आज़ादी दिवस 2021 के अवसर पर :
हिन्दोस्तान को नयी बुनियादों पर खड़ा करने की ज़रूरत है

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 15 अगस्त, 2021

आज़ादी दिवस पर जब प्रधानमंत्री लाल किले से राष्ट्र को संबोधित कर रहे हैं, तो अधिकतम हिन्दोस्तानी लोगों के पास खुशियां मनाने के लिए कुछ भी नहीं है। बल्कि, हमारे अन्दर बहुत गुस्सा है।

हमारे इस राजनीतिक तौर पर आज़ाद राज्य में, 74 वर्षों के आर्थिक विकास के बाद, आज करोड़ों-करोड़ों स्त्री-पुरुष दो वक्त की रोटी के लिए, रोज़गार की तलाश में दर-दर भटकने को मजबूर हैं। तड़के से देर रात तक कमर-तोड़ मेहनत करने के बाद, अधिकतम लोग उतना पैसा नहीं कमा पाते हैं जितना इंसान लायक ज़िन्दगी जीने के लिए ज़रूरी है।

आज से 74 वर्षों पहले, हिन्दोस्तान पर अंग्रेजों की हुकूमत ख़त्म हो गयी थी। लेकिन अंग्रेजों ने यहां जिस शोषण और लूट की व्यवस्था को बनाया था, वह व्यवस्था ख़त्म नहीं हुयी। मज़दूर वर्ग का पूंजीवादी शोषण न सिर्फ जारी है बल्कि दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों की अगुवाई में निजी मुनाफ़ाखोरों के हाथों किसानों की लूट भी जारी है और बढ़ती जा रही है। विदेशी इजारेदार पूंजीवादी कम्पनियां, हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों की सांठ-गांठ में, हमारे लोगों के श्रम का शोषण कर रही हैं और हमारे प्राकृतिक संसाधनों को लूट रही हैं।

हिन्दोस्तानी लोग बड़ी संख्या में आज़ादी के संघर्ष में उतर आये थे, इस उम्मीद के साथ कि अंग्रेजों की हुकूमत से आज़ाद होकर, हमें हर प्रकार के शोषण-दमन से रिहाई मिलेगी। पर 74 वर्षों बाद, लोग वर्ग शोषण और जातिवादी दमन – दोनों के शिकार बने हुए हैं। महिलाओं पर यौन उत्पीड़न और शारीरिक हमलों का ख़तरा बढ़ता जा रहा है। धर्म के आधार पर लोगों को भेदभाव और सांप्रदायिक हिंसा का शिकार बनाया जाता है।

करोड़ों-करोड़ों बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। अधिकतम मज़दूरों और किसानों के बेटों-बेटियों को घटिया किस्म की स्कूली शिक्षा मिलती है। अच्छी नौकरियां सिर्फ उन्हें ही मिलती हैं जिन्हें अच्छे अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में शिक्षा पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो। अधिकतम बच्चों को कम-से-कम वेतनों पर, “नीच काम” करने के लायक ही माना जाता है।

कोविड संकट और लॉक डाउन का फ़ायदा उठाकर, मज़दूरों के शोषण और किसानों की लूट को कई गुना बढ़ा दिया गया है। 2020-21 में इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों के कुल मुनाफे़ 50 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ गए, ऐसे दौर में जब अधिकतम हिन्दोस्तानी लोग पहले से ज्यादा ग़रीब हो गए हैं।

1857 की क्रान्तिकारी बग़ावत के दौरान, सभी इलाकों, सभी धर्मों और सभी प्रकार के काम-काज करने वाले लोग अवैध विदेशी हुकूमत के विरोध में एकजुट हुए थे। उन्होंने यह दावा किया था कि हम, हिन्दोस्तान के मेहनतकशों को देश पर राज करने का पूरा अधिकार है। उनका यह नारा “हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा!”, लोगों के दिलों और दिमागों में बैठ गया था। परन्तु राजनीतिक आज़ादी के 74 वर्षों बाद, हमारे जीवन को प्रभावित करने वाले कानूनों और नीतियों को निर्धारित करने में मेहनतकश बहुसंख्या का कोई नियंत्रण नहीं है।

सरकारी नीतियां और संसद में अपनाये गए सारे कानून टाटा, अंबानी, बिरला, अदानी और दूसरी इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों तथा अमेजन, वालमार्ट, फेसबुक और दूसरी विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लालच को पूरा करने के लिए बनाये जाते हैं। इजारेदार पूंजीवादी कंपनियां देश का एजेंडा तय कर रही हैं। इजारेदार पूंजीवादी कंपनियां आज मालिक हैं जबकि मेहनतकश जनसमुदाय उनके बेबस गुलाम बने हुए हैं।

आज देश के अधिकतम लोगों के लिए आज़ादी एक क्रूर मजाक बन गई है। उसकी वजह 1947 में हुयी त्रासदी है। अंग्रेजों से आज़ादी का संघर्ष जब ख़त्म हुआ, उस समय लोगों के पीठ पीछे एक सौदा किया गया। हिन्दोस्तान का बंटवारा कर दिया गया – एक हिन्दू बहुल हिन्दोस्तान और दूसरा मुसलमान बहुल पाकिस्तान। अंग्रेजों ने सांप्रदायिक जनसंहार आयोजित किया और पंजाब व बंगाल के राष्ट्रों का बेरहमी से बंटवारा किया। राजनीतिक सत्ता का लन्दन से दिल्ली को हस्तांतरण हुआ परन्तु वह हिन्दोस्तान के लोगों के हाथों में नहीं पहुंची। राजनीतिक सत्ता उन मुट्ठीभर हिन्दोस्तानियों के हाथों में आई, जिनके हित में अंग्रेजों से पाई गयी शोषण-दमन की व्यवस्था को बरकरार रखना था।

ब्रिटिश शासन में उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष के अन्दर दो परस्पर विरोधी धाराएं थीं, जो आपस में टकराती थीं। एक क्रांतिकारी धारा थी और दूसरी समझौताकारी धारा थी। क्रांतिकारी धारा के संगठन अंग्रेजों के बनाये गए संस्थानों, आर्थिक व्यवस्था, सिद्धांतों और मूल्यों को जड़ से उखाड़ने के उद्देश्य के साथ संघर्ष करते थे। उन्होंने सबको सुख-सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली नयी व्यवस्था स्थापित करने के लिए संघर्ष किया था। उन्होंने अंग्रेजों को भगाने के संघर्ष को हर प्रकार के शोषण-दमन से मुक्ति के संघर्ष का हिस्सा माना था।

समझौताकारी धारा के संगठन आधारभूत परिवर्तनों के बिना राजनीतिक आज़ादी पाना चाहते थे। वे अंग्रेजों की स्थापित राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था और राज्य के संस्थानों में किसी भी प्रकार का क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के खि़लाफ़ थे।

समझौताकारी धारा अंग्रेज साम्राज्यवादियों द्वारा हिन्दोस्तान पर अपनी हुकूमत को मजबूत करने के लिए तैयार किये गए वर्गों, बड़े पूंजीपतियों और बड़े जागीरदारों के हितों का प्रतिनिधित्व करती थी। अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने ज़मीन की मालिकी की ऐसी व्यवस्था स्थापित की, जिससे बड़े-बड़े जागीरदारों का विकास हुआ। अंग्रेज साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर काम करने वाले सम्पत्तिवान घरानों को औद्योगिक लाइसेंस दिए गए, जिससे बड़े पूंजीपतियों का विकास हुआ।

क्रांतिकारी धारा मज़दूरों, किसानों और दूसरे दबे-कुचले लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करती थी। 1913 में बनी हिंदुस्तान ग़दर पार्टी, शहीद भगत सिंह और उनके साथी तथा अनगिनत कम्युनिस्ट क्रांतिकारी, सब इस क्रांतिकारी धारा के हिस्सा थे।

समझौताकारी धारा की अगुवाई कांग्रेस पार्टी, मुस्लिम लीग और हिन्दोस्तान के सम्पत्तिवान वर्गों की पार्टियों ने की। 1857 के ग़दर के बाद से अंग्रेज हुक्मरानों ने ऐसी पार्टियों को स्थापित और विकसित करने की रणनीति अपनाई थी। अंग्रेजों ने अपने उपनिवेशवादी प्रशासन के अन्दर हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों के नेताओं को शामिल करने के लिए प्रादेशिक विधान सभाओं में चुनाव करवाए।

1947 में अंग्रेज हुक्मरानों ने हिन्दोस्तान की राज्य सत्ता को उन्हीं वर्गों के हाथों में सौंप दिया, जिन्हें उन्होंने तैयार किया था। इस तरह उन्होंने सुनिश्चित किया कि हिन्दोस्तान और पाकिस्तान के नए आज़ाद हुए राज्य हमेशा ही साम्राज्यवादी व्यवस्था में जुड़े रहेंगे। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी उनकी उपनिवेशवादी विरासत बरकरार रहेगी।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद, 1945 में, अंग्रेज साम्राज्यवादियों को हिन्दोस्तान में मज़दूरों और किसानों के बढ़ते संघर्षों का सामना करना पड़ा। रॉयल इंडियन नेवी (नौसेना) में बग़ावत, और उसके लिए मुंबई, कराची व दूसरे औद्योगिक शहरों की जनता के पूरे समर्थन ने अंग्रेजों के मन में क्रांति का डर पैदा कर दिया। हिन्दोस्तान के अधिकांश लोग, सोवियत संघ के मज़दूरों और किसानों की मिसाल से प्रेरित होकर, क्रांति के लिए तरस रहे थे।

अंग्रेज साम्राज्यवादी युद्ध से बहुत कमजोर हो गए थे। वे समझ गए कि हिन्दोस्तान पर उनका प्रत्यक्ष शासन अब और ज्यादा देर तक नहीं चल सकेगा। उन्होंने हिन्दोस्तान से बाहर निकलने की रणनीति तैयार करनी शुरू कर दी, जिसका मक़सद था क्रांति को रोकना और दक्षिण एशिया को बंटा हुआ व बरतानवी-अमरीकी साम्राज्यवाद पर हमेशा निर्भर रखना।

क्रांति के सांझे डर की वजह से, अंग्रेज सम्राज्यवाद और हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपति एकजुट हो गए। उन दोनों का एक सामान्य लक्ष्य था – पूंजीवाद और साम्राज्यवादी लूट की व्यवस्था को बरकरार रखना। उन्हें इस बात का डर था कि हिन्दोस्तान के मज़दूर और किसान सोवियत संघ की मिसाल से प्रेरित होकर, पैदावार के साधनों को उपनिवेशवादियों और पूंजीपतियों के हाथों से छीन लेंगे और समाजवाद के रास्ते पर चल पड़ेंगे।

अंग्रेजों ने कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग के साथ, अलग-अलग समझौता किया और उन दोनों के बीच आपस में शक पैदा किया। इस तरह, उन्होंने सांप्रदायिक बंटवारे की हालतें तैयार कीं।

हिन्दोस्तान के पूंजीपतियों और उनके नेताओं का विरोध क्रांति से ज्यादा और साम्राज्यवाद से कम था। साथ ही साथ, वे राज्य सत्ता पर खुद हावी होने के इच्छुक थे। इसलिए उन्होंने अंग्रेजों द्वारा आयोजित सांप्रदायिक बंटवारे को स्वीकार कर लिया।

1947 में अंग्रेज साम्राज्यवाद और हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपतियों के बीच उस समझौते के कारण, हिन्दोस्तान आज तक उपनिवेशवादी विरासत का गुलाम है और साम्राज्यवादी व्यवस्था में फंसा हुआ है। उपनिवेशवादी राज्य के संस्थान, भ्रष्ट अफ़सरशाही और सांप्रदायिक आधार पर बनायी गयी सेना की टुकडियां, इन सबको वैसे का वैसा ही रखा गया है। अंग्रेजों ने अपनी शोषण की व्यवस्था की हिफ़ाज़त करने के लिए जो कानून का शासन लागू किया था, वह भी वैसे का वैसा ही रहा है। राजद्रोह कानून, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम, आदि जैसे राजकीय आतंक को जायज़ ठहराने वाले तमाम कानून आज भी जारी हैं। ‘बांटो और राज करो’ की उपनिवेशवादी कार्यनीति, और इसके साथ-साथ सांप्रदायिक हिंसा आयोजित करना तथा सांप्रदायिक सद्भावना व धर्म-निरपेक्षता का प्रचार करना – इन सारी तरकीबों को हिन्दोस्तान के पूंजीपतियों ने बरकरार रखा है व कुशल बनाया है।

बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र की राजनीतिक व्यवस्था, जिसे अंग्रेजों ने सीमित स्तर पर शुरू किया था, उसे आज़ाद हिन्दोस्तान की राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में लागू किया गया है। इस व्यवस्था का मक़सद है यह सुनिश्चित करना कि फ़ैसले लेने का अधिकार पूंजीपति वर्ग के हाथों में ही बना रहे पर यह दिखावा किया जाये कि लोग अपनी पसंद की सरकार चुन सकते हैं।

पूंजीपति वर्ग की अगुवाई करने वाले इजारेदार घरानों ने अंग्रेजों से विरासत में पाए गए राज्य तंत्र और राजनीतिक प्रक्रिया का इस्तेमाल करके, अपनी निजी दौलत को खूब बढ़ाया है। आज अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में और देश के हर कोने में उन्हीं का बोलबाला है। आज वे बहु-अरबपति हैं, दुनिया के सबसे धनवान पूंजीपतियों के साथ स्पर्धा करते हैं और खुद अपने साम्राज्यवादी सपनों को साकार बनाना चाहते हैं।

पूंजीपतियों ने सामंती अवशेषों और घिनावनी जाति प्रथा को बरकरार रखा है। पूंजीपतियों द्वारा स्थापित इस हिन्दोस्तानी संघ के अन्दर, देश के विभिन्न राष्ट्रों और लोगों को अपने राष्ट्रीय अधिकारों से वंचित किया जाता है। वर्तमान हिन्दोस्तानी संघ इसके घटक राष्ट्रों के लिए एक कारागार जैसा है। हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों को सिर्फ अपने खुदगर्ज हितों की ही परवाह है, इसलिए उन्होंने अर्थव्यवस्था के तमान क्षेत्रों में बढ़ती साम्राज्यवादी घुसपैठ और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते वर्चस्व के लिए सारे दरवाजे़ खोल दिए हैं।

जब तक राज्य सत्ता पर पूंजीपति काबिज़ रहेंगे, जब तक पूंजीपति ही देश का एजेंडा तय करेंगे, तब तक लोग इस शोषण-भरी आर्थिक व्यवस्था, इस दमनकारी राज्य तंत्र और इस गुनहगार राजनीतिक प्रक्रिया के बेबस गुलाम बने रहेंगे। विदेशी पूंजी की भूमिका और विदेशी साम्राज्यवादी दबाव बढ़ता जायेगा। हिन्दोस्तान अंतर-साम्राज्यवादी स्पर्धा और दुनिया को फिर से बांटने के नाजायज़ युद्धों में ज्यादा से ज्यादा हद तक फंसता रहेगा।

जो काम 1947 में पूरा नहीं हुआ था, उसे आज पूरा करना होगा। पूंजीवाद, अंग्रेजों के संसदीय लोकतंत्र और पूरी उपनिवेशवादी विरासत के साथ नाता तोड़ना होगा। पूंजीपतियों की जायदाद और “इजारेदार पूंजीपतियों के हक़” की हिफ़ाज़त करने वाली और इसके साथ-साथ, मज़दूरों, किसानों, महिलाओं और नौजवानों के अधिकारों को पैरों तले रौंदने वाली, इस कानून की हुकूमत (जिसे रूल ऑफ लॉ कहा जाता है) को हमें ख़त्म करना होगा।

वर्तमान राज्य पूंजीपति वर्ग को सत्ता में बनाये रखने और मज़दूरों-किसानों को अपने शोषण का विरोध करने के हर तरीके से वंचित करने का साधन है। हमें एक ऐसे नए राज्य की नींव डालनी होगी, जो मज़दूरों और किसानों को सत्ता में लाने का साधन बनेगा और पूंजीपति वर्ग को मज़दूरों-किसानों का शोषण करने के साधनों से वंचित करेगा।

बड़े पैमाने के उत्पादन और विनिमय के सभी साधन आज इजारेदार पूंजीपतियों की निजी संपत्ति हैं। इन्हें सामाजिक संपत्ति, सम्पूर्ण जनता की संपत्ति में तब्दील करना होगा। वर्तमान आर्थिक व्यवस्था पूंजीपतियों की लालच को पूरा करने की दिशा में चलायी जाती है। इसे सभी लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में चलाना होगा।

हिन्दोस्तान को नयी बुनियादों पर खड़ा करना, राज्य और अर्थव्यवस्था का नव-निर्माण करना, यही आज वक्त की मांग है। मज़दूरों और किसानों को एकजुट होना होगा, पूंजीपतियों को सत्ता से हटाना होगा और देश की बागडोर को अपने हाथों में लेना होगा। हमें मज़दूरों और किसानों का राज्य स्थापित करना होगा। ऐसा करके ही हम हिन्दोस्तान की आज़ादी और संप्रभुता की सच्चे माइने में हिफ़ाज़त कर सकेंगे और सबके लिए सुख-सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएंगे।

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