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फ़सलों के लिये एम.एस.पी. की मांग

संपादक महोदय,

मज़दूर एकता लहर के अंक मार्च 16-31 में छपा लेख – कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी आवश्यक है – को पढ़ने के बाद एक बात समझ में आयी कि दो साल पहले किसानों ने सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलन क्यों चलाया था, जिसमें अपनी फ़सलों के लिये एम.एस.पी. की मांग की थी और तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया था। किसानों के नेताओं से बात होने के बाद सरकार ने कृषि क़ानूनों को स्थगित कर दिया था और किसान नेताओं ने अपने चल रहे आंदोलन को वहीं रोक दिया था।

सरकार हर साल 23 कृषि उत्पादों के लिए एम.एस.पी. लागू करती है, जिसमें 7 अनाज़, 7 तिलहन, 5 दालें और 4 वाणिज्य फ़सलें शामिल हैं, जिसमें सरकार केवल गेहूं और धान के लिये ही फ़सलों को एम.एस.पी. पर ख़रीदने का आश्वासन दे रही है, और यह भी कुछ ही राज्यों में। तो किसान गेहूं और धान की फ़सलें ही उगाएंगे। सरकार कहीं न कहीं किसानों को कारपोरेट निजी मंडियों या व्यापारियों की तरफ़ भेजना चाहती है।

सरकार जो एम.एस.पी. दे रही है वह भी 15 प्रतिशत किसानों को ही मिलती है। जबकि 85 प्रतिशत किसान अपनी फ़सलों को एम.एस.पी. से कम क़ीमतों पर बेचने को मजबूर हैं। किसान नेता ऐसा कृषि क़ानून चाहते हैं जिससे यह गारंटी हो कि उनकी फ़सलों को एम.एस.पी. के सही दाम से कम पर न ख़रीदा जाए।

बीते कई दशकों का अनुभव दिखाता है कि कई राजनीतिक पार्टियों की सरकारें आती हैं और जाती हैं। लेकिन कोई भी मज़दूरों-किसानों के हित के लिए काम नहीं करती है। जब तक मज़दूरों और किसानों के हाथों में सत्ता की बागडोर नहीं आ जाती, तब तक मौजूदा पूंजीवादी सरकार बड़े-बड़े कार्पोरेट घरानों के हितों के लिए ही काम करेगी। वह मज़दूरों और किसानों की किसी की भी मांग को पूरा नहीं कर सकती हैं।

मज़दूरों और किसानों को ही अपने हाथों में राज्य सत्ता लेकर, उत्पादन के सभी साधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित करके, लोगों की खुशहाली सुनिश्चित करने की दिशा में समाज को आगे बढ़ाना होगा।

रोहित कुमार
दिल्ली

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