राष्ट्रों और लोगों के आत्म-निर्धारण के अधिकार के उल्लंघन का कोई औचित्य नहीं हो सकता!

संप्रभु राज्यों में खुद को गठित करके, और किसी भी तरह की दखलंदाज़ी के बिना, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास का अपना पसंदीदा मार्ग चुनने के राष्ट्रों और लोगों के अधिकार का प्रतिज्ञापन, यह आधुनिक दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण अग्रिम विकासों में एक है। लेकिन इस अधिकार पर अमरीका और साम्राज्यवादी शक्तियां बड़ा आक्रमण कर रही हैं, खुद के रणनैतिक फ़ायदों के लिए देशों की आज़ादी तथा संप्रभुत

संप्रभु राज्यों में खुद को गठित करके, और किसी भी तरह की दखलंदाज़ी के बिना, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास का अपना पसंदीदा मार्ग चुनने के राष्ट्रों और लोगों के अधिकार का प्रतिज्ञापन, यह आधुनिक दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण अग्रिम विकासों में एक है। लेकिन इस अधिकार पर अमरीका और साम्राज्यवादी शक्तियां बड़ा आक्रमण कर रही हैं, खुद के रणनैतिक फ़ायदों के लिए देशों की आज़ादी तथा संप्रभुता को पैरों तले रौंद रही हैं।

आत्म-निर्धारण के अधिकार का दावा सबसे पहले उन लोगों ने अपने संघर्षों के द्वारा किया था, जो उपनिवेशवादी तथा साम्राज्यवादी राज्यों की गुलामी से पीडि़त थे। बीसवीं सदी की शुरुआत के बरसों तक, लीग ऑफ नेशन्स जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने यह अधिकार सैद्धांतिक तौर पर मान्य किया था, लेकिन व्यवहारिक रूप में प्रमुख साम्राज्यवादी ताकतें खास तौर पर एशिया तथा अफ्रीका के अनेक उपनिवेशवादी और पराधीन देश के लिए यह अधिकार मान्य करने के लिए तैयार नहीं थीं।

नवम्बर 1917में रूस के श्रमजीवी वर्ग तथा लोगों ने इंकलाब द्वारा पूंजीपति वर्ग की राज्यसत्ता उखाड़ कर फ़ेंक दी और अपने समाजवादी विकास के मार्ग पर आगे बढ़ने लगे। उनके ऐसा करने के अधिकार को प्रमुख साम्राज्यवादी देशों ने मान्यता नहीं दी, बल्कि सभी प्रमुख साम्राज्यवादी ताकतों ने मिलजुल कर नये राज्य पर अपनी सेनाओं से आक्रमण किया और उसे बाल्य अवस्था में कुचलने की कोशिशें की।

अपनी नयी राज्य सत्ता का रक्षण करने तथा समाजवाद का निर्माण करने के दौरान, रूस के श्रमजीवी वर्ग तथा लोगों ने भूतपूर्व ज़ार के साम्राज्य के लोगों के साथ और दूसरे उत्पीडि़त लोगों तथा राष्ट्रों के साथ नये रिश्ते बनाये। यह 1918के सोवियत संघ के ऐतिहासिक संविधान के विविध दफाओं में प्रतिबिम्बित होता है:

  • संविधान की दफा 6ने फिनलैंड की संपूर्ण आज़ादी के लिए, पर्शिया से सेना पूर्णतः बाहर निकालने के लिए तथा आर्मेनिया के आत्म-निर्धारण के लिए समर्थन घोषित किया।
  • संविधान की दफा 4ने गोपनीय करारों की भत्र्सना की, और उस समय के घमासान साम्राज्यवादी विश्वयुद्ध के चलते हुए, अधिग्रहण और हानिपूर्ति बगैर, राष्ट्रों के आज़ाद आत्म-निर्धारण के आधार पर, पूरी दुनिया के मेहनतकश लोगों के लिए लोकतांत्रिक शांति के आदर्श का समर्थन किया।
  • संविधान की दफा 8ने सोवियत संघ के अंदरूनी राष्ट्रों के आत्म-निर्धारण के अधिकार को इस तरह से ज़ोर दिया: ”वे सोवियत संघ की संघीय सरकार तथा संघीय सोवियत संस्थाओं में हिस्सा लेना चाहेंगे या नहीं, और वह भी किन शर्तों पर, यह अपने खुद की सोवियतों की प्रातिनिधिक महाअधिवेशनों में अपने आप निर्धारित करने का अधिकार, हर राष्ट्र के मज़दूरों तथा किसानों को दिया जा रहा है।“ बाद में यह स्पष्टीकरण किया गया कि विविध गणतंत्रों के आत्म-निर्धारण के अधिकार के दायरे में विलग्न होने का अधिकार भी आता है, और 1936के सोवियत संविधान में भी उसका समावेश था।

दुनिया भर में अलग-अलग जगहों पर, राष्ट्रीय तथा सामाजिक मुक्ति के लिये लड़ने वाले करोड़ों लोगों के लिए, खुद की सीमाओं के भीतर और बाहर भी, सिर्फ़ सैद्धांतिक तौर पर ही नहीं, बल्कि व्यवहारिक तौर पर भी, सोवियत संघ की मिसाल तथा राष्ट्रों के आत्म-निर्धारण के अधिकार की सोवियत संघ द्वारा घोषणा, एक प्रबल प्रेरणा का स्रोत था। आने वाले दशकों में उनके संघर्ष बहुत ताकतवान बन गये, और उनमें से अनेक संघर्ष कम्युनिस्ट पार्टियों की अगुवाई में आगे बढ़े।

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान लोगों द्वारा अपनी आज़ादी के लिए किये गये बलिदान, युद्ध के अंत तक सोवियत संघ तथा अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की बढ़ी हुई प्रतिष्ठा, और पुरानी साम्राज्यवादी ताकतों का दुर्बल बनना – इन सबकी वजह से विश्वयुद्ध के अंत में जब अनेक देशों ने अपनी आज़ादी जीत ली, तब राष्ट्रों के आत्म-निर्धारण के असूल को एक ज़ोरदार पुष्टि मिली। 1945में गठित हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने स्पष्ट शब्दों में इस असूल को घोषित किया:

  • संयुक्त राष्ट्र संघ के संविधान के खण्ड 1, दफा 1, परिच्छेद 2ने ”समान अधिकार तथा लोगों के आत्म- निर्धारण के असूल के आधार पर राष्ट्रों के बीच मित्रता के रिश्तों“ के असूल का समर्थन किया।
  • नागरिक तथा राजनैतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय समझौते के दफा 1ने तथा आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय समझौते ने घोषित किया कि “सब लोगों को आत्म-निर्धारण का अधिकार होता है। उस अधिकार के तहत अपना राजनैतिक ओहदा बिना रोक-टोक के निर्धारित करने का तथा बिना रोक-टोक के अपना आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास करने का उन्हें अधिकार है।”

शीत युद्ध के दौरान महाशक्तियों की आपसी स्पर्धा की वृद्धि तथा आत्म-निर्धारण के अधिकार पर आक्रमण “अपना राजनैतिक ओहदा बिना रोक-टोक के निर्धारित करने के तथा बिना रोक-टोक के अपना आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास करने”के लोगों के अधिकार को करीब पूरे विश्व में मान्यता मिलने के बावज़ूद, इस असूल का बार-बार उल्लंघन किया गया। सबसे पहले इसका उल्लंघन करने वाला अमरीका था। युद्ध के पश्चात अमरीका ने साम्राज्यवादी देशों के गुट की अगुवाई की। “कम्युनिज़्म के खिलाफ़ लड़ाई”, राज्यों के अंदरूनी मामलों में दखलंदाज़ी करने का प्रमुख औचित्य बना। कम्युनिज़्म के खिलाफ़ इस जी-जान की लड़ाई, जिसे दूसरे विश्व युद्ध के दौरान थोड़ा ठण्डा करने की ज़रूरत पड़ी थी, युद्ध के तुरंत बाद अमरीका तथा उसके दोस्तों ने फिर से पूरे दम के साथ चालू किया। उस बहाने से कोरिया तथा वियतनाम जैसे देशों पर आक्रमण करके उनका बंटवारा किया गया, वहां सत्ता तख़्तापलट करवाये गये, कत्ल किये गये और दुनिया भर के देशों में कठपुतली हुकूमतें बिठायी गयीं। अपने खुदगर्ज हितों के लिए, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अपनी भारी आर्थिक तथा वित्तीय ताकत का इस्तेमाल करके विविध देशों के मामलों में दखल देना शुरू किया। दुनिया भर के लोकतांत्रिक तथा आज़ादी प्रेमी लोगों में अमरीका के खिलाफ़ गुस्सा बढ़ता गया।

क्रुश्चेववादियों की अगुवाई में सोवियत संघ ने इन असूलों का उल्लंघन करके लोगों के लिए एक बड़ी त्रासदी तथा आत्म-निर्धारण के संघर्ष के लिए बड़ी कठिनाई पैदा की। सोवियत संघ के अंदर पूंजीवादी शोषण तथा राष्ट्रीय दमन की पुनस्र्थापना हुई। उसके साथ-साथ सोवियत संघ पूरी तरह से एक सामाजिक साम्राज्यवादी ताकत बतौर उभर आया और विश्व भर में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए उसने अमरीका के साथ स्पर्धा करना और सहयोग भी करना शुरू किया। पूर्वी यूरोप के लोक जनतांत्रिक देशों पर अपना वर्चस्व प्रस्थापित करने की अपनी कोशिशों के समर्थन में, सोवियत सामाजिक साम्राज्यवादियों ने “मर्यादित संप्रभुता” का दुष्ट सिद्धांत घोषित किया। अमरीकी साम्राज्यवाद का विरोध करने के नाम पर उन्होंने यूरोप, एशिया तथा अफ्रीका के अनेक देशों के मामलों में दखलंदाज़ी की। 1968में चेकोस्लोवाकिया के खि़लाफ़ और 1979में अफ़गानिस्तान के खि़लाफ़ उनके आक्रमण ने इसी बात की गवाही दी कि सर्व प्रथम अपने ही देश में प्रस्थापित किये गये असूलों का सोवियत संघ के शासकों ने कितना भयानक उल्लंघन किया।

शीत युद्ध के बाद की अवधि में राज्यों की आज़ादी तथा संप्रभुता पर साम्राज्यवाद का बढ़ता आक्रमण सोवियत संघ में समाजवाद को पूरी तरह पलटने के दौरान उसके शासकों ने सोवियत संघ के अंदर के विविध राष्ट्रों की समानता और आत्म-निर्धारण के असूलों का पूरा उल्लंघन किया, जिससे वहां के विविध राष्ट्रों तथा राष्ट्रीयताओं का गुस्सा और नाराजगी बहुत बढ़ी। 1990के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ खत्म हुआ, तब अमरीका ने इस गुस्से और नाराजगी का इस्तेमाल करके सोवियत संघ के अनेक राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं को अपने वर्चस्व में लाया। खास करके भूतपूर्व सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप में उन्होंने “राष्ट्रीय-आत्म निर्धारण“ के नारे का बड़ी कुटिलता से उपयोग करके, उस इलाके में अनेक छोटे-छोटे, पश्चिमी साम्राज्यवाद परस्त राज्यों की स्थापना के लिए पूरी ताकत लगायी।

लेकिन इसी अवधि के दौरान, दुनिया भर के स्थापित राज्यों ने जब भी अमरीकी साम्राज्यवादियों की नीतियों का विरोध किया, तब अमरीकी साम्राज्यवादियों ने संप्रभुता और आत्म-निर्धारण के असूलों की खिल्लियां उड़ा दी। उन राज्यों के मामलों में दखल देने के समर्थन में अमरीकी साम्राज्यवादियों ने हर तरह के बहानों का इस्तेमाल किया। अपने खुद के “राष्ट्रीय हितों“ का बहाना देकर उन्होंने 2001में अफ़गानिस्तान पर आक्रमण करके उस पर कब्ज़ा जमाया। सद्दाम हुसैन ने ”जन संहार के शस्त्र छुपा कर रखे हैं“, इस बहाने से उन्होंने 2003में इराक पर आक्रमण करके उस पर कब्ज़ा जमाया। आणविक ऊर्जा विकसित करने का सब राष्ट्रों का समान अधिकार है, ऐसा न मान कर वे ईरान और उत्तरी कोरिया जैसे देशों को धमकियां दे रहे हैं, उनको ब्लैकमेल कर रहे हैं। अब “मानवतावादी हस्तक्षेप” और “जीवन बचाने” के बहाने से वे लिबिया पर बमबारी तथा क्षेपणास्त्रों का आक्रमण कर रहे हैं और सिरिया के साथ भी वही करने की धमकियां दे रहे हैं। यह कोई रहस्य नहीं है कि किन राज्यों पर हमला करना है, यह अमरीकी वर्चस्व के उनके विरोध से ही निर्धारित होता है, या फिर इस बात पर निर्भर होता है कि उनके पास तेल या गैस जैसे संसाधन हैं, जिन पर साम्राज्यवादी राज्यों की तथा बड़े इज़ारेदारों की लालची नज़र होती है।

आज यह कहा जा रहा है कि मानवाधिकार या पर्यावरण, आदि संबंधित वैश्विक चिंता, को राज्यों की संप्रभुता के बारे में जो स्थापित अंतर्राष्ट्रीय कानून और करार हैं, उनसे श्रेष्ठ स्थान मिलना चाहिए। आज जब अमरीकी साम्राज्यवादी तथा उनके दोस्त दुनिया के कोने-कोने पर अपना वर्चस्व और अस्तित्व स्थापित करने पर तुले हुए हैं, तब वर्तमान भू-राजनीति के दायरे से बाहर, इस सवाल को देखना गलत होगा। इतिहास ने साबित किया है कि एक देश के भीतर जो मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, उसके खि़लाफ़ उसी देश के लोगों को लड़ना होगा। किसी भी देश में जो ताकतें अपनी लड़ाइयां लड़ने के लिए साम्राज्यवादी ताकतों की सैनिक, वित्तीय या प्रचालन तांत्रिक मदद लेती हैं, यह बहाना देकर कि इससे “ज्यादा जल्दी” जीत मिलेगी, वे खुद को और अपने लोगों को भी बुद्धू बनाती हैं तथा अपने देश की आज़ादी और संप्रभुता को गिरवी रखती हैं। जब तक साम्राज्यवाद जिन्दा है, तब तक असूल के तौर पर सभी राज्यों और लोगों के आत्म-निर्धारण तथा संप्रभुता का असूल बरकरार रखना महत्वपूर्ण है।

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