बिजली के वितरण का निजीकरण – झूठे दावे और असली उद्देश्य

हिन्दोस्तान में बिजली पर वर्ग संघर्ष पर लेखों की श्रृंखला में यह पांचवां लेख है

यदि सरकार बिजली (संशोधन) विधेयक 2022 को संसद में पेश करती है तो लगभग 27 लाख बिजली मज़दूर देशभर में हड़ताल पर जाने की धमकी दे रहे हैं। वे मांग कर रहे हैं कि सरकार बिजली वितरण के निजीकरण की अपनी योजना को लागू न करे।

बिजली (संशोधन) विधेयक 2022 में राज्य के स्वामित्व वाली वितरण कंपनियों को अपनी बिजली की तारों के नेटवर्क को निजी कंपनियों को मामूली शुल्क पर प्रदान करने के लिए मजबूर करने का प्रस्ताव है। सार्वजनिक धन से निर्मित बिजली वितरण नेटवर्क पूंजीपतियों को उपयोग करने के लिए लगभग मुफ़्त में दिया जा रहा है, ताकि वे बिजली वितरण के व्यवसाय से अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमा सकें।

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चंडीगढ़ में बिजली विभाग के निजीकरण के विरोध में यूटी पावरमैन यूनियन (फरवरी 2022)

विधेयक में सब्सिडी वाली बिजली की आपूर्ति को समाप्त करने का भी प्रस्ताव है। हर ग्राहक से बिना किसी सब्सिडी के पूरी दर से शुल्क लिया जाएगा। ग्राहकों की किसी श्रेणी को दी जाने वाली कोई भी सब्सिडी राज्य सरकार द्वारा डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांस्फर (डी.बी.टी.) योजना के माध्यम से प्रदान की जाएगी, जैसा कि रसोई गैस सिलिंडर के मामले में किया जाता है। बिजली के पूरे दाम वसूलने का सीधा असर करोड़ों किसानों पर पड़ेगा। इसीलिये किसान बिजली संशोधन विधेयक का विरोध कर रहे हैं। तीन कृषि विधेयकों को निरस्त करते समय केंद्र सरकार द्वारा किसानों को आश्वासन दिया गया था कि उनसे परामर्श किए बिना बिजली संशोधन विधेयक को पास नहीं किया जाएगा।

बिजली वितरण के निजीकरण का समर्थन करने वालों का दावा है कि इससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा आएगी, जिससे बिजली की आपूर्ति सस्ती दरों पर अधिक कुशल और विश्वसनीय होगी। अब तक के जीवन का अनुभव इन दावों के विपरीत रहा है। ओडिशा पहला राज्य है जहां बिजली के निजीकरण की योजना लागू की गयी थी। वहां वितरण के क्षेत्र में निजी कंपनियों के आने से कुशलता में कोई सुधार नहीं हुआ या परिचालन घाटे में कमी नहीं आई। मुंबई में बिजली की आपूर्ति दो निजी और एक सार्वजनिक कंपनियां करती हैं; जबकि मुंबई में बिजली की दरें देश की सबसे ऊंची दरों में हैं।

बिजली वितरण के निजीकरण का समर्थन करने वालों का दावा है कि इससे ग्राहकों को विभिन्न कंपनियों के बीच में से आपूर्तिकर्ता चुनने की स्वतंत्रता होगी। दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में टाटा और रिलायंस घरानों के इजारेदारी वाली दो कंपनियों का नियंत्रण है। ग्राहकों के पास कंपनी चुनने का कोई विकल्प नहीं है। वे किसी न किसी निजी कंपनी के इजारेदारी के आधीन हैं।

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उत्तर प्रदेश बिजली मज़दूर संयुक्त कार्रवाई समिति (श्र।ब्) ने निजीकरण के खिलाफ कैंडललाइट मार्च, लखनऊ (2020))

यही हाल मुंबई का भी है जहां पर अडानी पावर और टाटा पावर एक ही इलाके में बिजली का वितरण करते हैं। टाटा पावर, अडानी पावर के नेटवर्क का इस्तेमाल करता है। इससे ग्राहकों को किसी भी तरह का फ़ायदा नहीं होता है। इसके विपरीत, दोनों इजारेदारों ने 12 से 14 रुपये प्रति यूनिट की दर को लागू करके यहां पर बिजली को देश की सबसे महंगी बिजली बना दी है। यह दावा झूठा है कि वितरण का निजीकरण उपभोक्ताओं को बिजली वितरण कंपनी चुनने की स्वतंत्रता देगा। यह दावा केवल इसीलिये किया जा रहा है ताकि निजीकरण के लिये समर्थन जुटाया जा सके।

वितरण के निजीकरण की सफाई में दिए गए तर्कों में एक यह है कि इससे वितरण घाटा कम होगा, बिलों के संग्रह में सुधार होगा, जिससे बिजली सस्ती हो जाएगी। राज्य के स्वामित्व वाली वितरण कंपनियों को पुराने उपकरणों को बदलने, वितरण के वर्तमान बुनियादी ढांचे का रख-रखाव करने व इसको उन्नत करने के लिए ज़रूरी धन नहीं दिया जाता है। यही देश में अत्याधिक वितरण घाटे का एक प्रमुख कारण है। चूंकि वितरण करने वाली निजी कंपनियां राज्य के स्वामित्व वाले मौजूदा बुनियादी ढांचे का ही उपयोग कर रही हैं, इसीलिये निजीकरण से वितरण घाटे को कम नहीं किया जा सकता। यह दावा भी झूठा है।

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यूपी बिजली मज़दूर ज्वाइंट एक्शन कमेटी, मशाल रैली

बिजली वितरण के निजीकरण का कार्यक्रम पिछले 25 सालों से एजेंडे पर है। गांवों के किसानों से लेकर शहरों के कामकाजी परिवारों तक में इसका व्यापक विरोध हो रहा है। जिसके कारण शासक वर्ग ने पाया है कि निजीकरण के कार्यक्रम में बिजली का निजीकरण करना सबसे कठिन है।

1990 के दशक के दौरान, केंद्र सरकार ने विश्व बैंक और उसकी तथाकथित विशेषज्ञ टीम को विभिन्न राज्य सरकारों के साथ यह नीतिगत संवाद करने की अनुमति दी थी कि बिजली बोर्डों में कैसे सुधार किया जाये। इसका उद्देश्य बिजली बोर्डों के व्यवसाय के विभिन्न हिस्सों में निजी कंपनियों के लिए जगह बनाना था।

इस कार्यक्रम में पहला क़दम था राज्य बिजली बोर्डों को तीन हिस्सों में – उत्पादन, पारेषण (ट्रांसमिशन) और वितरण की अलग-अलग संस्थानों में तोड़ना। इसे ”अनबंडलिंग“ कहा गया। इसका उद्देश्य था कि पूंजीवादी इजारेदार कंपनियां अलग-अलग हिस्सों को एक-एक करके हासिल कर सकें।

जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में बिजली क्षेत्र के मज़दूरों और इंजीनियरों ने बिजली विधेयक 2020 को वापस लेने की मांग को लेकर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन किया

बिजली मज़दूर देख सकते थे कि राज्य बिजली बोर्डों को तोड़ना निजीकरण की दिशा में पहला क़दम है। 1999 में उत्तर प्रदेश की सरकार के द्वारा किये जा रहे इस तरह के विभाजन के फ़ैसले का मज़दूरों ने कड़ा विरोध किया। जनवरी 2000 में सभी यूनियनें एक साथ आईं और 80,000 से अधिक बिजली मज़दूरों ने काम बंद कर दिया। राज्य सरकार द्वारा उनका दमन किये जाने से दूसरे राज्यों के बिजली मज़दूर नाराज़ हो गए और सभी ने एकजुटता के साथ एक दिन के लिए काम बंद कर दिया।

बिजली अधिनियम 2003 के द्वारा पूरे देश में राज्य बिजली बोर्डों को तोड़ने (अनबंडलिंग करने) का और प्रत्येक राज्य में नियामक आयोगों की स्थापना का क़ानूनी ढांचा प्रदान किया गया। बिजली मज़दूरों ने इन परिवर्तनों का विरोध करना जारी रखा। 2003 के अधिनियम के लागू होने के 10 साल बाद भी, कई राज्य अपने बिजली बोर्डों को तोड़ने में सक्षम नहीं थे। केरल और हिमाचल प्रदेश के मज़दूर बिजली बोर्ड को तोड़ने से रोकने में सफ़ल रहे। इन सभी राज्यों में, बिजली बोर्ड को उत्पादन, पारेषण (ट्रांसमिशन) और वितरण करने वाले एकल निगम में बदल दिया गया।

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तमिलनाडु जनरेशन एंड डिस्ट्रीब्यूशन कॉर्पोरेशन (TANGEDCO) निजीकरण का विरोध कर रहा है

राज्य बिजली बोर्ड बहुत लंबे समय से ख़राब वित्तीय स्थिति में हैं। राज्य सरकारों के प्रशासनिक तंत्र की दखलंदाज़ी ने बिजली वितरण में अत्याधिक भ्रष्टाचार को जन्म दिया। विशेषाधिकार प्राप्त ग्राहकों को बिजली का कोई बिल दिए बिना ही आपूर्ति की जा रही थी या बिल बनाए जाते थे, लेकिन उनके भुगतान नहीं किए जाते थे। विशेषाधिकार प्राप्त ग्राहकों द्वारा बिलों का भुगतान नहीं करने पर उनके कनेक्शन नहीं काटे जाते थे। राजनीतिक तौर पर प्रभावी लोग राज्य बिजली बोर्डों को लूट कर भाग सकते थे। इसके अलावा, पुराने उपकरणों को बदलने के लिए धन की कमी के कारण पारेषण (ट्रांसमिशन) और वितरण के घाटे में लगातार वृद्धि हो रही थी।

इजारेदार पूंजीपतियों ने अधिकांश राज्य बिजली बोर्डों की ख़राब वित्तीय स्थिति को हल करने के लिए सार्वजनिक धन और प्रशासनिक ऊर्जा का इस्तेमाल न करने का फ़ैसला किया। उन्होंने इसका इस्तेमाल बिजली वितरण के निजीकरण की सफ़ाई पेश करने के लिए किया। विश्व बैंक के साथ निकट परामर्श पर किए गए इस फ़ैसले के ज़रिये राज्य के स्वामित्व वाली वितरण कंपनियों की वित्तीय स्थिति को बर्बाद कर दिया गया है। उनमें से अधिकांश के पास अब तक बिजली की आपूर्ति के लिए राज्य सरकारों और नगर निकायों से भुगतान का भारी बकाया जमा हो गया है। उन्हें अपने संचालन का प्रबंधन करने के लिए हर साल उधार लेना पड़ रहा है। वे कंपनियां कर्ज़ के चंगुल में फंसती जा रही हैं जिससे वे खुद को निकाल नहीं पा रही है।

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नोएडा में सभी बिजली पारेषण एवं आपूर्ति मज़दूरों की कार्रवाई (अक्टूबर 2020)

इजारेदार पूंजीपति राज्य के स्वामित्व वाली वितरण कंपनियों की गंभीर स्थिति का फ़ायदा उठा रहे हैं। पूंजीपति बिजली बोर्डों द्वारा पहले से निर्मित नेटवर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस तरह के बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल करने से, इस तरह के विशाल नए बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए आवश्वक पूंजी की बचत होगी और साथ ही इसके निर्माण के लिये लगने वाला वक़्त भी बचेगा।

हिन्दोस्तान में बिजली वितरण संविधान की समवर्ती सूची में आता है। यानी इस पर केंद्र और राज्य दोनों सरकारें क़ानून बना सकती हैं। केंद्र सरकार ने केंद्र शासित प्रदेशों में बिजली वितरण के निजीकरण पर ज़ोर देने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल किया है। कई राज्य सरकारों ने कम या ज्यादा हद तक बिजली वितरण का निजीकरण किया है। इजारेदार पूंजीपति बेसब्री से मांग कर रहे हैं कि केंद्र सरकार पूरे देश में लागू होने वाला क़ानून पारित करे, जो उन्हें राज्य बिजली बोर्डों के बिजली वितरण नेटवर्क को आसानी से ले लेने की अनुमति देगा।

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बिहार बिजली विभाग के मज़दूरों को पटना में पुलिस के वाटर कैननों और लाठीचार्ज का सामना करना पड़ा

बिजली (संशोधन) विधेयक 2022 इजारेदार पूंजीपतियों की इन मांगों को पूरा करता है। यह बिजली वितरण में बहुत ही कम निवेश करने पर भी, पहले से स्थापित सार्वजनिक बुनियादी ढांचे का उपयोग करके भारी मुनाफ़ा कमाने के उनके उद्देष्य को मान्यता देता है। यह किसानों और ग़रीब शहरी परिवारों की बिजली सब्सिडी में कटौती करने की उनकी मांगों के अनुरूप है। इसे श्रमिकों और किसानों के जनसमूह के व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा है।

चंडीगढ़, पुदुचेरी, दादरा नगर हवेली, दमन दीव और लक्षद्वीप, इन सभी केंद्र शासित प्रदेशों में बिजली के वितरण का निजीकरण करने के केंद्र सरकार के फ़ैसले को मज़दूरों और उपभोक्ताओं के कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इन केंद्र शासित प्रदेशों में, ग्राहकों को अपने आपूर्तिकर्ता को चुनने के लिए विकल्प देने के दावे को भुला दिया गया है और वितरण को एकाधिकार वाली कंपनी को सौंप दिया गया है।

फरवरी 2022 में बार-बार हड़ताल करके मज़दूरों ने चंडीगढ़ में बिजली के वितरण के निजीकरण को अब तक सफलतापूर्वक रोक रखा है। उन्होंने केंद्र शासित प्रदेश में बिजली की दरें उत्तरी क्षेत्र में सबसे कम होने की ओर इशारा करते हुए ग्राहकों का समर्थन मांगा है। इसके विपरीत सरकार गोयंका समूह को पूरा विभाग बेचना चाहती है। बिजली का वितरण करने वाली गोयंका समूह की कंपनी कोलकाता में चंडीगढ़ की दर के मुक़ाबले, बिजली को तीन गुना दर पर बेच रही है।

फरवरी 2022 में केंद्र शासित प्रदेश पुदुचेरी के बिजली मज़दूरों और इंजीनियरों द्वारा भी इसी तरह का संघर्ष किया गया था, जिसने सरकार को यह आश्वासन देने के लिए मजबूर किया कि उनसे परामर्श किए बिना कोई भी निजीकरण नहीं किया जाएगा। चूंकि सरकार अब अपने आश्वासन से मुकर रही है, मज़दूरों ने निजीकरण के खि़लाफ़ अपना आंदोलन फिर से शुरू कर दिया है।

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पुदुचेरी में बिजली वितरण के निजीकरण के खिलाफ अनिश्चितकालीन हड़ताल करते बिजली विभाग के मज़दूर

केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में, पहले पावर ग्रिड कॉरपोरेशन के साथ बिजली के राज्य पारेषण (ट्रांसमिशन) उपक्रम का एक संयुक्त उद्यम बनाकर और बाद में इसे एक निजी कंपनी को सौंपकर निजीकरण का प्रयास किया गया था। दिसंबर 2021 में जम्मू-कश्मीर के बिजली मज़दूरों और इंजीनियरों ने आंदोलन में अपनी फौलादी एकता का प्रदर्शन किया। वे जम्मू-कश्मीर के लोगों के समर्थन से इस जन-विरोधी प्रयास को हराने में सफ़ल रहे।

बिजली वितरण के निजीकरण के खि़लाफ़ संघर्ष तेज़ होता जा रहा है। बिजली क्षेत्र के मज़दूरों के प्रयासों को अन्य सभी मज़दूरों, किसानों और मेहनतकश लोगों का तहे दिल से समर्थन मिलना चाहिए। यह इजारेदार पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफ़े बनाने की लालच को पूरा करने के लिए, सार्वजनिक संपत्ति और सेवाओं के निजीकरण के उनके एजेंडे के खि़लाफ़ एक आम संघर्ष है।

चौथा लेख पढ़िए: बिजली उत्पादन का निजीकरण – झूठे दावे और असली उद्देश्य

छठा लेख पढ़िए: बिजली एक सामाजिक आवश्यकता है और एक सर्वव्यापी मानव अधिकार है

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