बीते कुछ महीनों से भ्रष्टाचार और उसे कैसे मिटाना है, यह राजनीतिक चर्चा का मुख्य विषय बन गया है। इजारेदार पूंजीपतियों के नियंत्रण में प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ योद्धा बन गये हैं। तरह-तरह के भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धा टपक पड़े हैं। उन पर खूब ध्यान दिया जा रहा है। अगर इजारेदार पूंजीपतियों की मीडिया और भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धाओं की बातों पर यकीन किया जाये तो देश के
बीते कुछ महीनों से भ्रष्टाचार और उसे कैसे मिटाना है, यह राजनीतिक चर्चा का मुख्य विषय बन गया है। इजारेदार पूंजीपतियों के नियंत्रण में प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया समाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ योद्धा बन गये हैं। तरह-तरह के भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धा टपक पड़े हैं। उन पर खूब ध्यान दिया जा रहा है। अगर इजारेदार पूंजीपतियों की मीडिया और भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धाओं की बातों पर यकीन किया जाये तो देश के मेहनतकशों की सारी समस्याओं को हल करने और उनके लिये खुशहाली व सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये सरकार को लोक पाल नामक एक सशक्त भ्रष्टाचार-विरोधी संस्थान बनाना चाहिये और स्विस बैंकों में जमा करोड़ों का काला धन वापस ले आना चाहिये।
इस मुद्दे पर हर रोज़ सत्याग्रह और भूख हड़ताल आयोजित किये जा रहे हैं, जिनका मीडिया में खूब प्रचार किया जा रहा है। शासक कांग्रेस पार्टी और विपक्ष की भाजपा इस सवाल पर एक दूसरे से बढ़कर आगे आने के लिये आपस में होड़ लगा रही हैं।
यह सब तो सामने दिख रहा है। पर इसके पीछे क्या चल रहा है? कम्युनिस्टों और मेहनतकशों के लिये यह समझना जरूरी है।
भ्रष्टाचार को चर्चा का मुख्य मुद्दा किसने बनाया और क्यों?
राजनीतिक तौर पर जागरुक मजदूरों को यह साफ-साफ पता चल रहा है कि देश के सबसे बड़े इजारेदार पूंजीपतियों के महत्वपूर्ण तबकों ने ही भ्रष्टाचार को राजनीतिक चर्चा का मुद्दा बनाया है।
अगर देश के बड़े-बड़े इजारेदार पूंजीपतियों ने भ्रष्टाचार को राजनीतिक चर्चा का मुद्दा न बनाया होता तो इजारेदार पूंजीपतियों की प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया भ्रष्टाचार और उसके खिलाफ़ लड़ने वालों पर इतना ध्यान नहीं देती। अगर उन्होंने भ्रष्टाचार को राजनीतिक चर्चा का मुद्दा न बनाया होता तो संप्रग सरकार भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धाओं की मांगों को मानने के लिये इतना नहीं झुकती और न ही प्रमुख विपक्ष पार्टी भाजपा भ्रष्टाचार को इस समय अपना मुख्य मुद्दा बनाने में इतना उत्साह दिखाती। हमें कभी भी यह नहीं भूलना चाहिये कि बड़ी मीडिया देशी-विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों का प्रतिनिधि है और कांग्रेस पार्टी व भाजपा बड़े पूंजीपतियों की दो मुख्य पार्टियां हैं।
इस समय हिन्दोस्तानी और विदेशी बड़े इजारेदार घरानों के बीच, अपने प्रतिस्पर्धियों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने और राज्य, सरकार व सभी सरकारी संस्थानों पर अपने नियंत्रण का इस्तेमाल करके अधिकतम मुनाफे बनाने के लिये कभी गुप्त तो कभी खुली लड़ाई चल रही है। यह भी सच है कि कभी-कभी विभिन्न पूंजीवादी घराने आपस में समझौता कर लेते हैं। पर उनके बीच के समझौते कुछ ही समय के लिये होते हैं जबकि उनकी आपसी स्पर्धा अनिवार्य है। जब राडिया टेप्स से टाटा समूह तथा कुछ और पूंजीवादी घरानों की गतिविधियों का पर्दाफाश हुआ, तब रतन टाटा ने खुलेआम ऐलान किया कि विभिन्न प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया समूह प्रतिस्पर्धी इजारेदार घरानों के लिये काम कर रहे हैं। उसने अपनी कंपनियों को उन खास मीडिया समूहों को विज्ञापन देने से रोक दिया।
वर्तमान गतिविधियों में विदेशी साम्राज्यवादियों का भी हाथ हो सकता है। वे शासक वर्ग के विश्वसनीयता के संकट को बढ़ाकर हिन्दोस्तान में अपने हितों को बढ़ावा देने के लिये, देश में अन्तर इजारेदार पूंजीवादी अन्तर्विरोधों का फायदा अवश्य उठाना चाहते हैं।
भ्रष्टाचार के खिलाफ़ इस जंग में हिन्दोस्तानी और विदेशी प्रतिस्पर्धी इजारेदार घराने अपने-अपने अजेंडा आगे रख रहे हैं। यह जानकर, पूंजीपतियों की मुख्य पार्टियां कांग्रेस पार्टी और भाजपा इजारेदार पूंजीपतियों के अलग-अलग प्रतिस्पर्धी घरानों का पक्ष ले रही हैं।
तो यह स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार को चर्चा का मुख्य मुद्दा बनाने के पीछे तीखे अन्तर इजारेदार पूंजीवादी अन्तर्विरोध एक प्रमुख कारण है।
एक खतरनाक स्थिति
पूंजीपति यह सुनिश्चित करना चाहेंगे कि ये अन्तर्विरोध इतने न बढ़ जायें कि वे पूरी व्यवस्था को हिला दें। परन्तु यह जरूरी नहीं है कि सब कुछ पूंजीपतियों की इच्छाओं के अनुसार ही हो।
कांग्रेस पार्टी सरकार ने स्विस बैंकों में जमा धन के मुद्दे पर बाबा रामदेव के दल के साथ गुप्त सौदा किया। सौदा यह था कि बाबा रामदेव अपने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल और सत्याग्रह को कुछ घंटों तक चलायेंगे, जिसके बाद समझौते की घोषणा की जायेगी और सत्याग्रह को रोक दिया जायेगा। लेकिन घटनाक्रम कुछ और ही हुआ।
तब संप्रग सरकार ने सत्याग्रह को खत्म करने के लिये आधी रात में वहशी पुलिस हमला किया। इस गुप्त सौदे के अनजान बहुत से बेगुनाह लोग जो सत्याग्रह में हिस्सा ले रहे थे, आंसू गैस, लाठी चार्ज और भगदड़ में बुरी तरह घायल हुये। शान्ति से सो रहे लोगों पर आधी रात में बर्बर पुलिस हमले के लिये संप्रग सरकार की कड़ी निंदा की जानी चाहिये।
अब यह देखना होगा कि लोक पाल बिल को बनाने में अन्ना हज़ारे के दल के साथ सरकार कोई आपसी समझौता कर पाती है या नहीं।
लोगों को यह नहीं भूलना चाहिये कि हमारे देश में, कम से कम दो बार इससे पहले, पूंजीवादी इजारेदार कंपनियों व उनकी पार्टियों तथा विदेशी साम्राज्यवादियों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने का झंडा फहराकर, मेहनतकशों को गुमराह किया है और अपने खुदगर्ज कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया है। जय प्रकाश नारायण एक ऐसे आन्दोलन के नेता थे और वी.पी सिंह दूसरे का। पर भ्रष्टाचार की समस्या दूर नहीं हुई। भ्रष्टाचार के मुद्दे को उछालकर, पीछे से किसी दूसरे राजनीतिक कार्यक्रम को बढ़ावा दिया गया। लोगों को फिर से बुद्धू नहीं बनना चाहिये।
भ्रष्टाचार को कौन खत्म करेगा?भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था में निहित है। सबसे बड़ी-बड़ी इजारेदार कंपनियां राज्य पर अपने नियंत्रण का इस्तेमाल करके पूरे समाज को लूटती हैं और अधिकतम मुनाफे कमाती हैं। कौन किससे आगे निकलेगा, इस पर अलग-अलग पूंजीवादी घरानों के बीच तीखी स्पर्धा चल रही है। हरेक पूंजीवादी घराना यह सुनिश्चित करने की कोशिश करता है कि सरकारी नीतियां और ठेके उसके पक्ष में हों तथा उसके प्रतिस्पर्धियों के खिलाफ़। भ्रष्टाचार ही वह तरीका है जिसके जरिये नये पूंजीवादी दल आगे आते हैं और अपने पुराने, पहले से प्रतिष्ठित प्रतिस्पर्धियों को पीछे छोड़ देते हैं। नेताओं और अफसरों को रिश्वत देना इस व्यवस्था का निहित भाग है। इजारेदार पूंजीपति यह फैसला करते हैं कि कौन सी पार्टियां सरकार बनायेंगी, कौन मंत्री बनेंगे, कौन सा विभाग किस अफसर की अध्यक्षता में होगा। इन सारे मुद्दों पर हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार कंपनियों के बीच बहुत तेज़ स्पर्धा चल रही है।
सिर्फ हिन्दोस्तान में ही नहीं बल्कि अगुवा पूंजीवादी देशों समेत सभी पूंजीवादी देशों में ऐसा ही होता है।
इसलिये हमें इस भ्रम में नहीं रहना चाहिये कि जब तक पूंजीवादी व्यवस्था कायम है, तब तक भ्रष्टाचार को किसी तरह मिटाया जा सकता है। जो ऐसा भ्रम फैलाते हैं, वे पूंजीवाद को सजाने-संवारने तथा लोगों को बुद्धू बनाने का अपराध कर रहे हैं।
इस संदर्भ में, लोक पाल जैसे संस्थान को स्थापित करके पूंजीपति क्या हासिल करना चाहते हैं? यह हमें साफ-साफ समझना होगा। इस समय साम्राज्यवादियों की तरफ से बहुत दबाव है कि हिन्दोस्तान जैसे देश “सुशासन” के तौर-तरीकों को अपनाये। यह मांग की जा रही है कि राज्य व उसके संस्थान तथा कानून उसी तरीके से काम करें जैसे कि अगुवा पूंजीवादी देशों में करते हैं। साम्राज्यवादी यह नहीं चाहते कि हिन्दोस्तान को लूटने में हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपतियों को उनसे ज्यादा फायदा मिले। अगुवा पूंजीवादी देशों में हिन्दोस्तान को एक बहुत भ्रष्ट देश माना जाता है। इन हालतों में हिन्दोस्तानी राज्य पर साम्राज्यवादियों की मांगों को मानने का बहुत दबाव डाला जा रहा है। भ्रष्टाचार से निपटने के लिये लोक पाल स्थापित करना “सुशासन” का ऐसा एक कदम है। यह भी दबाव डाला जा रहा है कि सांसदों से अपना काम करवाने के लिये उन्हें पैसा देना वैध माना जाये, यानि भ्रष्टाचार को वैधता दी जाये।
मजदूर वर्ग, मेहनतकश किसान और दूसरे मेहनतकश लोग ही भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये वास्तव में चिंतित हैं। उन्हीं के खून-पसीने की कमाई को पूंजीपति, मंत्री, अफसर और जज लूटकर आपस में बांटते हैं। लोगों के कुदरती संसाधनों को हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार कंपनियां लूटती हैं।
सिर्फ मजदूर और किसान ही भ्रष्टाचार को मिटा सकते हैं। वे पूंजीपतियों के शासन को खतम करके और उसकी जगह पर मजदूरों और किसानों का शासन स्थापित करके भ्रष्टाचार को मिटायेंगे। वर्तमान राज्य सत्ता की जगह पर एक नई राज्य सत्ता स्थापित करनी होगी, जो देशी-विदेशी शोषकों को शक्ति से दबायेगी। नई राज्य सत्ता को उत्पादन के साधनों को अपने हाथों में लेना होगा और जनता की खुशहाली सुनिश्चित करने के लिये अर्थव्यवस्था को नई दिशा देनी पड़ेगी। नई राज्य सत्ता को यह सुनिश्चित करना होगा कि कार्यकारिणी, विधायिका और न्यायपालिका सब इसी उद्देश्य के लिये काम करेंगे और मजदूरों व किसानों के नियंत्रण व निगरानी में काम करेंगे।