बैंकों के विलयन और निजीकरण का असली मकसद

तीन साल पहले जब केंद्र सरकार ने बैंकों के विलयन की प्रक्रिया शुरू की थी उस समय उसने दावा किया था कि विलयन का उद्देश्य बैंकों की “गैर-निष्पादित संपत्तियों (एन.पी.ए.)” या खराब कर्ज़ों की समस्या को सुलझाना है। लेकिन उस समय से बैंकों के खराब कर्ज़ों की समस्या बद से बदतर होती गयी है।

हाल ही में केंद्रीय वित्त मंत्री ने खुलासा किया है कि सभी रणनैतिक क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के अधिक से अधिक चार उद्यमों को ही काम करने की इजाजत दी जाएगी। उन्होंने बताया है कि सार्वजनिक बैंकों के विलयन का मकसद है “हिन्दोस्तान को पांच खरब की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए कुछ चंद लेकिन मजबूत और वैश्विक-आकार के बैंकों को तैयार करना”। उन्होंने एक बार भी “निजीकरण” शब्द का जिक्र नहीं किया। लेकिन अखबारों ने रिपोर्ट किया है कि केंद्र सरकार निजीकरण के ज़रिये सार्वजनिक बैंकों की मौजूद संख्या 12 से कम करके 4 या 5 तक सीमित करने की योजना बना रही है।

जैसा कि हमारे देश के हुक्मरान वर्ग के राजनेताओं का चरित्र है, अक्सर सच्चाई उनकी बड़ी-बड़ी घोषणाओं और वादों के पीछे छुपी होती है।

1969 में, जब सबसे बड़े निजी व्यावसायिक बैंकों को राज्य की मालिकी के तहत लाया गया था, उस समय की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने इसे एक समाजवादी कदम के रूप में पेश किया था। इसे तथाकथित तौर पर राष्ट्र हित में बताया गया था। लेकिन बैंकिंग को राज्य के नियंत्रण में लाने का फैसला, दरअसल टाटा, बिरला और अन्य बड़े औद्योगिक घरानों के हित में लिया गया था। अपनी संपत्ति को बढ़ाने और विदेशी पूजी पर अपनी निर्भरता को कम करने के लिए इन औद्योगिक घरानों के लिए यह जरूरी था कि वह लोगों की बचत पर अपना नियंत्रण जमाये। पूंजीवादी उद्योगों के लिए घरेलू बाज़ार तैयार करने के लिए पूंजीवादी और व्यावसायिक कृषि को बढ़ावा देना भी जरूरी था। हरित क्रांति के नाम से जाने जाने वाले पूंजीवादी और व्यावसायिक कृषि के लिए किसानों को ट्रेक्टर और अन्य कृषि उपकरणों, रासायनिक खाद और अधिक उपज वाले बीज खरीदने के लिए बैंक से कर्ज़ देना भी जरूरी था।

उस समय देशभर के लोग अपना पैसा जमा करने के लिए निजी बैंकों को विश्वसनीय नहीं मानते थे। देश भर में बैंकों की ग्रामीण शाखाएं स्थापित करना बहुत महंगा था।उन शाखाओं से अधिकतम मुनाफे की उम्मीद नहीं थी। इसलिए व्यावसायिक बैंकिंग को राज्य के तहत लाना जरूरी हो गया था। ऐसा करते हुए करोड़ों ग्रामीण परिवारों की बचत इकठ्ठा की जा सकी, जिसे बड़े पूंजीपतियों के लिए उपलब्ध किया गया। ऐसा करने से ग्रामीण बैंकिंग का विस्तार करने और हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों के लिए घरेलू बाजार तैयार करने में भी मदद मिली।

कृषि और लघु उद्योगों को “प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र” घोषित किया गया। सार्वजनिक बैंकों को किसानों और लघु उद्योगों के लिए अपने कुल कर्ज़ के आवंटन का एक निश्चित हिस्सा लक्षित करने के लिए कहा गया। लेकिन इस “प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र” के लिए दिया गया कर्ज़ बैंक के कुल कर्ज़े का एक छोटा सा हिस्सा ही बना रहा। कर्जे़ का अधिकांश हिस्सा बड़े औद्योगिक पूंजीपतियों को दिया गया।

इस तरह से सार्वजनिक बैंक हकीकत में सभी बड़े पूंजीपतियों की जागीर बन गए। अपने राजनीतिक संबंधों और मंत्रियों और वरिष्ठ नौकरशाहों पर अपने प्रभाव के चलते यह पूँजी निवेश के लिए बड़े पूंजीपतियों को बैंकों से कर्ज़ा निकालना आसान हो गया, भले ही उनका निवेश कितना ही जोखिम भरा क्यों न हो।

1990 तक आते-आते इजारेदार पूंजीपति घराने देश की अधिकांश दौलात को अपने हाथों में समेटने और देशभर में अपने औद्योगिक उत्पादों के लिए घरेलू बाज़ार तैयार करने में कामयाब हो गए। सदी के अंत तक वे विदेशों में बड़े पैमाने पर पूजी निवेश करने लगे। इन बदले हुए हालातों में उनके लिए पूँजी की जरूरत को पूरा करने के लिए तमाम सरकारों ने भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के झंडे तले “बैंकिंग सुधारों” को लागू करना शुरू किया।

बैंकिंग सुधारों की प्रक्रिया की शुरुआत सबसे पहले निजी बैंकों को लाइसेंस देने के साथ की गयी, और यह शर्त रखी गयी कि किसी एक निजी बैंक में किसी भी इजारेदार पूंजीपति घराने की भागीदारी 10 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती। इसके साथ ही सार्वजनिक बैंकों को स्टॉक मार्केट में उतारा गया, जिससे निजी पूंजीपति कंपनियां इन बैंकों में होने वाले मुनाफे से अपना हिस्सा हड़प सके। इन सार्वजनिक बैंकों पर निजी बैंकों के साथ होड़ करने और उतना ही मुनाफेदार होने के लिए भारी दबाव डाला जाने लगा। इनमें से कई बैंकों ने हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों के विश्व में आगे बढ़ने के लिए विदेशों में अपनी शाखाएं खोलनी शुरू कर दी।

हाल के वर्षों में डिजिटल भुगतान के क्षेत्र में हुए विकास का फायदा उठाते हुए अधिकतम मुनाफे बनाने के लिए रिलायंस, टाटा, बिरला और अन्य इजारेदार पूंजीपति घरानों ने अपने पेमेंट बैंकों की स्थापना की है।

इस समय इजारेदार पूंजीपति घरानों को अधिकतम मुनाफे बनाने के लिए बैंकिंग, बीमा और अन्य तरह के वित्तीय बिचैलियों की जरूरत है, जैसा कि विकसित पूंजीवादी देशों में किया जाता है। इस समय हमारे देश में यह बिचैलिया वित्तीय कंपनियां सभी पंजीकृत कंपनियों के कुल मुनाफे का 15 प्रतिशत हिस्सा अपने जेबों में डालती हैं। अमरीका में इसका प्रमाण 40 प्रतिशत से ऊपर है। हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपति घराने इस अंतर को कम करने के लिए बेचैन हैं।

केंद्र सरकार ने यह साफ कर दिया है कि बैंकिंग सुधारों का अंतिम लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा चार बड़े सार्वजनिक बैंकों को खड़ा करना है, जो कई बड़े निजी बैंकों के साथ होड़ करें और इस सबका मकसद केवल अधिकतम मुनाफे बनाना है। सबसे बड़े व्यावसायिक बैंकों को सरकार के नियंत्रण में रखने का यह मकसद है कि कोई भी विदेशी पूंजीपति समूह हमारे देश के वित्तीय संसाधनों पर अपना नियंत्रण न कर पाए।

कुल मिलकर देखा जाए तो बैंकिंग क्षेत्र को राज्य के नियंत्रण में लाने से पिछले 50 वर्षों में पूंजीपतियों की ही सेवा की गयी है। आज की परिस्थितियों में पूंजीपतियों के हितों को पूरा करने के लिए निजी बैंकों का विस्तार करने और विलयन और निजीकरण के रास्ते बैंकों की पूँजी को संकेंद्रित करने की जरूरत आन पड़ी है। जबकि सरकार की नीति को राष्ट्र हित में बताया जा रहा है, इसका असली मकसद इजारेदार पूंजीपति घरानों के अधिकतम मुनाफे के लालच को पूरा करना, और उनके विश्व प्रसार अभियान में सहयोग करना है।

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