पश्चिम बंगाल में व्यवस्था परिवर्तन की जरूरत है
माकपा नीत पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार मजदूरों और किसानों की सरकार नहीं है। वह एक पूंजीवादी सरकार है जो पश्चिम बंगाल की हालतों में पूंजीपतियों की संपूर्ण रणनीति को लागू करती आई है। माकपा के काम का इतिहास यह दिखाता है कि वह कम्युनिस्ट-विरोधी है। 60के दशक में उसने केन्द्र में बैठी कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की अगुवाई में चल रहे नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन को कुचला था।
पश्चिम बंगाल में व्यवस्था परिवर्तन की जरूरत है
पश्चिम बंगाल में अप्रैल-मई में चुनाव होने वाला है। यह चुनाव 6 सत्रों में होगा। माकपा नीत वाम मोर्चे ने लगभग 35वर्षों तक लगातार बंगाल में सरकार चलाया है। पूंजीपतियों की मीडिया के कुछ भाग ”परिवर्तन“ की मांग कर रहे हैं। वे माकपा नीत वाम मोर्चे की जगह पर तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस पार्टी गठबंधन को सत्ता में लाने वाले ”परिवर्तन“ की बात कर रहे हैं।
बंगाल में अवश्य ही परिवर्तन की जरूरत है। पर मुद्दा यह है कि क्या वाम मोर्चा सरकार की जगह पर तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस सरकार लाने से बंगाल के मजदूरों और किसानों की समस्यायें हल हो जायेंगी? या क्या संपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में मूल परिवर्तन की जरूरत है? हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी का यह पक्का विचार है कि संपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में मूल परिवर्तन की जरूरत है, हिन्दोस्तानी राज्य और समाज के नवनिर्माण की जरूरत है। इस नवनिर्माण के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट माकपा और उसके वाम मोर्चे की कार्यदिशा रही है।
माकपा नीत पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार मजदूरों और किसानों की सरकार नहीं है। वह एक पूंजीवादी सरकार है जो पश्चिम बंगाल की हालतों में पूंजीपतियों की संपूर्ण रणनीति को लागू करती आई है। माकपा के काम का इतिहास यह दिखाता है कि वह कम्युनिस्ट-विरोधी है। 60के दशक में उसने केन्द्र में बैठी कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की अगुवाई में चल रहे नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन को कुचला था।
60के दशक के दौरान पूरे देश में ऐसी स्थिति पैदा हुई, जब शासक वर्ग पुराने तरीके से शासन नहीं कर पा रहा था और मेहनतकश जनसमुदाय अपनी हालतों को मानने को तैयार न था। वह एक क्रान्तिकारी संकट था, जिसे क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई की जरूरत थी। परन्तु भाकपा और माकपा ने क्रान्ति से विश्वासघात किया और वे इसी व्यवस्था के अन्दर सत्ता में आने के लिये संसदीय दांवपेच में बड़ी सरगरमी से भाग लेने लगीं। पूंजीपतियों को अपना शासन जमाने के लिये मदद की जरूरत थी। उन्हें यह मदद भाकपा और माकपा ने बंगाल, त्रिपुरा, केरल और पूरे देश में दी।
बीते 35वर्षों के दौरान, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे का शासन पूंजीपतियों की अपनी हुकूमत को स्थिरता दिलाने की जरूरत का नतीजा था। माकपा ने शासक वर्ग से यह वादा किया कि वह मजदूरों और किसानों के वर्ग संघर्ष को सीमित और नियंत्रित रखेगा, ताकि मौजूदे व्यवस्था को कोई खतरा न हो।
वाम मोर्चा सरकार ने मजदूरों और किसानों में यह प्रचार किया कि क्रान्ति के बिना, व्यवस्था का परिवर्तन किये बिना ही उनकी समस्यायें हल हो सकती हैं। किसानों को क्रान्ति से दूर हटाने के इरादे से, वाम मोर्चा सरकार ने उन्हें अपनी छोटी-छोटी जमीन की टुकडि़यों से बांध रखा, जिनसे उन्हें ज्यादा देर तक पर्याप्त रोजी-रोटी सुनिश्चित नहीं होने वाली थी। मजदूरों के लड़ाकू संघर्षों को जानबूझकर आर्थिक मांगों तक सीमित रखा गया, और माकपा नीत ट्रेड यूनियन सीटू पूंजीपतियों के साथ ”बेहतर सौदे“ के लिये समझौता करता रहा, ताकि मजदूरों का गुस्सा ठंडा किया जाये और साथ ही साथ, पूंजीपतियों के मुनाफों को भी सुरक्षित रखा जाये। माकपा ने मजदूरों से कहा कि ज्यादा संघर्ष नहीं करना चाहिये, वरना ”पूंजी दूसरे राज्यों में पलायन करेगी“ और इससे पश्चिम बंगाल का ”विकास“ स्थगित हो जायेगा। इस तरह मजदूरों और किसानों को निहत्था और गुमराह किया गया।
बीते दो दशकों से पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार उदारीकरण और निजीकरण के जरिये भूमंडलीकरण का वही पूंजीवादी कार्यक्रम लागू करती आई है, जो केन्द्र और दूसरे राज्यों की पूंजीवादी सरकारें लागू करती आई हैं। वाम मोर्चा सरकार ने मजदूरों और किसानों के अधिकारों को पांव तले कुचल दिया है। उसने ऐलान किया है कि आई.टी. क्षेत्र के मजदूरों को बहुत ज्यादा वेतन मिलता है, इसलिये उन्हें यूनियन बनाने व हड़ताल करने के अधिकार की जरूरत नहीं है। उसने हिन्दोस्तानी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सस्ते दाम पर जमीन दिलाने का वादा किया और किसानों की जमीन छीनने के लिये बलप्रयोग किया, पहले सिंगूर में और फिर नन्दीग्राम में। जिन्दल के इजारेदार घराने को मदद करने के लिये, उसने केन्द्र सरकार के साथ मिलकर, लालगढ़ इलाके के आदिवासियों पर राजकीय आतंक छेड़ा। इजारेदार पूंजीवादी पूंजीनिवेशकों के हित में, पूरे तीन वर्षों तक, माकपा की पुलिस और गैर सरकारी सैन्य दल ने पश्चिम बंगाल के किसानों और आदिवासियों पर बलात्कार और आतंक की मुहिम चलाई। माकपा हिन्दोस्तानी राज्य और उसके संविधान का कट्टर रक्षक है। इस बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र, जिसके जरिये पूंजीपति वर्ग अपनी हुक्मशाही को वैधता दिलाता है, उसकी माकपा जी-जान से हिफाज़त करती है। जब नंदीग्राम के किसानों ने बलपूर्वक भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ बग़ावत की थी, तो माकपा नीत वाम मोर्चा सरकार ने उस विद्रोह को ”अवैध“ करार दिया और ऐलान किया कि चूंकि उसे चुनकर सत्ता पर लाया गया है इसीलिये उसे अपनी मर्जी के अनुसार कुछ भी करने का जनादेश मिला हुआ है। केन्द्र तथा अन्य राज्यों की पूंजीवादी सरकारें भी इसी तर्क का प्रयोग करती हैं।
माकपा ने ऐलान किया कि वाम मोर्चा वर्ग संघर्ष का साधन होगा। पर अपने अभ्यास में, वाम मोर्चा सरकार पूंजीपतियों के हित में वर्ग अंतर्विरोधों को हल करने तथा मजदूरों और किसानों के विरोध संघर्षों को बलपूर्वक कुचलने का साधन बनी रही।
वाम मोर्चा सरकार ने लगातार लोगों के जमीर के अधिकार पर हमला किया है। माकपा की कार्यदिशा को न मानने वालों का क्रूर उत्पीड़न किया गया है। ”धर्मनिरपेक्ष ढांचे“ की हिफाज़त ”राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अखंडता“ की हिफाज़त, ”संसदीय संस्थानों“, ”स्वतंत्र विदेश नीति“ आदि की हिफाज़त जैसे नारों के साथ, माकपा ने हमेशा देश भर के मजदूरों और किसानों को पूंजीपतियों और उनके साम्राज्यवादी इरादों के पीछे लामबंध करने की कोशिश की है। पड़ौसी देशों, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल तथा श्री लंका के प्रति पूंजीपतियों के आधिपत्यवादी मंसूबों को माकपा ने हमेशा पूरा समर्थन दिया है।
माकपा ने कितनी बेशर्मी के साथ इस व्यवस्था की हिफ़ाज़त की है, यह पीपल्स डेमोक्रेसी के एक संपादकीय लेख से स्पष्ट होता है। इस संपादकीय लेख में माकपा नेता सीताराम येचूरी इस बात पर दुख प्रकट करता है कि ”केन्द्र सरकार की अगुवाई करने वाली कांग्रेस पार्टी और संप्रग का घटक दल तृणमूल कांग्रेस माओवादियों के साथ जुड़े हुये हैं, जो हिन्दोस्तान के संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था पर खुलेआम जंग का ऐलान करते हैं“। येचूरी इस धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र के प्रति माकपा और कांग्रेस पार्टी की सांझी वचनबद्धता के बारे में भी लिखता है। इस तरह, माकपा शासक वर्ग और कांग्रेस पार्टी से अपील कर रही है कि वह संसदीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र, जो कि पूंजीपतियों की हुक्मशाही के अलावा कुछ और नहीं है, उसके प्रति कितना वचनबद्ध है।
अपनी स्थापना के समय से ही माकपा की कार्यविधि यही रही है। पश्चिम बंगाल और अन्य राज्यों में उसे जो स्थान प्राप्त हुआ है, वह शासक वर्ग को हिन्दोस्तानी राज्य व उसके संस्थानों के प्रति अपनी वफादारी साबित करने के आधार पर उसे मिला है।
मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारी क्षमता को दबाये रखने में माकपा ने पूंजीपति वर्ग को मदद दी है। जब-जब सरकार संकट में रही है, जब-जब चुनाव के नतीजे अनिश्चित रहे हैं, तब-तब माकपा ने शासक वर्ग को अपना शासन पक्का करने में मदद दी है। मजदूर वर्ग क्रांतिकारी पथ पर तब तक आगे नहीं बढ़ सकता, जब तक उसके सबसे सचेत और सक्रिय सदस्य माकपा की कार्यदिशा को नहीं ठुकराते और उससे नाता नहीं तोड़ देते।
तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस पार्टी गठबंधन, जो पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे को चुनौती दे रही है, वह भी वाम मोर्चे की तरह एक और पूंजीवादी मोर्चा है।
कांग्रेस पार्टी बड़े पूंजीपतियों की पार्टी है, जो पूंजीपतियों के मजदूर-विरोधी, किसान-विरोधी, राष्ट्र- विरोधी साम्राज्यवादी हमले को अगुवाई दे रही है। वह उदारीकरण और निजीकरण के जरिये भूमंडलीकरण के पूंजीपतियों के कार्यक्रम का निर्माता है। वह विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) नीति का निर्माता है, जिसके तहत किसानों की जमीन को हड़प कर बड़ी-बड़ी कंपनियों को सौंपा जाता है। उसने मजदूरों के अधिकारों पर अनगिनत हमले किये हैं और अब कृषि क्षेत्र पर कृषि व्यापार की इजारेदार कंपनियों का बोलबाला सुनिश्चित करने के लिये कार्यक्रम चला रही है।
इन हालतों में, भाकपा (माओवादी) समेत, खुद को कम्युनिस्ट कहलाने वाले कुछ दल कांग्रेस पार्टी-तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के प्रयासों का खुलेआम समर्थन कर रहे हैं। यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद और मजदूरों व किसानों के हितों के साथ विश्वासघात है।
भाकपा (माओवादी) औपचारिक तौर पर यह दावा करती है कि वह संसदीय लोकतंत्र पर विश्वास नहीं करती और हमेशा चुनाव बहिष्कार की लाइन देती रहती है। परन्तु अब वह “मुख्य दुश्मन” माकपा को हराने के बहाने, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस गठबंधन को समर्थन दे रही है, जिससे उसकी मौकापरस्ती का पर्दाफाश हो रहा है। वाम मार्चे की जगह पर कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने से पश्चिम बंगाल के मजदूरों और किसानों को क्या लाभ होगा, यह समझाने में भाकपा (माओवादी) असमर्थ है।
मूल विषय यह है कि वर्तमान व्यवस्था को बदलना होगा और इस बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र के तहत चुनावों द्वारा एक मोर्चे को दूसरे की जगह पर सत्ता में लाने से यह बदलाव नहीं आने वाला है। पर इस विषय को न तो माकपा उठाती है और न ही माओवादी।
भाकपा (माओवादी) हिन्दोस्तानी राज्य के खिलाफ़ सशस्त्र संघर्ष करने का दावा करती है। जन समर्थन के बिना सशस्त्र संघर्ष करने वाले, आज या कल, आतंकवादी गिरोह बन जाते हैं। पश्चिम बंगाल में भाकपा (माओवादी) पुलिस मुखबिरों को खत्म करने के नाम पर, माकपा व दूसरी पार्टियों के कार्यकर्ताओं का आतंकवादी कत्लेआम कर रही है। जो भी उसकी लाइन से सहमत नहीं होते हैं, उन्हें ”वर्ग के दुश्मन“ माना जाता है और उन्हें खत्म कर दिया जाता है। भाकपा (माओवादी) की आतंकवादी हरकतों का बंगाल के मजदूर और किसान समर्थन नहीं करते हैं। आज पश्चिम बंगाल में माकपा और भाकपा (माओवादी) के बीच हिंसक झगड़ों की वजह से कम्युनिज़्म को बदनाम किया जा रहा है। विचारधारात्मक और राजनीतिक मतभेद को हल करने के लिये हिंसा का प्रयोग कम्युनिज़्म नहीं है।
पूंजीपति यह फैसला करेंगे कि वाम मोर्चा सत्ता में आयेगी या तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस मोर्चा। जो भी मोर्चा चुनाव जीत कर आता है, वह पूंजीपतियों के साम्राज्यवादी कार्यक्रम को लागू करेगा और यह दावा करेगा कि उसे ”जनादेश“ प्राप्त है। हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी पश्चिम बंगाल के मजदूरों और किसानों से इन दोनों मोर्चों को ठुकराने का आह्वान करती है।
हमारी पार्टी वर्तमान व्यवस्था को बदलने के लिये मजदूर वर्ग और किसानों को संगठित कर रही है। हमारी पार्टी कभी यह भ्रम नहीं पैदा करती है कि इस या उस पार्टी या गठबंधन के सत्ता में आने से मेहनतकश जनसमुदाय की समस्यायें हल हो जायेंगी। हम पूंजीवादी व्यवस्था या उसके बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र के बारे में भी कोई भ्रम नहीं पैदा करते हैं, क्योंकि यही वह यंत्र है जिसके जरिये पूंजीपति वर्ग अपनी हुकूमत को वैधता दिलाता है।
हमारी पार्टी चुनावों का इस्तेमाल करके पूंजीवादी व्यवस्था और उसके लोकतंत्र का पर्दाफाश करती है और मेहनतकश जनसमुदाय को खुद अपने हाथों में संप्रभुता लेने के कार्यक्रम के इर्द-गिर्द लामबंध करती है। लोगों को अपनी क्षमता साबित किये हुये लोगों का चयन करने का अधिकार होना चाहिये और जनादेश पूरा न करने वालों को वापस बुलाने का अधिकार भी होना चाहिये। सभी निर्वाचित निकायों की ताकतों की पक्की परिभाषा होनी चाहिये और बाकी ताकत जनता के हाथ में होनी चाहिये। लोगों को कानून बनाने का अधिकार होना चाहिये। हमारी पार्टी इन सभी अधिकारों की हिफाज़त के लिये संघर्ष करती है, जिनका वर्तमान पार्टीवादी शासन तंत्र के चलते हनन होता है। अगर राजनीतिक प्रक्रिया का ऐसा नवनिर्माण किया जाये तो जनता के अधिकारों का हनन नहीं होगा। साथ ही साथ, यह संघर्ष मजदूर वर्ग और मेहनतकशों को क्रान्ति के जरिये समाजवाद का निर्माण करने की लड़ाई के लिये तैयार करता है।