समाज के उत्पादन से प्राप्त अतिरिक्त मूल्य पर मजदूरों के अधिकार को स्थापित करने का संघर्ष तेज़ करें!

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 22 मार्च, 2010

मजदूर साथियों!

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 22 मार्च, 2010

मजदूर साथियों!

मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा 2010-11के लिए पेश किये गये केन्द्रीय बजट की बहुत प्रशंसा की जा रही है क्योंकि वह सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में 9प्रतिशत संवर्धन हासिल करने का उद्देश्य रखता है। टी.वी. पर पूंजीपतियों के प्रचार से यह धारणा फैलायी जा रही है कि सकल घरेलू उत्पाद में संवर्धन समाज के सभी वर्गों के लिए हितकारी होगा। यह गलत सोच पैदा की जा रही है कि केन्द्रीय सरकार विभिन्न मांगों और दबावों के बीच आपसी संतुलन बनाकर, सभी वर्गों में खुशखबरी बांट रही है।

सकल घरेलू उत्पाद का उत्पादन कौन करता है और उससे जो आमदनी होती है, उसका कितना हिस्सा किस वर्ग को मिलता है?

मजदूरों, किसानों और पूंजीपतियों के बीच आमदनी के आवंटन को निर्धारित करने में केन्द्रीय सरकार और उसके बजट की क्या भूमिका है?

सरकारी संस्था नैशनल एकाउंट्स स्टैटिसटिक्स (एन.एस.ए.) ‘गुणनखंड आमदनी’ का रिकार्ड रखता है, जिससे समाज के तीन प्रमुख आर्थिक वर्गों और तबकों की वार्षिक आमदनी का अनुमान लगाया जा सकता है। ये वर्ग हैं (1) पूंजीपति वर्ग, जिसके पास खदान, कारखाना, भूमि और उत्पादन के अन्य साधनों के रूप में निजी संपति है, जो प्रतिवर्ष मुनाफा, ब्याज या किराये के रूप में आमदनी कमाता है; (2) मजदूर, जिसके पास अपनी श्रम शक्ति के अलावा और कुछ नहीं है और जो जीने के लिए वेतन पर निर्भर है; और (3) लघु पूंजीपति वर्ग, जो अपने उत्पादन के साधनों के साथ खुद श्रम करते हैं, जैसे कि गरीब और मंझोले किसान, छोटे दुकानदार, इत्यादि। इस तीसरे तबके की कुल आमदनी को औपचारिक तौर पर “स्व-रोजगार वालों की मिश्रित आमदनी” बतौर रिकार्ड किया जाता है, जिससे यह पता चलता है कि यह श्रम से आमदनी और संपत्ति से आमदनी का मिश्रण है।

एन.एस.ए. के अनुसार 2007-08के दौरान, हिन्दोस्तान में मानवीय श्रम से प्राप्त कुल आमदनी 40.4लाख करोड़ रुपये थी। इस वार्षिक सामाजिक उत्पादन को हमारे देश के मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकशों यानि 95प्रतिशत से अधिक आबादी ने पैदा किया है। पंरतु उन्हें इस उत्पादन के दो-तिहाई हिस्से से भी कम मिला। 2007-08में मजदूर वर्ग को वेतन बतौर कुल 13.1लाख करोड़ रुपये की अमदनी मिली। मेहनतकश किसानों और दूसरे छोटे उत्पादकों को 12.5लाख करोड़ रुपये की कुल आमदनी मिली। इन दोनों को मिलाकर सामाजिक उत्पाद का 63प्रतिशत बनता है।

पूंजीपति वर्ग जो आबादी के 5प्रतिशत से कम है, जो श्रम नहीं करता है, उसी को सामाजिक उत्पाद का सबसे बड़ा हिस्सा मिला। 2007-08में हुये उत्पादन के कुल मूल्य का 37प्रतिशत लगभग 14.9लाख करोड रुपये मुनाफे, ब्याज और किराये के रूप में आमदनी थी। मेहनतकशों द्वारा उत्पादित मूल्य का एक तिहाई-से ज्यादा हिस्सा पूंजीपतियों द्वारा मुनाफा, ब्याज और किराये के रूप में मेहनतकशों से लूटा गया।

सकल घरेलू उत्पाद की 9प्रतिशत संवर्धन गति असलियत में अलग-अलग वर्गों की आमदनियों की बहुत ही भिन्न-भिन्न संवर्धन गतियों का औसतन है। एक तरफ, पूंजी के मालिकों की जेबों  में जाने वाला अतिरिक्त मूल्य, मुद्रास्फीति के अनुसार गणना के बाद, प्रति वर्ष बहुत ही तेज़ गति से बढ़ता रहता है। दूसरी ओर मुद्रास्फीति के अनुसार गणना के बाद, वेतन या तो बहुत धीरे-धीरे बढ़ते हैं या कई मजदूरों के लिए घटते हैं। औसतन तौर पर, गरीब और मंझोले किसानों और दूसरे ‘स्व रोज़गार’ वाले उत्पादकों की कुल आमदनी भी सकल घरेलू उत्पाद से कहीं कम गति से बढ़ी है।

अलग-अलग वर्गों के बीच आमदनी का असमान आवंटन सिर्फ इस या उस सरकार के काम का नतीजा नहीं, बल्कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पैदाइश है। यह उत्पादन के संबंधों का परिणाम है, जो उत्पादन के साधनों की बहुत ही असमान प्रकार की मालिकी पर आधारित हैं। कुछ थोड़े लोग उत्पादन के सभी साधनों के मालिक हैं, जबकि अधिकतम लोगों के पास अपनी श्रम शक्ति बेचने के अलावा कोई और चारा नहीं है। केन्द्रीय सरकार और उसका बजट पहले से उत्पन्न और असमान रूप से आवंटित आमदनी का पुनः आवंटन करता है, जिसके फलस्वरूप यह आवंटन और भी असमान हो जाता है।

केन्द्रीय सरकार की भूमिका और आमदनी का पुनः आवंटन किस तरह किया जाता है, उसे समझने के लिये राजस्व, व्यय, घाटा और वित्त आपूर्ति तथा इन सबके कुल परिणाम को समझना जरूरी है।

राजस्व:

मजदूरों और किसानों का पूंजीपतियों द्वारा शोषण और लूट हो जाने के बाद, सरकार सलाना भारी टैक्स वसूल कर मेहनतकशों को और लूटती है। 2008-09में वेतनभोगी मजदूरों से वसूले गये व्यक्तिगत आयकर का मूल्य 1.2लाख करोड़ रुपये था, जबकि 2007-08में उनकी आमदनी 13.1लाख करोड़ रुपये थी। इसके अलावा 2008-09में केन्द्रीय सरकार द्वारा वसूले गये 2.7लाख करोड़ रुपये के अप्रत्यक्ष करों का लगभग आधा बोझ वेतनभोगी मजदूरों पर डाला गया। इनमें शामिल हैं कस्टम्स ड्यूटी, तटकर, सेवा कर, इत्यादि, जो बाजार में मेहनतकशों द्वारा खरीदी गयी वस्तुओं की खुदरा कीमतों में जोड़े जाते हैं।

अप्रत्यक्ष करों का काफी बड़ा बोझ किसानों पर पड़ता है, जो अपनी खेती की जरूरतों और तरह-तरह की उपभोग की सामग्रियों को बाजार से खरीदते हैं। कृषि उत्पादों और कृषि की जरूरतों व कर्जों के लिये बाजार में जो पुराने और नये इजारेदार खिलाड़ी हैं, वे गरीब व मंझोले किसानों को अपने श्रम के उत्पादित मूल्य के काफी बड़े भाग से वंचित करते हैं।

पूंजीपति वर्ग ने 2008-09में कंपनियों के मुनाफों पर लगाए गए टैक्स के रूप में 2.1लाख करोड़ रुपये दिये। इसके साथ-साथ, पूंजीपतियों को लगभग 0.7लाख करोड़ रुपये की ”टैक्स छूट“ दी गई। यानि, मौजूदे टैक्स कानूनों के अनुसार, पूंजीवादी कंपनियों से सरकार को 2.8लाख करोड़ रुपये के कर वसूलने थे परन्तु सरकार ने इसका तीन-चैथाई हिस्सा ही वसूला, ताकि पूंजीपतियों और उनके मुनाफों को फायदा हो।

व्यय:

साल दर साल, केन्द्रीय सरकार के बजट में सबसे ज्यादा खर्च दो चीजों पर होता रहा है। ये हैं कर्ज चुकाने पर और ‘रक्षा’ बजट पर। इन दोनों चीजों पर केन्द्रीय सरकार के पूर्ण राजस्व का लगभग 80प्रतिशत भाग खर्च होता है।

कर्ज चुकाने में ब्याज भुगतान और मूलधन वापस करना, ये दो हिस्से शामिल हैं। 2007-08में ब्याज भुगतान 1.9लाख करोड़ रुपये थे और मूलधन वापसी 0.8लाख करोड़ रुपये थे, जिन दोनों को मिलाकर 2.7लाख करोड़ रुपये खर्च किये गये। इसका लगभग 80प्रतिशत ज्यादातर हिन्दोस्तानी और कुछ अन्तर्राष्ट्रीय बड़े बैंकों और बीमा कंपनियों को दिया गया। बाकी केन्द्रीय राज्य द्वारा चलायी जा रही टैक्स बचत योजनाओं और पोस्ट ऑफिस आदि में अपनी बचत के पैसे डालने वालों को दिया गया। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 2010-11में कर्ज चुकाने पर 3.9लाख करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे, जिसमें सरकार को प्राप्त कुल राजस्व का 57प्रतिशत खा लिया जायेगा।

केन्द्रीय सशस्त्र बलों को बरकरार रखना, ज्यादा से ज्यादा घातक हथियार खरीदना – इसे रक्षा पर खर्च कहा जाता है और यह दूसरा सबसे बड़ा खर्च है, जिसमें केन्द्रीय राजस्व का 22प्रतिशत खा लिया जाता है। इस खर्च से कोई भौतिक धन नहीं पैदा होता है, बल्कि विनाश और जंग की क्षमता बढ़ाई जाती है।

कर्ज चुकाना और ‘रक्षा’ पर खर्च – इन दोनों में से कोई भी समाज के भौतिक धन को बढ़ाने में योगदान नहीं देता। इनसे मेहनतकश जनसमुदाय की खुशहाली में कोई तरक्की नहीं होती। इनसे सामाजिक उत्पाद पर मेहनतकशों का अधिकार पूरा नहीं होता। बल्कि, कर्ज चुकाने से परजीवी साहूकार संस्थानों का अधिकार पूरा होता है। उन्हें ब्याज की आमदनी नियमित तौर पर मिलती रहती है। हथियारों की खरीदी से धन हिन्दोस्तानी और विदेशी हथियार व्यापारियों के हाथों में जाता है।

वित्त पूंजी के संस्थानों और सशस्त्र सेनाओं व जंग फरोश ताकतों की मांगों को प्राथमिकता दी जाती है, इसीलिये उन तमाम जन सेवाओं के लिये कभी काफी पैसा नहीं बचता, जिनके लिये केन्द्रीय राज्य जिम्मेदार है। सबसे कम उपयोगी और सबसे कम उत्पादक खर्चों को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि सबसे आवश्यक चीजों, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, सड़क, पेय जल, उचित दाम पर पर्याप्त मात्रा में खाद्य पदार्थ, इत्यादि पर पूंजीनिवेश को कोई अहमियत नहीं दी जाती।

घाटा और कर्ज:

केन्द्रीय सरकार का कुल खर्च प्रति वर्ष कुल राजस्व से ज्यादा होता है और यह घाटा साल दर साल बढ़ता जा रहा है। 2009-10के लिये इसका अनुमान 4.1लाख करोड़ रुपये तक लगाया जा रहा है, जो कि पिछले वर्ष में 3.4लाख करोड़ रुपये था। इस घाटे को पूरा करने के लिये केन्द्रीय सरकार और उधार लेती है। इसकी वजह से वित्त पूंजी के मालिकों, टाटा, अंबानी, बिरला और अन्य इजारेदार घरानों के प्रतिनिधियों की अगुवाई में बड़े-बड़े बैंकों व बीमा कंपनियों के बोर्डों पर बैठने वालों की ओर सरकार का कर्जभार और बढ़ जाता है।

यह ‘राष्ट्रीय कर्ज’ एक परजीवी व्यवस्था है, जिसमें वित्त पूंजी की ब्याज आमदनी को कोई खतरा न पहुंचाकर, उसे सुनिश्चित करने के लिये वर्तमान व भावी पीढि़यों से टैक्स वसूला जाता है। हिन्दोस्तान की सरकार प्रतिवर्ष जो अतिरिक्त कर्ज लेती है, उसका कहीं पूर्व मूल्यांकन नहीं किया जाता और उसका सरकार द्वारा किये गये उत्पादक पूंजीनिवेश के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है। सरकार अपने पास उपलब्ध कुल राजस्व और बजट में पास किये गये कुल खर्च के बीच में अंतर को पूरा करने के लिये कर्ज लेती है। साहूकार संस्थान हर साल अपना ब्याज मांगते हैं, जिसके लिये वर्तमान और भविष्य में लोगों से और टैक्स वसूले जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप, कर्ज चुकाने का बोझ जनता पर लाद दिया जाता है जबकि सिर्फ कुछ ही लोगों को सरकार द्वारा किये गये खर्चों से फायदा होता है।

वर्तमान आर्थिक व्यवस्था पूंजीपति वर्ग द्वारा किसानों के श्रम के शोषण और लूट पर आधारित है। केन्द्रीय सरकार असमान आमदनियों को इस प्रकार से पुनः आवंटित करती है ताकि लूट-खसौट की इस आर्थिक व्यवस्था को चालू रखने के लिये और शासक पूंजीपति वर्ग की लालच और महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिये, मेहनतकशों की वर्तमतान व भावी पीढि़यों पर अधिक से अधिक आर्थिक बोझ डाला जाता रहे।

साथियों,

जबकि सकल घरेलू उत्पाद प्रति वर्ष बढ़ता जा रहा है, अधिकतम वेतनभोगी मजदूर सामाजिक उत्पादों पर अपना अधिकार प्रति माह घटते हुये पाते हैं। अपनी आमदनी से पिछले महीने में जो कुछ खरीद सकते थे, इस महीने में वह नहीं खरीद पाते हैं। देश के कोने-कोने में ट्रेड यूनियनों ने यह ऐलान किया है कि खाद्य कीमतों की वृद्धि, जो कि हाल में 20प्रतिशत तक पहुंच गई है, यह मजदूर वर्ग की सबसे बड़ी समस्या है।

मेहनतकशों को उनकी पहुंच की कीमतों पर पर्याप्त खाद्य की आपूर्ति सुनिश्चित करने की दिशा में वित्त मंत्री ने बजट में कोई भरोसेमंद कदम की घोषणा नहीं की है। बल्कि बजट में पेट्रोलियम सबसिडी को और घटाने की घोषणा की गई है, जिसकी वजह से यातायात का खर्च बढ़ने से सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ जायेंगी और मेहनतकशों पर बोझ भी बढ़ेगा। बजट में उर्वरक की बिक्री पर सबसिडी को घटाने की भी घोषणा की गई है, जिससे कृषि पर खर्च बढ़ेगा और किसानों पर बोझ बढ़ेगा। कस्टम्स ड्यूटी, केन्द्रीय उत्पाद कर और सेवा कर की वसूली, जिसकी वजह से बाजार में सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाएंगी, इसका अनुमान 2010-11के लिये 3.15लाख करोड़ रुपये तक लगाया जा रहा है, जो कि वर्तमान वर्ष से 70,000करोड़ रुपये या 29प्रतिशत ज्यादा है।

मेहनतकशों पर इस अतिरिक्त बोझ को लादने के लिये यह औचित्य दिया जा रहा है कि “सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत बतौर राजकोषीय घाटे को कम करना पड़ेगा“। आज से एक साल पहले, यही सरकार पूंजीवादी कंपनियों को टैक्स छूट और सबसिडी देने की जरूरत के नाम पर, राजकोषीय घाटे को खूब बढ़ाने तथा सरकार द्वारा और कर्ज लेने को उचित ठहरा रही थी। सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत बतौर सरकारी घाटे और कर्ज भार को बढ़ाना पिछले साल यह कहकर उचित ठहराया गया था कि विश्व पूंजी के संकट के समय हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों को समर्थन दिया जाना चाहिये। आज जब हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों के धंधों में विस्तार होने लगा है और उन्हें बैंकों से अधिक से अधिक कर्जे की जरूरत है, तो अब पूंजीपति सरकार से यह मांग करने लगे हैं कि घाटे को सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में कम कर दिया जाय ताकि ब्याज दर ज्यादा न बढ़ जाएं।

केन्द्रीय सरकार का घाटा कितना होगा, कितना वार्षिक कर्जा लिया जायेगा, सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में घाटा कितना ऊपर या नीचे जाएगा, इन सबके फैसले पूंजीपति वर्ग के हितों के अनुसार किये जाते हैं। परन्तु ‘राष्ट्रीय कर्जे‘ को चुकाने का बोझ मजदूर-किसान पर लाद दिया जाता है। हम मेहनतकशों को इस शोषण-लूट की अनंत प्रक्रिया को खत्म करना होगा।

साथियों!

समाज के अतिरिक्त धन पर अपना अधिकार हासिल करने के लिये हम मजदूरों को एकजुट होना होगा। समाज को अपने मौजूदे स्तर पर बनाये रखने के लिये जरूरी धन से अतिरिक्त जो धन पैदा किया जाता है, उसे सामाजिक अतिरिक्त धन कहलाया जाता है। पूंजीवादी समाज में यह सामाजिक अतिरिक्त धन पूंजी के मालिकों की जेबों में, मुनाफा, ब्याज और किराये के रूप में, जाता है। पर श्रम शक्ति के मालिकों को अपने श्रम से उत्पन्न इस अतिरिक्त धन का कोई हिस्सा नहीं मिलता। इतना ही नहीं, केन्द्रीय राज्य वैतनिक आमदनी पर टैक्स वसूलकर मजदूरों को लूटता है तथा बाजार में खरीदी जाने वाली सामग्रियों और सेवाओं पर टैक्स लगाकर किसानों को लूटता है।

हमारे श्रम से उत्पादन होता है और सामाजिक अतिरिक्त धन पर हमारा अधिकार होना जायज है। हमसे टैक्स नहीं वसूले जाने चाहियें, बल्कि हमारी असली आमदनी बढ़ती जरूरतों के साथ-साथ, हर साल बढ़नी चाहिये। सामाजिक उत्पादन के फलस्वरूप, हमारे जीवन स्तर में लगातार उन्नति होती रहनी चाहिये। सभी वैतनिक आमदनी पर टैक्स रद्द करने और जरूरी सामग्रियों व सेवाओं पर सभी अप्रत्यक्ष टैक्सों को खत्म करने के उद्देश्य से हमें संघर्ष करना होगा। सामाजिक अतिरिक्त मूल्य को ही सरकार के राजस्व का मुख्य स्रोत होना चाहिये। समाजवादी समाज में ऐसा होगा, जहां मेहनतकशों की खुशहाली को बढ़ाना समाज का लक्ष्य होगा।

सामाजिक अतिरिक्त धन को व्यक्तिगत आमदनी बढ़ाने, सामाजिक उपभोग बढ़ाने और भविष्य में उत्पादक ताकतों को बढ़ाने के लिए पूंजीनिवेश करने के बीच में आवंटित करना पड़ेगा। लेकिन आज इन सभी जरूरतों को नजरंदाज़ करके, पूंजीवादी इजारेदार कंपनियों और बैंकों की हमेशा अधिकतम मुनाफे व ब्याज आमदनी कमाने की हवस को प्राथमिकता दी जाती है। इसकी वजह से मेहनतकशों को बढ़ते सामाजिक अतिरिक्त मूल्य के अपने जायज़ हिस्से से वंचित किया जाता है। इतना ही नहीं, पूंजीपति वर्ग के हित के लिए, मेहनतकशों के जीवन की हालतें भी गिरती जा रही हैं।

साथियों,

शासक पूंजीपतियों और उनकी सभी सरकारों का तर्क साहूकार संस्थानों की मांगों को प्राथमिकता देने पर आधारित हैं। उनका यह कहना है कि “जनता के पैसे को सबसे पहले कर्जे चुकाने पर खर्च करना चाहिये”। इसी रास्ते पर चल कर, सरकार हर साल खूब सारा उधार लेती है और कर्ज भार बढ़ता जाता है।

मजदूर वर्ग को पूंजीपतियों के इस तर्क को चुनौती देनी होगी और इस कुचक्र को खत्म करना होगा। हमें यह मांग करनी होगी कि केन्द्रीय सरकार बैंकों और साहूकार संस्थानों को प्रतिवर्ष ब्याज देना फौरन बंद करे। इसे अगली सूचना तक बंद रखा जाये। सरकार वित्त पूंजी के संस्थानों को ब्याज देना बंद करे और छोटी बचत करने वालों को उनका ब्याज देता रहे। पूंजीपति और उनके वक्ता यह चिल्लायेंगे कि बैंकों के मुनाफों को नुकसान हो रहा है। पर कुछ वर्षों तक बैंक बिना मुनाफा कमाये क्यों नहीं चल सकते, जिस दौरान मजदूरों और किसानों की ज्वलंत जरूरतों को पूरा किया जाए?

अगर केन्द्रीय सरकार पूंजीपति साहूकार संस्थानों को कुछ समय के लिए ब्याज देना बंद कर दे, तो 2010-11में 2लाख करोड़ रुपये की बचत होगी। यह खाद्य सबसिडी, उर्वरक सबसिडी, शिक्षा और ग्रामीण विकास पर आवंटित धन को दुगुना करने के लिए काफी होगा।

हमें पूंजीपति वर्ग को चुनौती देने और अर्थव्यवस्था व सरकारी नीति को नई दिशा दिलाने के लक्ष्य के ईद-गिर्द एकता बनाने के लिए फौरी मांगें उठानी पड़ेंगी। आज शोषकों की जेबें भरने के लिए मेहनतकशों को चूसा जाता है। इस दिशा को बदलकर, उत्पादक ताकतों पर ज्यादा खर्च करना पड़ेगा, निजी मुनाफे की संभावनाओं को कम करना पड़ेगा और अतिरिक्त धन पर उसके उत्पादकों, यानि मेहनतकशों के अधिकार को ज्यादा हद तक पूरा करना होगा।

उत्पादन के साधनों को पूंजीवादी निजी सम्पत्ति से बदलकर सांझी सामाजवादी सम्पत्ति बनाने के रणनैतिक उद्देश्य से हमें संघर्ष करना होगा। फौरी तौर पर, जब तक उत्पादन के साधन पूंजीवादी संपत्ति बने रहते हैं, तब तक हमें इस असूल को अमल में लाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा कि सिर्फ अतिरिक्त धन पर ही टैक्स लगाया जाना चाहिये, यानि कि सिर्फ पूंजीपतियों की आमदानियों पर ही टैक्स लगाना चाहिये, न कि मजदूरों और किसानों की आमदनियों पर। हमें इस असूल को लागू करने के लिए संघर्ष करना होगा कि मेहनतकशों की मांगों को प्राथमिकता मिलनी चाहिये, न कि निजी व राजकीय पूंजीवादी बैंकों व बीमा कंपनियों की मांगों को।

साथियों,

बजट अर्थव्यवस्था की दिशा नहीं तय करता है, जैसा कि बड़े-बड़े पूंजीपतियों की मीडिया बताती है। उस अर्थव्यवस्था की दिशा तो टाटा, अंबानी, बिरला आदि जैसे बड़े-बडे़ इजारेदार घरानों की अगुवाई में, शासक पूंजीपति वर्ग द्वारा तय की जा चुकी है। बजट अर्थव्यवस्था की इस दिशा की बस एक झलक है। पूंजीपति वर्ग का कार्यक्रम है मेहनतकश जनसमुदाय को लूटकर खुद अमीर बनना तथा एक विश्वव्यापी साम्राज्यवादी ताकत बनना। शासक कांग्रेस पार्टी इस कार्यक्रम को लागू कर रही है ।

अब वक्त आ गया है कि मजदूर वर्ग सामाजिक अतिरिक्त धन पर अपना अधिकार जमाये और किसानों व सभी श्रमिकों के साथ मिलकर खुद अपने फैसले लेने के अधिकार के लिए संघर्ष करे। कम्युनिस्टों का फर्ज है मजदूर-किसान के शासन वाले हिन्दोस्तान के नज़रिये को विस्तृत रूप से पेश करना, और उसे हकीकत में बदलने के संघर्ष में सभी शोषित-पीडि़त लोगों को अगुवाई देने के लिए मजदूर वर्ग को संगठित करना।

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी मजदूर वर्ग के सभी कार्यकर्ताओं से आह्वान करती है कि मनमोहन सिंह सरकार के पूंजीपति – साम्राज्यवादी हमले के खिलाफ एकजुट हों। हमारी रोजी-रोटी और अधिकारों पर हमलों को फौरन रोकने की मांग को लेकर संगठित हो जाएं और संघर्ष करें!

खाद्य संकट के भरोसेमंद समाधान की मांग करें तथा इसके लिये संघर्ष करें। एक सर्वव्यापक, उन्नत सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की मांग करें, जो जनता के नियंत्रण में हो तथा जिसमें उपभोग की सारी जरूरी वस्तुयें उपलब्ध हों! सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के विस्तार और दूसरे सामाजिक निवेशों के लिये धन जुटाने के उद्देश्य से, हम यह मांग करें कि वित्त संस्थानों को ब्याज भुगतान कुछ समय के लिए बंद कर दिया जाए और हथियारों की खरीदी को कम कर दी जाए!

मजदूरों के रिहायशी इलाकों और काम की जगहों पर मज़दूरों की समितियों व परिषदों का निर्माण करें तथा इन्हें मजबूत करें! मजदूर वर्ग एक वर्ग है और उसका एक ही उद्देश्य है। हमें एक कार्यक्रम के ईद-गिर्द एकजुट होना होगा, जिसका उद्देश्य है पूंजीपतियों के शासन की जगह पर मजदूर-किसान का राज स्थापित करना, ताकि अर्थव्यवस्था को सभी मेहनतकशों की खुशहाली और सुरक्षा दिलाने की दिशा में चलाई जा सके।

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