क्या ई.एस.आई.सी. में योगदान को कम करना मज़दूरों के हित में है?

सरकार ने कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ई.एस.आई.सी.) के लिये मालिकों व मज़दूरों के योगदान को 1 जुलाई, 2019 से घटा दिया है। मालिकों के योगदान को 4.75 प्रतिशत से घटा कर 3.25 प्रतिशत कर दिया गया है और मज़दूरों के योगदान को 1.75 प्रतिशत से घटा कर 0.75 प्रतिशत कर दिया गया है। इसकी सफाई में सरकार ने कहा है कि इससे मज़दूरों के घर ले जाने वाले वेतन मे बढ़ोतरी होगी, कंपनियों में वित्तीय स्थिरता आयेगी और ई.एस.आई.सी. योजना में और भी कंपनियां जुड़ जायेंगी। अगर हम सरकार के क़दम को मज़दूरों के नज़रिये से देंखे, जिनके लिये यह योजना बनाई गयी है, तो यह साफ़ है कि सरकार के क़दम मज़दूरों के हित में नहीं हैं।

ई.एस.आई.सी. योजना में संगठित क्षेत्र के वे कर्मचारी आते हैं जिनका मासिक वेतन 21,000 रुपये तक होता है। इसके तहत बीमे में ओपीडी सेवा, दवाएं व विशेषज्ञ इलाज सहित समग्र स्वास्थ्य सेवाएं शामिल हैं। विकलांगता मुआवज़ा, लंबे अरसे की बीमारियां, महिलाओं के लिये मातृत्व सुविधा व अन्य कई सेवाएं भी इसमें शामिल हैं। ई.एस.आई.सी. की 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, इसके तहत 3 करोड़ 43 लाख मज़दूरों का बीमा है। बीमे में करीब 10 करोड़ परिजनों के लिये भी स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं। इस वित्त वर्ष में ई.एस.आई.सी. को 20,000 करोड़ रुपयों से ज्यादा अंशदान मिला और स्वास्थ्य सेवा पर 8,000 करोड़ रुपयों का खर्च हुआ। कुल जमाराशि से कुल खर्च निकालने के बाद करीब 14,320 करोड़ रुपयों की अतिरिक्त राशि जमा हुई।

अतः हम देख सकते हैं कि संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिये यह बहुत ही महत्वपूर्ण योजना है। वित्तीय तौर पर यह यह मजबूत है और इसके पास बहुत बड़ी जमापूंजी है। लेकिन लाभार्थियों के मुकाबले इसकी सुविधाएं बहुत ही कम हैं। मोटे तौर पर देखें तो इलाज के लिये सबसे पहले मज़दूरों को डिस्पेंसरी जाना होता है जिनकी संख्या देशभर में करीब 1500 है। चूंकि कुल मिलाकर 13 करोड़ से भी अधिक लोग इनमें इलाज करवाने के हकदार हैं। अतः औसतन एक डिस्पेंसरी के लिये 86,000 लोगों का उपचार अपेक्षित हैं। यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि सुविधाओं में अत्याधिक कमी है।

जिन मज़दूरों ने इस योजना के तहत इलाज कराने की कोशिश की है वे जानते हैं कि उन्हें पूरे-पूरे दिन डिस्पेंसरी में बिताना पड़ता है। पहले पंजीकरण के लिये लाइन में लगना पड़ता है और ओपीडी पर्ची बनवानी पड़ती है। फिर डॉक्टर से दवा लिखवाने के लिये लंबा इंतजार करना पड़ता है। डॉक्टरों की संख्या में भारी कमी के कारण, अक्सर ऐसा भी होता है कि उसका नंबर आने तक डॉक्टर उपलब्ध नहीं होता तब उसे लंबा इंतजार करना पड़ता है। अंत में उन्हें दवाइयों की लाइन में लगना पड़ता है। अक्सर डॉक्टर द्वारा लिखी दवा वहां उपलब्ध नहीं होती है और उसे बाद में आने के लिये कहा जाता है।

ई.एस.आई.सी. सुविधा प्राप्त करने में मज़दूरों को बहुत निराशा का सामना करना पड़ता है और बहुत से मज़दूरों ने इसकी डिस्पेंसरी में जाना ही बंद कर दिया है। मज़दूर चाहते हैं कि इस योजना के तहत और ज्यादा डिस्पेंसरियां हों, ज्यादा डॉक्टर हों, सुविधाओं का बेहतरीन प्रबंधन हो ताकि कम समय में उनका इलाज हो सके। इसका मतलब है कि मज़दूरों का हित सुविधाओं को कई गुना बढ़ाने में है।

ई.एस.आई.सी. के पास उपलब्ध जमाराशि का इस्तेमाल यहां पर सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिये किया जाना चाहिये। परन्तु सरकार जो कर रही है, उससे लगता है कि वह मज़दूरों को ये सुविधा प्रदान करने की अपनी ज़िम्मेदारी ही त्याग देना चाहती है, जिसके लिये मज़दूरों व मालिकों ने योगदान दिया है।

गौरतलब है कि, जब 1 जनवरी, 2017 से इस योजना के हकदार मज़दूरों के वेतन की सीमा को 15,000 रुपये प्रतिमाह से बढ़ाकर 21,000 रुपये प्रतिमाह किया गया था, उसके बाद ई.एस.आई.सी. बीमा धारकों की संख्या तेज़ी से बढ़ी थी। इससे ई.एस.आई.सी. की जमाराशि भी तेज़ी से बढ़ी। जाहिर है कि इसका इस्तेमाल नयी डिस्पेसरियां खोलने के लिये और डॉक्टरों व सहायकों को अच्छे वेतन से ई.एस.आई.सी. में नियुक्त करने के लिये किया जाना चाहिये था।

योगदान को 6.5 प्रतिशत से कम करके 4 प्रतिशत करने से, यानी कि एक-तिहाई कम करने से, फिर बीमाधारकों की संख्या में उछाल आयेगी क्योंकि और भी अधिक कंपनियां इस योजना से जुड़ने की इच्छुक होंगी। परन्तु इससे मज़दूरों के लिये नयी सुविधाएं बनाने के लिये धनराशि कम होने लगेगी। सुविधाएं और भी ज्यादा दबाव में आयेंगी और वास्तव में मज़दूरों के किसी काम की नहीं रह जायेंगी। यह दिखाता है कि सरकार मज़दूरों के हितों के खि़लाफ़ काम कर रही है।

ई.एस.आई.सी. के बारे में केन्द्र सरकार के इन क़दमों के पीछे एक और कपटी उद्देश्य लगता है। बहुत से दूसरे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को बीमार बनाना ताकि उन्हें निजी पूंजीपतियों के हाथों में सौंप दिया जा सके की नीति को मद्देनज़र रखते हुए, यह भी संभव लगता है कि सरकार सुनियोजित तरीके से ई.एस.आई.सी. को वित्तीय तौर पर बर्बाद करना चाहती है। फिर इस योजना के निकम्मेपन से त्रस्त मज़दूरों के गुस्से और ई.एस.आई.सी. के वित्तीय दिवालियेपन पर ध्यान दिलाते हुए, सरकार हजारों डिस्पेंसरियों व सैंकड़ों हस्पतालों को निजी हाथों में सौंपने की वकालत करेगी। इस तरह मेहनतकश लोगों के लिये बनाए गये एक और संस्थान को बर्बाद किया जायेगा। और इसकी बहुमूल्य ज़मीन, इमारतों व अन्य सम्पत्ति को निजी पूंजीपतियों के हवाले किया जायेगा।

ई.एस.आई.सी. के प्रति सरकार की नीति, एक बार फिर दिखलाती है कि हिन्दोस्तानी राज्य बहुसंख्यक मेहनतकश लोगों के हितों की बली चढ़ाकर, मुट्ठीभर शोषकों के हितों को पूरा करता है। यह राज्य लोगों की एक ऐसे समाज की चाहत से बिल्कुल मेल नहीं खाता है जिसमें सभी की समृद्धि व सुरक्षा सुनिश्चित हो। लोगों को पूंजीपति वर्ग के इस राज्य के बारे में भ्रम में नहीं रहना चाहिये, बल्कि मज़दूरों व किसानों के एक नये राज्य के लिये संघर्ष करना चाहिये, जो सभी मेहनतकश लोगों की सुख व सुरक्षा सुनिश्चित करने की अनिवार्य शर्त है।

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