब उन्हें सरकार बनाने का मौका मिलता है, तो वे सरमायदार वर्ग द्वारा निर्धारित एजेंडे को लागू करती हैं।

एक सरमायदार पार्टी द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले तरीके़ और नारे दूसरी सरमायदार पार्टी द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले तरीक़ों और नारों से भिन्न होते हैं। लेकिन उनका एजेंडा एक जैसा होता है। पिछले तीन दशकों के अनुभव से यह सच्चाई स्पष्ट हो जाती है।

साथियों,

जैसे-जैसे आर्थिक शक्ति कम से कम हाथों में संकेंद्रित होती जाती है, वैसे-वैसे राजनीतिक शक्ति भी कम से कम हाथों में संकेंद्रित होती जा रही है, तथा लोकतांत्रिक अधिकारों पर ज्यादा से ज्यादा जबरदस्त हमले हो रहे हैं।

जैसे-जैसे मज़दूरों, किसानों, महिलाओं और नौजवानों के संघर्ष तेज़ होते रहे हैं, वैसे-वैसे एक के बाद दूसरी सरकारों ने संघर्षों के क्रूर दमन को जायज़ ठहराने के लिए, एक के बाद एक कठोर क़ानून लागू किये हैं। इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (एन.एस.ए.), टाडा, पोटा और संशोधित यू.ए.पी.ए. शामिल हैं।

बढ़ते शोषण और अन्याय का विरोध करने वाले लोगों को नियमित तौर पर गिरफ़्तार कर लिया जाता है। उन्हें बिना कोई मुक़दमा चलाये या बिना किसी अपराध के दोषी ठहराए, कई सालों तक जेल में बंद रखा जाता है। दूसरी ओर, जो लोग धर्म, जाति या नस्ल के आधार पर नफ़रत फैलाते हैं और झगड़े उकसाते हैं, उन्हें यह सब जारी रखने के लिए पूरा प्रोत्साहन दिया जाता है।

पिछले कई दशकों से लोकतांत्रिक अधिकारों पर जबरदस्त हमले, राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा, मनमानी गिरफ़्तारियां और अन्य समाज- विरोधी प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं। अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की सरकारों के चलते, ऐसा होता रहा है। इससे पता चलता है कि पूंजीपति वर्ग के लिए, पुराने तरीके़ से राज करना ज़्यादा से ज़्यादा मुश्किल होता जा रहा है।

अगर अगले साल केंद्र में भाजपा की सरकार की जगह पर कांग्रेस पार्टी की सरकार आ जाती है, तो न तो बढ़ती आर्थिक कठिनाई की समस्या हल होने वाली है और न ही लोगों के अधिकारों पर बढ़ते हमलों की। इन समस्याओं का समाधान सत्ता में बैठे वर्ग को बदलने में है। पूंजीपति वर्ग की हुकूमत की जगह पर, किसानों और अन्य मेहनतकश लोगों के साथ गठबंधन में, मज़दूर वर्ग की हुकूमत स्थापित की जानी चाहिए। हमें राजनीतिक व्यवस्था और चुनावी प्रक्रिया में गुणात्मक परिवर्तन के लिए संघर्ष करना होगा।

साथियों,

मौजूदा संसदीय व्यवस्था में फै़सले लेने की शक्ति सरमायदार वर्ग और उसके राजनीतिक प्रतिनिधियों के हाथ में है। मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता राजनीतिक सत्ता से पूरी तरह बाहर रखे गए हैं।

इस व्यवस्था में चुनाव सरमायदार वर्ग की दो या दो से अधिक पार्टियों के बीच प्रतियोगिता है, यह तय करने के लिए कि उनमें से कौन मेहनतकश जनता को सबसे कुशल तरीके़ से बुद्धू बना सकता है। सरमायदार वर्ग इन पार्टियों को धन देता है और उनके चुनाव अभियानों पर हज़ारों-करोड़ों रुपये ख़र्च करता है। चुनाव के बाद जो सरकार बनती है वह सरमायदार वर्ग के एजेंडे को लागू करती है। जिन पूंजीपतियों ने विजयी पार्टी में अपना पैसा निवेश किया था, उन्हें अपने निवेश के बदले में तरह-तरह के लाभ मिलते हैं, जैसे कि आकर्षक ठेके व ऐसी नीतियां जिनसे उनके मुनाफ़ों में खूब बढ़ोतरी होती है।

सरमायदार वर्ग की राजनीतिक पार्टियां चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन करती हैं। मेहनतकश लोगों की इसमें कोई भूमिका नहीं होती है। जो लोग चुने जाते हैं, वे मतदाताओं के प्रति जवाबदेह नहीं होते हैं। अगर वे अपनी जिम़्मेदारी को निभाने में असफल रहते हैं तो मतदाता उन्हें वापस नहीं बुला सकते हैं।

संसद द्वारा पारित क़ानूनों को बनाने में लोगों की कोई भूमिका नहीं होती है। लोग न तो क़ानूनों का प्रस्ताव कर सकते हैं, न ही जनहित के ख़िलाफ़ जाने वाले क़ानूनों को रद्द करने की मांग कर सकते हैं।

संक्षेप में, प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था सरमायदार वर्ग की हुकूमत को वैधता दिलाता है। यह सरमायदारी लोकतंत्र की व्यवस्था है, यानी यह सरमायदार वर्ग के लिए लोकतंत्र है। यह मज़दूरों, किसानों और अन्य मेहनतकश लोगों पर क्रूर हुक्मशाही है।

यह व्यवस्था अब पुरानी हो चुकी है, इसका समय पूरा हो चुका है। यह आधुनिक समय में लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं है। आज लोग यह चाहते हैं कि समाज पर कैसे शासन किया जाए, इस पर फै़सले लेने में उनकी हिस्सेदारी हो। लोग एजेंडा तय करने में अपनी भूमिका चाहते हैं।

फै़सले लेने की शक्ति प्राप्त करने की लोगों की इच्छा और आकांक्षा को सरमायदार वर्ग कभी पूरा नहीं कर सकता है। श्रमजीवी वर्ग को इसका बीड़ा उठाना होगा। हम कम्युनिस्टों को एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने के लिए संघर्ष को अगुवाई देनी होगी, जिसमें फै़सले लेने की शक्ति लोगों के हाथों में हो।

ऐसे आधुनिक श्रमजीवी लोकतंत्र का संविधान लोगों को अंतिम फै़सले लेने वालों के रूप में मान्यता देगा। वह संप्रभुता को संसद या राष्ट्रपति के हाथों में निहित नहीं रखेगा। वह समस्त लोगों को संप्रभुता प्रदान करेगा।

कार्यपालिका को विधायिकी के प्रति जवाबदेह होना होगा और चुने गए लोगों को मतदाताओं को समय-समय पर अपने काम का हिसाब देना होगा। मतदाताओं को अपने निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव के लिए खड़े उम्मीदवारों की सूची का चयन करने में निर्णायक भूमिका निभानी होगी। अगर चुने गए प्रतिनिधि का काम असंतोषजनक है तो उन्हें किसी भी समय वापस बुलाने का अधिकार लोगों के पास होना चाहिए। लोगों को क़ानून प्रस्तावित करने के साथ-साथ, किसी भी मौजूदा क़ानून को रद्द करने का भी अधिकार होना चाहिए।

हमारे सामने सबसे महत्वपूर्ण काम मज़दूरों और किसानों के कार्यकर्ताओं और संगठनकर्ताओं को यह समझाना है कि एक ऐसी नई व्यवस्था, जिसमें लोग खुद अपना शासन करेंगे, इसे स्थापित करना आवश्यक है और संभव भी है। यह सिर्फ़ भविष्य की संभावना नहीं है। यह एक ऐसी समस्या है जिसे समाधान के लिए उठाना होगा।

हमें मज़दूरों और किसानों को राजनीतिक व्यवस्था और चुनावी प्रक्रिया में ऐसे बदलावों की मांग करने और उनके लिए संघर्ष करने के लक्ष्य के साथ लामबंध करना होगा, ताकि फै़सले लेने की शक्ति हमारे हाथों में हो।

हमारे देश में उत्पादक शक्तियां इतनी विकसित हो गई हैं कि पूरे समाज की पौष्टिक भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पर्याप्त आवास, किफ़ायती दामों पर सार्वजनिक परिवहन, बिजली आपूर्ति और अन्य बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना पूरी तरह से संभव है। सभी को सुरक्षित रोज़गार और खुशहाली सुनिश्चित करने के लिए, अर्थव्यवस्था को नियोजित करना पूरी तरह संभव है। बस ज़रूरत इस बात की है कि अर्थव्यवस्था की दिशा को पूंजीवादी लालच को पूरा करने से बदलकर, लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने की ओर मोड़ दिया जाए।

साथियों,

वर्ष 2023 जल्द ही समाप्त होने वाला है। इस वर्ष के दौरान जीवन की एक बड़ी विशेषता दुनियाभर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों की बढ़ती ताक़त रही है।

विश्व स्तर पर अमानवीय पूंजीवादी- साम्राज्यवादी व्यवस्था का व्यापक विरोध ज़ोर पकड़ रहा है। सभी पूंजीवादी देशों में मज़दूर सड़कों पर उतर रहे हैं और अपने हुक्मरानों के अपनाये गए रास्ते का विरोध कर रहे हैं। वे नौकरियों के विनाश, बढ़ते शोषण, सामाजिक सेवाओं में कटौती, अर्थव्यवस्था के सैन्यीकरण और क़ब्ज़ाकारी जंग का विरोध कर रहे हैं।

अमरीका और दुनिया के अन्य प्रमुख पूंजीवादी देशों में हुक्मरान वर्ग बहुत शक्तिशाली प्रतीत होते हैं, लेकिन वास्तव में उनकी स्थिति दिन-ब-दिन कमज़ोर होती जा रही है। उनके लिए पुराने तरीके़ से शासन करना कठिन होता जा रहा है। उनकी शासन व्यवस्था बदनाम हो रही है। यह उत्तरी अमरीका और यूरोप के अगुवा पूंजीवादी देशों में फैले हुए राजनीतिक संकट से साफ़-साफ़ दिखता है।

अक्तूबर के मध्य से, हम लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क, मैक्सिको सिटी, बगदाद और दुनियाभर के कई अन्य शहरों की सड़कों पर, बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन देख रहे हैं। फ़िलिस्तीनी लोगों के ख़िलाफ़ इज़रायल द्वारा छेड़े जा रहे अमानवीय जनसंहारक युद्ध के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हुए लाखों-लाखों लोग सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं।

अधिक से अधिक राज्य जनसंहार को रोकने की मांग कर रहे हैं। इज़रायल का मुख्य समर्थक अमरीका लगातार अलग-थलग और बदनाम होता जा रहा है। अमरीका का दावा, कि वह मानवाधिकारों, लोकतंत्र व नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था का समर्थन करता है, यह बेनक़ाब हो गया है। अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इज़रायल के जनसंहारक अभियान को समाप्त करने के सभी प्रस्तावों को वीटो कर दिया है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के 186 सदस्य देशों में से 153 ने 12 दिसंबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पारित एक प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया, जिसमें ग़ाज़ा में तत्काल युद्धविराम की मांग की गई थी। यहां तक कि हिन्दोस्तान की सरकार, जिसने इससे पूर्व के प्रस्ताव से एबस्टेन किया था, उसने भी इस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। अमरीका और इज़रायल समेत सिर्फ़ 10 देशों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया।

साथियों,

हमारे देश के मज़दूर वर्ग और किसानों के सामने सबसे बड़ी बाधा यह भ्रम है कि उनके हितों को संसदीय लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था के ज़रिये पूरा किया जा सकता है। हमारी पार्टी के प्रकाशन “हिन्दोस्तान पर कौन राज करता है?” का इस भ्रम को तोड़ने के संघर्ष में एक निर्णायक योगदान है।

हमारे सामने सबसे महत्वपूर्ण तात्कालिक कार्य इस पुस्तक को मज़दूर वर्ग और व्यापक जनता के बीच दूर-दूर तक फैलाना और इस पर चर्चा आयोजित करना है। सरमायदार वर्ग किस प्रकार से शासन करता है, इसे समझना बहुत ज़रूरी है, ताकि हम एक ऐसे आधुनिक लोकतंत्र की रचना कर सकें, जिसमें लोग स्वयं शासन करेंगे और फ़ैसले लेने वाले होंगे।

साथियों,

45 साल पहले, जनवरी 1979 में पीपल्स वॉयस का पहला अंक हमारी पार्टी की स्थापना की तैयारी के हिस्से बतौर प्रकाशित किया गया था। जैसा कि आप सभी जानते हैं, पीपल्स वॉयस बाद में पार्टी की केंद्रीय समिति का मुखपत्र बन गया। आगे चलते हुए, इसका नाम बदलकर मज़दूर एकता लहर कर दिया गया।

45 साल पहले प्रकाशित पीपल्स वॉयस के पहले अंक के प्रमुख लेख में घोषणा की गई थी – ”मार्क्सवाद, लेनिनवाद और श्रमजीवी अंतर्राष्ट्रीयवाद के सुर्ख लाल झंडे को ऊंचा रखें!“

हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि हमारी पार्टी ने हमेशा माक्र्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक शिक्षाओं की दृढ़ता से हिफ़ाज़त की है। हम मज़दूर वर्ग को संगठित करने और उसे अपने मिशन – पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने, हिन्दोस्तानी समाज को सभी प्रकार के शोषण और उत्पीड़न से मुक्त करने और समाजवादी समाज के निर्माण का मार्ग खोलने – के अपने मिशन के बारे में सचेत करने के उद्देश्य के प्रति वफ़ादार रहे हैं।

हमारे देश के मज़दूर वर्ग और मेहनतकश लोग हिन्दोस्तानी समाज की सभी समस्याओं का समाधान करने में बहुत सक्षम हैं। इन समस्याओं के समाधान के रास्ते में जो बाधा है वह संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था है, जो सरमायदार वर्ग की हुक्मशाही का एक रूप है।

यह वक्त की मांग है कि पुरानी संसदीय व्यवस्था को एक आधुनिक व्यवस्था में बदल दिया जाये, जिसमें फ़ैसले लेने की शक्ति मज़दूर वर्ग और अन्य मेहनतकश लोगों के हाथों में हो। ऐसा करके, हम अर्थव्यवस्था को पूंजीवादी लालच को पूरा करने की दिशा से लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में मोड़ सकेंगे। हम साम्राज्यवाद के असूलन विरोध और विश्व शांति के हित के आधार पर, देश की विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को नयी परिभाषा देंगे। यह हिन्दोस्तान के नव-निर्माण का कार्यक्रम है।

आइए, हम अपनी पार्टी को बनाएं और उसे मजबूत करें; राजनीतिक तौर पर एकजुट मज़दूर वर्ग को अगुवाई देने के लिए कम्युनिस्ट आंदोलन की एकता को बहाल करें; हिन्दोस्तान के नव-निर्माण के कार्यक्रम के इर्द-गिर्द किसानों और सभी उत्पीड़ित लोगों को एकजुट करें!

इंक़लाब ज़िन्दादाबाद!

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