शिक्षा का अधिकार अधिनियम के दो साल बाद :

शिक्षा का अधिकार अभी भी एक सपना

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 1अप्रैल, 2010को लागू हुआ था। बहुत प्रचार किया गया है कि यह संप्रग सरकार की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जो हमारे देश के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित कराने के प्रति सरकार की तथाकथित वचनबध्दता को दर्शाता है।

शिक्षा का अधिकार अभी भी एक सपना

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 1अप्रैल, 2010को लागू हुआ था। बहुत प्रचार किया गया है कि यह संप्रग सरकार की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जो हमारे देश के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा सुनिश्चित कराने के प्रति सरकार की तथाकथित वचनबध्दता को दर्शाता है।

अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना समाज के सभी तबकों के मां-बाप की गहरी आकांक्षा है, जिसे पूरा करने के लिये वे बहुत सी कुर्बानियां करने को तैयार हैं। परन्तु शिक्षा का अधिकार अधिनियम के लागू होने के दो वर्ष बाद, ज़मीनी हक़ीक़त यह दिखाती है कि इस अधिनियम के घोषित कानूनी व सामाजिक लक्ष्य हमारे अधिकतम बच्चों के लिये पूरे होने से अभी भी बहुत दूर हैं।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुसार, 31 मार्च, 2013 तक सभी स्कूलों को कई ढांचागत जरूरतें तथा अन्य मानक व शर्तें पूरी करनी होंगी। अधिनियम में निर्धारित शिक्षक-छात्र अनुपात 31 सितंबर, 2010 तक सभी स्कूलों को पूरा करना था। अधिनियम के अनुसार, 31 मार्च, 2013 तक पड़ौसी स्कूलों – यानि प्रत्येक राज्य द्वारा तय किये गये पड़ौस के इलाके में स्कूलों – की स्थापना हो जानी चाहिये। परन्तु मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा जनवरी, 2012 में जारी की गयी, हाल की शिक्षा का वार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट (ए.एस.ई.आर.) और नैशनल युनिवरसिटी ऑफ एडुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (एन.यू.ई.पी.ए.) द्वारा जारी हाल के आंकड़े यह दिखाते हैं कि ढांचागत जरूरतों, शिक्षा-छात्र  अनुपात, या अधिनियम की अन्य शर्तों को पूरा करने में, 2010 से अब तक न्यूनतम प्रगति हुई है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अधिनियम द्वारा निर्धारित समय सीमा के अंदर ये सभी जरूरतें अधिक से अधिक हद तक अपूर्ण रह जायेंगी।

बुनियादी ढांचागत सुविधाओं का अभाव, शिक्षकों का घोर अभाव, शिक्षा का निम्न स्तर, जाति, सामाजिक स्तर व लिंग के आधार पर भेदभाव, बाल मजदूरी का प्रचलन – ये कुछ कारक हैं जो प्रत्येक बच्चे को स्कूल भेजने के रास्ते में मुख्य रुकावटें मानी जाती हैं। (देखिये बॉक्स)

तथ्यों से यह साफ ज़ाहिर है कि प्रत्येक बच्चे के लिये शिक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य सिर्फ ऐसा एक कानून पास करने से हासिल नहीं होगा। इन हालतों में शिक्षा का अधिकार भी एक और नीतिगत उद्देश्य बना रहेगा, जो तमाम अन्य कानूनों की तरह अपनी समय सीमा से पीछे हटता जायेगा।

समस्या के असली स्रोत से ध्यान हटाना

इस संदर्भ में, सभी बच्चों के लिये शिक्षा सुनिश्चित करने की अपनी वचनबध्दता का प्रदर्शन करने के लिये, सरकार मानव संसाधन विकास मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट खूब ढिंढोरा पीट रहे हैं कि वे सभी निजी स्कूलों में आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबकों (ई.डब्ल्यू.एस.) के छात्रों के लिये 25प्रतिशत कोटा लागू करेंगे।

जहां तक निजी स्कूलों का सवाल है, उन्हें सस्ते दाम पर, अच्छी जगह पर भूमि तथा अन्य सुविधायें दिलाना, ताकि वे ''शिक्षा प्रदान करने'' के नाम पर बेशुमार मुनाफ़े कमा सकें, यह हमेशा ही सरकार की नीति रही है और अभी भी है। यह भी सब जानते हैं कि अनेक मंत्री, सांसद, विधायक व पार्षद खुद ऐसे निजी शिक्षा संस्थानों को चलाने में शामिल हैं। शिक्षा का अधिकार कानून का उद्देश्य इस स्थिति को बदलना नहीं है; उसकी शर्त सिर्फ यही है कि ऐसे निजी स्कूल कक्षा 1-8 में ''आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबकों'' के छात्रों के लिये 25 प्रतिशत सीट आरक्षित करके अपना ''सामाजिक दायित्व'' पूरा करें। ऐसा भी नहीं कि ढांचागत सुविधाओं और शिक्षकों की कमी और शिक्षा व शिक्षण के गिरते स्तर की समस्या निजी स्कूलों में मौजूद नहीं है।

अगर ऐसा कोटा सख्ती से लागू किया भी जाता है तो इससे बहुत ही कम बच्चों को लाभ होगा। शहरों और गांवों में अधिकतम बच्चों के लिये, अधिकार बतौर शिक्षा प्राप्त करने की समस्यायें जारी रहेंगी।

पर्याप्त ढांचागत सुविधायें, शिक्षक और अच्छे स्तर की शिक्षा निर्धारित समय सीमा के अन्दर सुनिश्चित कराना – यह राष्ट्र के सामने संप्रग सरकार का वादा था। ज़मीनी आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह वादा पूरा नहीं होने वाला है। परन्तु वर्तमान व्यवस्था के चलते, लोगों के पास कोई ऐसा तंत्र नहीं है जिसके द्वारा वे सरकार को अपना वादा पूरा न करने के लिये जवाबदेह ठहरा सकते हैं। अत: शिक्षा का अधिकार, सरकार के तमाम और वादों की तरह, एक सपना ही रह जायेगा। लोगों को सिर्फ चुनाव में मतदान करने का अधिकार है पर किसकी सरकार बनेगी, उसकी क्या नीतियां होंगी, कौन से कानून बनाये जायेंगे, कैसे वे कानून लागू होंगे, इन विषयों पर फैसले लेने का लोगों को कोई अधिकार नहीं है। गरीबी, बेरोज़गारी, रोज़गार की असुरक्षा, जातिवादी भेदभाव, सामाजिक पूर्वधारणायें और महिलाओं पर अपराध – जो प्रत्येक बच्चे के शिक्षा का अधिकार प्राप्त करने के रास्ते में बड़ी रुकावटें हैं – ये हमारे देश की पूंजीवादी व्यवस्था और सामंती अवशेषों की विशेषतायें हैं। मौजूदे व्यवस्था के चलते, सिर्फ कानून पास कर इन्हें दूर नहीं किया जा सकता।

क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता

शिक्षा वास्तव में प्रत्येक बच्चे को अधिकार बतौर प्राप्त हो सकता है, ऐसे समाज में जहां निजी मुनाफा नहीं बल्कि मेहनतकशों की बढ़ती जरूरतों की पूर्ति समाज की प्रेरक शक्ति होगी। ऐसे समाज में सभी योजनाओं और नीतियों का केन्द्रीय मकसद मानव विकास होगा। ऐसे समाज का निर्माण करने के लिये, अधिकतम निजी मुनाफे कमाने के मकसद से चलने वाली वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को खत्म करना होगा। सिर्फ ऐसे समाज में ही शिक्षा, और साथ ही साथ खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवा, रोजगार की सुरक्षा, आवास आदि सर्वव्यापी अधिकार बतौर तथा संविधान द्वारा सुरक्षित अधिकार बतौर हासिल हो सकते हैं, और ऐसे तंत्र स्थापित किये जा सकते हैं जिनसे मेहनतकश लोग उन्हें लागू भी कर सकते हैं। ऐसे क्रान्तिकारी परिवर्तन के बिना, शिक्षा का अधिकार एक अपूर्ण सपना बना रहेगा।

ढांचागत सुविधाओं का अभाव

देश भर में, बहुत से स्कूलों में नर्सरी से पांचवी कक्षा तक के बच्चे एक ही कमरे में ठूंस दिये जाते हैं। एक ही शिक्षक को विभिन्न स्तरों के छात्रों को अलग-अलग सिखाना पड़ता है और अक्सर एक से ज्यादा भाषाओं में भी।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुसार, प्रत्येक स्कूल में प्रत्येक शिक्षक के लिये एक कक्षा, ऑफिस, हेडमास्टर का कमरा और स्टोर के लिये एक कमरा, लड़के व लड़कियों के लिये अलग-अलग शौचालय, स्वच्छ पेयजल, रसोई, क्रीड़ांगन, पुस्तकालय व बाउंडरी दीवार 1 अप्रैल, 2012 से पहले होने चाहिये।

परन्तु देश के एक चौथाई से अधिक प्राथमिक स्कूलों में पर्याप्त कक्षायें नहीं हैं। सिर्फ गांवों में ही नहीं बल्कि कई शहरों में भी छात्रों को कड़ाके की धूप में या ठिठुरती सर्दी में बाहर बैठना पड़ता है और बैंच न होने के कारण ज़मीन पर बैठना पड़ता है। असम जैसे राज्यों में जहां तेज़ वर्षा होती है, कई कक्षाओं में पानी भर जाता है, जिससे समस्या और गंभीर जो जाती है।

एक चौथाई स्कूलों में बच्चों के लिये पीने का पानी नहीं होता। 46 प्रतिशत  प्राथमिक स्कूलों में कोई बाउंडरी दीवार नहीं है, 37 प्रतिशत में कोई क्रीड़ांगन नहीं है, 16 प्रतिशत में कोई रसोई नहीं है, 29 प्रतिशत में कोई पुस्तकालय नहीं है। 56 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिये कोई शौचालय नहीं है। गांवों में, हर 10 स्कूलों में से 4 में पानी या शौच प्रबंध के अभाव से कोई शौचालय नहीं हैं। इनमें सिर्फ सरकारी स्कूल ही नहीं बल्कि निजी स्कूल भी है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत, प्रत्येक स्कूल (सरकारी या निजी) को 31 मार्च, 2013तक ये सारी ढांचागत जरूरतें पूरी करनी होगी ताकि उनकी मान्यता न रद्द की जाये।

अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग आंकड़े हैं परन्तु कोई भी राज्य ऐसा नहीं है जहां ये ढांचागत जरूरतें पूरी होने के करीब हैं – न तो उच्चतम साक्षरता वाले राज्य केरल में और न ही गुजरात या तमिलनाडु जैसे उच्च औद्योगिक राज्यों में।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुसार प्रत्येक बच्चे के पड़ौस में, यानि 3कि.मी. की दूरी के अन्दर कम से कम एक स्कूल होना चाहिये। परन्तु हाल की सर्व शिक्षा अभियान रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि इस शर्त का पूरा होना अभी भी बहुत दूर है।

मध्यान्ह भोजन (मिड डे मील) योजना को हिन्दोस्तान की शिक्षा व्यवस्था की एक सबसे बड़ी सफलता बतायी जाती है, जिसकी वजह से पिछले दशक में स्कूलों में भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या काफी बढ़ गयी है। परन्तु स्कूलों में सही भंडारन व्यवस्था न होने के कारण, बच्चों के लिये जो अनाज आता है, अक्सर उसमें चूहे या कीडे पाये जाते हैं, अक्सर वह अनाज इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है उसे फेंकना पड़ता है।

बच्चे कितना सीखते हैं?

शिक्षा का वार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट (ए.एस.ई.आर.) के अनुसार, गांवों में 5वीं कक्षा के 50 प्रतिशत से कम बच्चे दूसरी कक्षा के बच्चों के किताब पढ़ पाते हैं और 8वीं कक्षा के मात्र 20 प्रतिशत छात्र दूसरी कक्षा के किताब पढ़ सकते हैं। 5वीं  कक्षा के 25 प्रतिशत बच्चे 99तक अंक नहीं पहचान सकते हैं और 8वीं कक्षा के 45प्रतिशत बच्चे भाग करना नहीं जानते। यह संख्या बढ़ती जा रही है, दोनों सरकारी और निजी स्कूलों में। इन बच्चों को मदद करने की सुविधायें भी बहुत कम

हैं।

शिक्षा का अधिकार कानून के अनुसार 8वीं कक्षा तक किसी बच्चे को फेल नहीं किया जा सकता है, ताकि बच्चों पर शिक्षा का दबाव न हो और बच्चों को स्कूल छोड़ने से रोका जाये। परन्तु इससे उनके शिक्षा स्तर में कोई उन्नति नहीं हो रही है। ढांचागत सुविधाओं की समस्याओं और शिक्षकों के अभाव के मद्देनज़र यह आश्चर्यजनक नहीं है।

लड़कियों की समस्यायें

कई सर्वेक्षण बताते हैं कि बीते कुछ वर्षों में लड़कियों के स्कूल छोड़ने की संख्या में काफी कमी हो गई है। आज 11-14 वर्ष की उम्र में 5.2 प्रतिशत लड़कियां स्कूल नहीं जातीं, जबकि 2006 में 10.3 प्रतिशत लड़कियां स्कूल नहीं जाती थीं। लड़कों के स्कूल छोड़ने की संख्या और लड़कियों के स्कूल छोड़ने की संख्या में अंतर भी कम हुआ है।

परन्तु यह समस्या माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर काफी बढ़ जाती है।

सामाजिक पूर्वधारणाओं और जवान लड़कियों के खिलाफ़ अपराधों का बढ़ना, ये जवान लड़कियों को स्कूल भेजने में बहुत बड़ी रुकावटे हैं, क्योंकि आम तौर पर माध्यमिक स्कूल जाने के लिये उन्हें ज्यादा दूर जाना पड़ता है। किसी भी इलाके में माध्यमिक स्कूलों की संख्या प्राथमिक स्कूलों की संख्या से आधी है। लड़कियों का शौचालय न होना और महिला शिक्षकों की कमी भी महत्वपूर्ण कारण हैं।

जातिवादी व सामाजिक भेदभाव

शिक्षा का अधिकार कानून सभी जातियों और सामाजिक तबकों के बच्चों को समान शिक्षा का मौका देता है। परन्तु यूनिसेफ के आंकड़ों के अनुसार, दलितों के बच्चों में 44 प्रतिशत स्कूल छोड़ देते हैं। और स्कूली शिक्षा पूरी करने तथा स्कूल में समान शिक्षा पाने के लिये उन्हें बहुत सी कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं।

मिड डे मील, जिसकी सफलता का इतना गुणगान होता है, इसमें बार-बार भेदभाव किया जाता है। मिसाल के तौर पर, उत्तर प्रदेश में दलित छात्रों को अलग बैठना पड़ता है। गुजरात में सफाई कर्मियों के बच्चों को स्कूल के आंगन व शौचालय साफ करने को कहा जाता है। दलित बच्चों को अक्सर दूसरे बच्चों के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने से रोका जाता है। दलित बच्चों को अक्सर ऊंची जाति के बच्चों द्वारा मार-पीट का सामना करना पड़ता है।

बाल मज़दूरी

एन.एस.एस.ओ. के सबसे हालिया आंकड़ों के अनुसार, स्कूल जाने की उम्र के अलभग 45 लाख बच्चे अभी भी स्कूल मं पढ़ने के बजाय, अपने तथा अपने परिवारों के लिये रोज़गार करने में अपने दिन बिताते हैं। इस समस्या के पीछे कई कारण हैं। बाल मजदूरी विरोधक कानून – जो घरेलू काम और ढाबों में काम समेत 18 उद्योगों और 64 क्रियाओं में बाल मजदूरी पर रोक लगाता है – सख्ती से लागू नहीं किया जाता है। इसके अलावा, यह कानून कृषि और अधिकतर ग्रामीण उद्योगों में बाल मजदूरी की इज़ाजत देता है, जो शिक्षा का अधिकार अधिनियम के हर बच्चे को स्कूल भेजने के घोषित उद्देश्य के खिलाफ़ है।

बच्चों को स्कूल के बजाय काम पर भेजने का सबसे बड़ा कारण गरीबी है। अनेक उद्योगों व सेवाओं में सस्ती बाल मजदूरी मालिकों के लिये ज्यादा मुनाफेदार है। निर्माण मजदूरों जैसे घूमंतू मजदूरों के बच्चों को अपने परिवारों के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाते रहना पड़ता है, अत: वे स्कूल नहीं जा पाते।

शिक्षकों का अभाव

अनेक शिक्षाविदों के अनुसार, शिक्षकों का भारी अभाव और विस्तृत तौर पर शिक्षकों का अनुपस्थित होना, यह हिन्दोस्तान में प्राथमिक शिक्षा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। कई राज्यों के स्कूलों में एक ही व्यक्ति को शिक्षक, कलर्क, खजांची और चपरासी का काम करना पड़ता है,और साथ ही साथ दो स्कूलों में एक समय पढ़ाने की भी उनसे उम्मीद की जाती है! अक्सर एक ही कक्षा में एक शिक्षक को नर्सरी से 5वीं कक्षा तक के बच्चों को एक ही समय पढ़ाना पड़ता है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के शिक्षक छात्र अनुपात के निर्देशों के अनुसार, सितंबर 2010तक लगभग 6लाख शिक्षकों को नियुक्त करने की जरूरत थी, परन्तु ऐसा नहीं किया गया है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुसार सभी स्कूलों में 1 अनुपात 30 शिक्षक-छात्र अनुपात होना चाहिये। यह भी जरूरी है कि सभी प्राथमिक स्कूल शिक्षक सिर्फ बी.एड. डिग्री ही न प्राप्त किये हों (जैसा कि कनून पास होने से पहले जरूरी था) बल्कि 5 वर्ष के अन्दर शिक्षक योग्यता परीक्षा भी पास करें। इस परीक्षा का उद्देश्य है शिक्षा के मानदंडों में उन्नती लाना, पर शिक्षकों को प्रशिक्षण देने की सुविधायें इतनी कम हैं कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के निर्देश पूरे करने में बहुत साल लग जायेंगे।

चूंकि शिक्षक को अनेक भूमिकायें निभानी पड़ती हैं या अनेक स्कूलों में पढ़ाना पड़ता है या शिक्षकों की कोई जवाबदेही नहीं होती, इसलिये शिक्षकों का अनुपस्थित होना आम बात है। आंकड़ों के अनुसार राष्ट्रीय तौर पर शिक्षकों की अनुपस्थिति 2009 में 11 प्रतिशत से 2011 में 14प्रतिशत हो गयी है।

 

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