महोदय,
हाल ही में, मज़दूर एकता लहर के आनलाईन अंक में पढ़ा कि ‘पूंजीपति नहीं चाहते कि दिहाड़ी मज़दूर अपने गांव जायें।’
देश का पूंजीपति वर्ग नहीं चाहता है कि मज़दूर अपने गांव जायें। अगर मज़दूर गांव चले जायेंगे तो उनकी फैक्टिरयों में काम कौन करेगा। इसलिये सरकारों ने उनके जाने के लिये कोई भी यातायात मुहैया नहीं करवाया। हालांकि सरकार के लिए यह संभव था। सभी मज़दूरों को भेड़-बकरियों की भांति सड़कों पर ही छोड़ दिया गया।
पूंजीपतियों को सिर्फ मुनाफ़ा ही दिखाई देता है। मज़दूर जीयें या मरें, इससे पूंजीपतियों को कोई फर्क नहीं पड़ता है और न ही उनकी सरकारों को। यदि मज़दूरों के रहने के लिये अच्छे मकान, भोजन की व्यवस्था, इलाज की व्यवस्था होती तो ये मज़दूर पलायन नहीं करते।
मज़दूरों का बड़ी संख्या में पलायन यह सिद्ध करता है कि मज़दूरों को बिल्कुल भरोसा नहीं है कि पूंजीपति और उनकी सरकार मज़दूरों को इज्जत के साथ दो वक्त का भोजन दे सकती हैं। उनके परिवारों को सुख-सुरक्षा दे सकती है। वे जानते हैं कि कोरोना से तो वे बाद में मरेंगे, उससे पहले वे भूखों मर जायेंगे। इसलिये उन्होंने पैदल ही सैकड़ों-सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय की।
चुनाव के दौरान इनकी वोटर लिस्ट की पर्ची सबसे पिछड़े से पिछड़े क्षेत्र में रहने वालों के घर में पहुंच जाती है। सरकारी तंत्र सक्रिय हो उठता है। मज़दूरों को सुख-सुरक्षा देनी होती है या रोज़ी-रोटी देनी होती है, तब न तो इनकी तकनीक काम करती है न ही इनका तंत्र।
करोना महामारी ने पर्दाफाश कर दिया कि यह पूंजीवादी व्यवस्था देश के मज़दूरों को, चाहे वे किसी भी क्षेत्र में काम करते हों, अस्पताल के डाक्टर, बैंककर्मी, एलपीजी के मज़दूर, अध्यापक, देहाड़ी मज़दूर, ड्राईवर, या स्वयं रोज़गार वाले, या किसान आदि, किसी को भी सुख-सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती है। मज़दूर वर्ग को किसानों और सारे श्रमिकों के साथ एक होकर, अपना राज लाना होगा, तभी देशवासियों को सुख-सुरक्षा सुनिश्चित हो सकती है।
धन्यवाद
राकेश कुमार, फरीदाबाद