1857 के ग़दर की 163वीं सालगिरह के अवसर पर :

हिन्दोस्तान का मालिक बनने के संघर्ष में लोग आगे बढ़ें!

हम हैं इसके मालिक! हिन्दोस्तान हमारा!

यह नारा अपने दिलो-दिमाग में बसाये बर्तानवी बस्तीवादी सेना के मेरठ में तैनात बाग़ी हिन्दोस्तानी सिपाही 10 मई को दिल्ली पहुंचे। यह हिन्दोस्तानी उपमहाद्वीप पर अंग्रेजों की हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावात का इशारा था।

मेरठ से चलकर दिल्ली पहुंचे इन बाग़ी सिपाहियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की दमनकारी और विदेशी हुकूमत की जगह पर हिन्दोस्तान में एक नयी राजनीतिक सत्ता के नुमाइंदे बतौर बहादुर शाह ज़फर को तख्त पर बिठाया। दिल्ली में शासन की बागडोर संभालने के लिए एक अदालत का गठन किया गया, जिसमें आम शहरी और सिपाही दोनों ही मौजूद थे और जिसके फैसले राजा पर लागू होते थे। बहादुर शाह ज़फर ने खुलेआम ऐलान किया कि उन्हें इस तख़्त पर लोगों ने बिठाया है और वे उनकी इच्छा से बंधे हैं। उन्होंने ऐलान किया कि बर्तानवी हुकूमत की कोई वैधता नहीं है और उसका विनाश किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि “जहां तक हिन्दोस्तान के भविष्य का सवाल है, इसका फैसला हिन्दोस्तान के लोग करेंगे”।

12 मई को बहादुर शाह ज़फर ने एक शाही फरमान जारी किया :

“हिन्दोस्तान के मेरे हिन्दू और मुसलमान भाइयों और बहनों, हमारे देश के लोगों के प्रति फर्ज़ को मद्देनजर रखते हुए, आज मैंने अपने लोगों के साथ खड़े होने का फैसला किया है … सभी हिन्दुओं और मुसलमानों का यह फर्ज़ है कि वे अंग्रेजों के खि़लाफ़ बग़ावत में शामिल हों। वे अपने शहरों और गांवों में अपने नेताओं के मार्गदर्शन में काम करें, और देश में व्यवस्था बनाये रखने के लिए क़दम उठायें। जहां तक हो सके वे इस फरमान की प्रतियां बनाएं और शहर के सभी महत्वपूर्ण ठिकानों पर लगायें, उनका यह फर्ज़ है। लेकिन सबसे पहले वे खुद हथियारबंद हों, और अंग्रेजों के खि़लाफ़ जंग छेड़ दें”। इसके साथ उन्होंने एक और फरमान जारी किया जिसमें लोगों को सावधान किया गया:

“यह अंग्रेज हिन्दुओं को मुसलमानों के खि़लाफ़ और मुसलमानों को हिन्दुओं के खि़लाफ़ भड़काने की कोशिश करेंगे। उनकी बातों पर यकीन न करें, और उनको अपने देश से खदेड़कर बाहर करें”।

बर्तानवी साम्राज्यवादियों ने ग़दर की सच्चाई और उसके प्रसार को झुठलाने के जी-तोड़ कोशिश की, जिसे कार्ल माक्र्स ने हिन्दोस्तान की आज़ादी की पहली जंग का नाम दिया। बर्तानवी इतिहासकारों ने उसे “सिपाही बग़ावत”, और “मुसलमानों की बग़ावत” का नाम दिया। असलियत में इस इंक़लाबी बग़ावत में सभी धर्मों के लोग शामिल थे। इसमें केवल सिपाही ही नहीं बल्कि किसान, कारीगर, आदिवासी लोग, देशभक्त राजा और रानियां भी शामिल थीं। उनको व्यापारियों, बुद्धिजीवियों और तमाम तरह के धार्मिक नेताओं का समर्थन हासिल था। कश्मीर में गिलगित से लेकर तमिलनाडु में मदुरई तक साधू और मौलवी लोगों को “राजद्रोह” का पाठ पढ़ाते देखे गए। अपने भौगोलिक प्रसार और इसमें शामिल लोगों की तादाद के पैमाने की दृष्टि से यह 19वीं सदी की सबसे महान जंग थी।

यह एक सुनियोजित तरीके से किया गया जन-विद्रोह था। बहादुर शाह ज़फर, वाजिद अली शाह, नाना साहेब, मौलवी अहमदुल्लाह शाह, कुंवर सिंह और कई अन्य लोग, 1856 और अंग्रेजों द्वारा अवध पर कब्ज़ा किये जाने से बहुत पहले से, इसकी तैयारी कर रहे थे। बहादुर शाह जफर ने पुरातन मुगल पीर-मुरीद के ढांचे के नक्शेकदम पर अभ्यास केन्द्रों का गठन किया था। नाना साहेब और अजिमुल्लाह खान ने उत्तर भारत की सभी बर्तानवी सैनिक छावनियों में भेष बदलकर दौरा किया था। मई और जून 1857 के दौरान बॉम्बे और मद्रास सैनिक छावनियों में ऐसे पर्चे नज़र आये जिसमें ऐलान किया गया कि बहादुर शाह जफर को “हिन्दोस्तान के शहंशाह” बतौर दिल्ली के तख़्त पर वापस बिठाया गया है और बर्तानवी राज का अंत हो गया है।

हिन्दोस्तान में ऐसे कई इतिहासकार और राजनीतिक पार्टियां हैं जो यह दावा करते हैं कि 1857 के ग़दर को सामंतवादी और प्रतिगामी ताक़तों ने अगुवाई दी थी, जो तथाकथित तौर पर देश को बस्तीवाद-पूर्व समय में ले जाना चाहती थी। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो उनके हिसाब से बर्तानवी बस्तीवादी राज्य और उसके “कानून का राज” नयी व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है और 1857 का ग़दर पुरानी व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। इस तरह से वे सच्चाई को उल्टा करके पेश करते हैं।

1857 का ग़दर एक जन-क्रांतिकारी विद्रोह था जिसने अंतिम मुगल सम्राट को लोगों के साथ खड़े होने पर मजबूर कर दिया था। लोगों की परिषद का गठन जिसके फैसले राजा पर लागू होते थे, यह पूरी तरह से नया था। यह पूरी तरह से जनतांत्रिक और क्रांतिकारी था। जबकि “श्वेत आदमी का बोझ” के सिद्धांत पर बना बर्तानवी बस्तीवादी राज्य पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी था। यह राज्य बस्तीवाद-पूर्व समाज में जो कुछ सबसे पिछड़ा था उसे बरकरार रखने के आधार पर बनाया गया था, ताकि लोगों को बांटकर उन्हें गुलाम बनाकर रखा जा सके।

जबकि बर्तानवी हुक्मरानों ने इस क्रांतिकारी विद्रोह को बेरहमी से कुचल दिया, हिन्दोस्तान के लोगों की चेतना पर उसका गहरा असर हुआ। इस विद्रोह ने लोगों को एक ऊंचे लक्ष्य के लिए एकजुट किया। अलग-अलग धर्मों और जातियों के लोग हिन्दोस्तानी बतौर एकजुट हुए और खुद को इस बस्तीवादी दासता, और अपनी ज़मीन और श्रम के अति-शोषण और लूट से आज़ाद करने के लिए प्रतिबद्ध हुए। इस क्रांतिकारी विद्रोह ने इस विचार को जन्म दिया कि इस उपमहाद्वीप के बाग़ी लोग एक दिन अंग्रेजों को खदेड़ बाहर करेंगे और खुद हिन्दोस्तान के मालिक होंगे। इस क्रांतिकारी उठाव ने बस्तीवाद-विरोधी संघर्ष में हिन्दोस्तान ग़दर पार्टी, हिन्दोस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के शहीद भगत सिंह और उनके साथी और उनके जैसे अनगिनत अन्य क्रांतिकारियों और देशभक्तों को प्रेरित किया।

आज हमारे समाज के सामने जो कोई समस्या है उसकी जड़ यह है कि 1947 में ग़दरियों का लक्ष्य हासिल नहीं हुआ। संप्रभुता लंदन से दिल्ली में तो हस्तांतरित हो गयी लेकिन वह लोगों के हाथों में नहीं आई। आज तक हिन्दोस्तान के लोगों की ज़मीन और उनके श्रम का अतिशोषण और लूट बरकरार है। यह साफ़ नज़र आता है कि हिन्दोस्तान के लोग हिन्दोस्तान के मालिक नहीं हैं।

अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी संविधान सभा ने 1950 में स्वतंत्र हिन्दोस्तान के संविधान को अपनाया। उन्होंने बर्तानवी बस्तीवादी राज्य के बुनियादी ढांचे के साथ-साथ उसके सिद्धांत को बरकरार रखा कि लोग खुद अपना राज चलने के क़ाबिल नहीं हैं। केवल संसद और राज्य विधानसभाओं के पास कानून बनाने का अधिकार है। संसद में बैठी केवल सत्ताधारी पार्टी के पास नीति-निर्धारण का अधिकार है। बहुसंख्या मेहनतकश लोगों के पास केवल वोट डालने का अधिकार है। जिसके बाद सारी ताक़त चुने हुए “जन प्रतिनिधियों” के हाथों में निहित हो जाती है। चुनाव से पहले अपने लिए उम्मीदवारों का चयन करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। चुने हुए प्रतिनिधियों की जवाबदेही तय करने या उनको वापस बुलाने का कोई अधिकार नहीं है, और न ही कानून प्रस्तावित करने का कोई अधिकार है।

हिन्दोस्तान की तकदीर का फैसला करने की सर्वोच्च ताक़त को मुट्ठीभर शोषकों ने हड़प लिया है, जिनकी अगुवाई आज टाटा, अंबानी, बिरला और अन्य इजारेदार पूंजीपति घराने करते हैं। इन इजारेदार पूंजीपति घरानों का प्रतिनिधित्व परस्पर विरोधी पार्टियां करती हैं, जो बारी-बारी से इस राज्य के संचालन का काम करती हैं, जबकि लोगों को मात्र वोट देने वाले पशु में बदल दिया गया है, जो इस शोषक व्यवस्था के एक निर्बल पीड़ित बनकर रह गये हैं। बांटों और राज करो का सांप्रदायिक तरीक़ा इस स्वतंत्र हिन्दोस्तान में बरकरार रखा गया है। धर्म के आधार पर लोगों का उत्पीड़न और जाति के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव और दमन बदस्तूर चल रहा है।

कोरोना से लड़ने के लिए देशभर में लगाये गए लॉक डाउन की स्थिति के चलते इस अप्रत्याशित संकट में लोगों की इस शक्तिहीन अवस्था का पूरी तरह से पर्दाफाश हो गया है। करोड़ों मेहनतकश निराशाजनक स्थिति में धकेले जा चुके हैं, जिन्हें बिना किसी आय और यहां तक कि सर पर बिना किसी छत के खुद के हाल पर छोड़ दिया गया है। हिन्दोस्तान की सरकार इन मेहनतकश लोगों के जन-धन खातों में मात्र 500 रुपये डालकर अपनी पीठ थपथपा रही है। इस दो टके की रकम में एक बेरोज़गार मज़दूर को 50 दिन तक से अधिक चल रहे लॉक डाउन में खुद को जिंदा रखना है।

हमारे देश के मज़दूर वर्ग, किसान और तमाम मेहनतकश और देशभक्त लोगों के लिए ग़दर की पुकार “हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा!” एक नए हिन्दोस्तान की तस्वीर पेश करता है, जो अस्तित्व में आने के लिये चिल्ला रहा है। आओ हम सब मिलकर, पूरे दिल से हिन्दोस्तान के नव-निर्माण के लिए काम करें – एक ऐसा राज्य और राजनीतिक प्रक्रिया स्थापित करने के लिए काम करें जो इस सिद्धांत पर आधारित हो कि संप्रभुता पर लोगों का अधिकार है; और सभी लोगों के लिए सुख और सुरक्षा सुनिश्चित करना राज्या का फ़र्ज़ है।

हम हैं इसके मालिक, हम हैं हिन्दोस्तान – मज़दूर, किसान, औरत और जवान!

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