सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के बजाय पैसे देने के प्रस्ताव की कड़ी निंदा करें!

हिन्दोस्तान में सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को खत्म करने की सरकार की विभिन्न कोशिशों में सबसे हाल की कोशिश ‘पैसे देने’ का तथाकथित प्रस्ताव है। इस योजना के अनुसार, गरीबी रेखा से नीचे आने वाले परिवारों को सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के तहत भोजन आदि दिलाने के बजाय, अब कुछ पैसा दिया जायेगा।

हिन्दोस्तान में सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को खत्म करने की सरकार की विभिन्न कोशिशों में सबसे हाल की कोशिश ‘पैसे देने’ का तथाकथित प्रस्ताव है। इस योजना के अनुसार, गरीबी रेखा से नीचे आने वाले परिवारों को सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के तहत भोजन आदि दिलाने के बजाय, अब कुछ पैसा दिया जायेगा।

इस प्रस्ताव में कहा जा रहा है कि इन लोगों को बैंकों से पैसा मिलेगा या किसी स्तर के अधिकारियों से कैश कूपन दिया जायेगा, जिससे उन्हें खुले बाजार में अपनी जरूरत के अनुसार अनाज खरीदना पड़ेगा।

इस योजना को उचित ठहराने के लिये यह कहा जा रहा है कि यह सार्वजनिक वितरण व्यवस्था से ज्यादा कुशल होगा और सरकार के लिये उसका प्रबंधन और संचालन ज्यादा आसान होगा। सरकार को अनाज और दूसरे खाद्य पदार्थों की खरीदारी करने, गोदाम में रखने, राशन की दुकान में सप्लाई करने आदि के बोझ से छुटकारा मिल जायेगा और चोरी, जमाखोरी आदि खत्म हो जायेंगे। यह भी कहा जा रहा है कि लोगों को अपने पैसे से अपनी पसंद की चीजें खरीदने की छूट मिलनी चाहिये।

यह प्रस्ताव हमारे मेहनतकशों के खाद्य के मूल अधिकार पर सीधा हमला है। लोगों के संघर्षों के दबाव में, 1960 में तत्कालीन केन्द्र सरकार को एक मूल सार्वजनिक वितरण व्यवस्था स्थापित करनी पड़ी थी, जिसके तहत सभी लोगों को कुछ न्यूनतम अनाज और कुछ और जरूरी चीजें दिलाने की घोषणा की गई थी। इस कदम का सीमित उद्देश्य शहरों में खाद्य के लिये दंगों को रोकना था। साथ ही साथ सरकार ने हरित क्रान्ति को शुरू किया और गिने-चुने राज्यों से गेहूं और धान की खरीदी शुरू की, जिससे राशन की दुकानों को अनाज की सप्लाई की जा सके और आपातकाल के लिये कुछ अतिरिक्त अनाज का भंडार भी बनाया जा सके। यह सार्वजनिक वितरण व्यवस्था भ्रष्टाचार, अनिश्चित सप्लाई और घटिया स्तर की चीजों की सप्लाई का शिकार बन गया। इसकी पहुंच भी सीमित थी। पहले इसे शहरी इलाकों में चलाया गया और फिर कुछ राज्यों में ग्रामीण इलाकों तक फैलाया गया।

उदारीकरण और निजीकरण के कार्यक्रम के शुरू होने से, 1990 के दशक के अंतिम वर्षों से राज्य ने सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को खत्म करने की सुनियोजित कोशिश शुरू कर दी। यह बहाना दिया गया कि राशन व्यवस्था ठीक से काम नहीं करती है। यह प्रचार किया गया कि “शहरों के मेहनतकशों को खाद्य सब्सीडी नहीं मिलनी चाहिये” । लक्षित सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के पक्ष में खूब प्रचार किया गया। यह कहा गया कि सरकार द्वारा मनमानी से तय की गई “गरीबी रेखा” के नीचे वाले परिवारों को ही पूर्ण खाद्य सब्सीडी का अधिकार मिलेगा। इस तरह करोड़ों मेहनतकश परिवारों को सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के दायरे से हटा दिया गया। इससे राशन व्यवस्था ज्यादा कुशल नहीं बनी, जैसा कि दावा किया गया था। बल्कि बहुत बड़ी संख्या में परिवारों को खाद्य के अधिकार से वंचित किया गया और कौन बीपीएल-कौन एपीएल, इसकी परिभाषा स्थापित करने का पूरा खेल शुरू हो गया।

बीते कुछ वर्षों में, हिन्दोस्तान और दुनिया में, बड़े पूंजीपति खाद्य और  कृषि क्षेत्र से बड़े-बड़े मुनाफे कमाने की संभावना देख रहे हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियां कृषि-व्यवसाय में घुस रही हैं और लाखों-लाखों छोटे किसानों को विस्थापित कर रही हैं। कई कंपनियां खाद्य के खुदरा बाजार में भी घुस चुकी हैं। कृषि सामग्रियांे में वायदा व्यापार भी चल रहा है, जिससे अचानक खाद्य का अभाव हो जाता है और खाद्य की कीमतें आसमान छूने लगती हैं। इस सबका यह सीधा असर हुआ है कि देश के बहुत से लोग कम खाने को मजबूर हो रहे हैं।

लोगों को सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के तहत खाद्य के अधिकार से वंचित करके, उन्हें बाजार में जाकर भोजन खरीदने के लिये कुछ पैसे देने की योजना को इस संदर्भ में देखना होगा। यह खाद्य के व्यापार में शामिल बड़ी-बड़ी इजारेदार कंपनियों को और अधिक मुनाफे बनाने में मदद देने का एक तरीका है। कृषि व्यापार की इजारेदार कंपनियां यह मांग कर रही हैं कि सरकार अनाज की खरीदारी से हट जाये ताकि कंपनियों को कृषि पदार्थों की खरीदी की कीमत घटाकर, खुदरा बाजार में उन्हें बेचकर अधिकतम मुनाफे मिलें। साथ ही साथ राज्य खाद्य की खरीदारी तथा खाद्य और दूसरी जरूरी सामग्रियों को जरूरतमंद लोगों में वितरित करने के खर्चे में कटौती करना चाहता है।    

हिन्दोस्तान में यह योजना हमारे लोगों को भूख और कुपोषण से कभी निजात नहीं दे सकती। सिर्फ बीते दो वर्षों में ही हर खाद्य पदार्थ, चाहे सब्जी हो या चीनी, तेल हो या दालें, की कीमतें आसमान छू रही हैं। कई ऐसे खाद्य पदार्थ मेहनतकश लोगों की पहुंच से बाहर हो गये हैं। सरकार को न तो इसका पूर्वाभास था और न ही सरकार ने इसे रोकने का कोई कदम उठाया है। क्या हम यकीन कर सकते हैं कि गरीबों के हाथ में पैसे देने की प्रस्तावित व्यवस्था में इस प्रकार की महंगाई का ध्यान रखा जायेगा? जिन सरकारी कर्मचारियों के वेतनों में नियमित तौर पर मुद्रास्फीति के लिये डी.ए. जोड़ा जाना चाहिये, उन्हें भी यह महसूस हो रहा है कि असली आमदनियां घटती जा रही हैं। आसमान छूने वाली कीमतों की हालत में गरीब लोग हाथ में थोड़ा पैसा पाकर कैसे अपना पेट भरेंगे?

एक और सवाल यह है कि इस पैसे का वितरण कैसे किया जायेगा। बैंक व्यवस्था लोगों के बीच में उतनी गहराई तक नहीं जाती है जितनी गहराई तक राशन व्यवस्था जाती थी और इस पैसे का वितरण करने वाले अन्य अधिकारियों को भी ऐसी समस्या का सामना करना पड़ सकता है। नरेगा कार्यक्रम को लागू करने में जो समस्याएं आगे आयी हैं, उनसे कुछ झलक मिलती है कि जिन लोगों के हाथ में पैसे देना चाहिये, उनके हाथ तक पैसा वास्तव में पहुंचता है या नहीं, इसका हिसाब रखना कितना मुश्किल है।

लोगों के हाथ में पैसे दिलाने के प्रस्ताव के कुछ हिमायती यह दावा करते हैं कि ब्राजिल और मैक्सिको जैसे कुछ देशों में यह योजना सफलता पूर्वक लागू हो चुकी है। यह फरेबी प्रचार है। इन दोनों देशों में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्रों में कुछ तबकों को पैसा दिया जाता है पर यहां आबादी के 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था के तहत सुरक्षित हैं। इन देशों में पैसे देने का प्रस्ताव इस सार्वजनिक व्यवस्था को हटाने के लिये नहीं है बल्कि सार्वजनिक व्यवस्था से बाहर के लोगों को अपने बच्चों को स्कूल भेजने, इत्यादि के लिये प्रोत्साहित करने का एक तरीका है। हिन्दोस्तान में बहुत बड़ी संख्या में लोगों को पहले से ही बहुत कम खाद्य का अधिकार है या बिल्कुल नहीं है और यहां खाद्य की सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को खत्म करने के लिये लोगों के हाथ में पैसे देने का प्रस्ताव रखा जा रहा है।

सभी जानते हैं कि भूतपूर्व सर्वव्यापी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था ने ठीक से काम नहीं किया। लोगों ने हमेशा इस मांग को लेकर संघर्ष किया है कि एक सर्वव्यापी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था हो जो सभी लोगों को प्रर्याप्त मात्रा में तथा अच्छी गुणवत्ता का भोजन और दूसरी जरूरी चीजें मुहैया कराये। हिन्दोस्तान जैसे देश में, जहां अधिकतम मेहनतकशों को अपनी आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा भोजन और जीवन की मूल जरूरतों पर खर्च करना पड़ता है, यहां ऐसी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था बेहद जरूरी है। परन्तु सरकार ऐसी व्यवस्था बनाने के बजाय, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को पूरी तरह हटाने और मेहनतकशों को लूटकर बड़ी इजारेदार कंपनियों और व्यापारियों के बेशुमार मुनाफों को और बढ़ाने की कोशिश कर रही है।

Share and Enjoy !

Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *