बैंकिंग व्यवस्था का गहराता संकट – कारण और समाधान

हाल ही में सामने आया बैंक घोटाला, जिसमें पंजाब नेशनल बैंक, हिन्दोस्तान के कई अन्य बैंकों तथा हीरों के व्यापारी नीरव मोदी और मेहुल चोकसी शामिल हैं। इसने बैंकिंग व्यवस्था के संकट को फिर से सार्वजनिक चर्चा के मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है।

हिन्दोस्तान का हुक्मरान वर्ग इस घोटाले का इस्तेमाल, जिसमें सार्वजनिक बैंक शामिल हैं, इस गलत और ख़तरनाक धारणा को आगे बढ़ाने के लिए कर रहा है कि सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण करना ही, इस बैंकिंग व्यवस्था को संकट से बाहर निकालने का एकमात्र रास्ता है।

हाल ही में सामने आया बैंक घोटाला, जिसमें पंजाब नेशनल बैंक, हिन्दोस्तान के कई अन्य बैंकों तथा हीरों के व्यापारी नीरव मोदी और मेहुल चोकसी शामिल हैं। इसने बैंकिंग व्यवस्था के संकट को फिर से सार्वजनिक चर्चा के मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है।

हिन्दोस्तान का हुक्मरान वर्ग इस घोटाले का इस्तेमाल, जिसमें सार्वजनिक बैंक शामिल हैं, इस गलत और ख़तरनाक धारणा को आगे बढ़ाने के लिए कर रहा है कि सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण करना ही, इस बैंकिंग व्यवस्था को संकट से बाहर निकालने का एकमात्र रास्ता है। जहां तक मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी का सवाल है, उसके लिये समस्या यह है कि कोई भी बैंक वह कार्य नहीं कर रहे हैं, जिसकी मेहनतकश लोग उनसे उम्मीद करते हैं – चाहे सार्वजनिक बैंक हों या निजी क्षेत्र के बैंक हों। ये बैंक उनके पास जमा किये गए मेहनतकश लोगों की मेहनत की कमाई की हिफ़ाज़त नहीं करते हैं। इसके ठीक विपरीत ये बैंक लोगों की जमापूंजी को पूंजीपति मुनाफ़ाखोरों के हाथों लूटाने के लिए उनके साथ सांठ-गांठ करते हैं।

NPA Bank_2008
NPA2015

आइये हम, पंजाब नेशनल बैंक (पी.एन.बी.) घोटाले के बारे में तथ्यों की जांच करें। पिछले कुछ वर्षों में हिन्दोस्तानी बैंकों की विदेशी शाखाओं ने मोदी और चोकसी की हीरों की कंपनियों को बार-बार विदेशी मुद्रा में बड़ी रकम का कर्ज़ा दिया है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि कर्जे़ की कुल रकम 11,400 करोड़ रुपये है। यह कर्ज़ा उनको 293 (लैटर ऑफ अंडरटेकिंग) के आधार पर दिया गया है जिसे पी.एन.बी. द्वारा पिछले कई वर्षों के दौरान जारी किया गया था।

नीरव मोदी और मेहुल चोकसी को यह कर्ज़ा हीरों का तथाकथित आयात के लिए दिया गया था। लेकिन हीरों के आयात की कीमत को बढ़ाकर दिखाया, जिससे मोदी और चोकसी ने काले धन को सफेद में बदलने का काम किया। ऐसा शक है कि कर्जे़ पर ली गयी रकम के अच्छे खासे हिस्से का इस्तेमाल हीरों के आयात के लिए नहीं बल्कि किसी और काम के लिए किया गया है। 

इतने बड़े पैमाने पर कई बैंकों से बार-बार कर्ज़ा मिलना, यह बैंकों और हिन्दोस्तान की सरकार में उच्च पदों पर बैठे लोगों की जानकारी और सहमति के बगैर हो ही नहीं सकता। इसके बावजूद केवल कुछ सेवानिवृत्त और कार्यरत बैंक कर्मचारियों को गिरफ्तार किया गया है और ऊंचे पद पर बैठे किसी भी अधिकारी को गिरफ्तार नहीं किया गया है।

हिन्दोस्तान की सरकार यह झूठ फैला रही है कि यह घोटाला केवल एक गलती है, एक अपवाद है। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर लगातार बैंकों के डूबते कर्ज़ों के रूप में लालची पूंजीपतियों द्वारा लोगों की जमा-पूंजी की लूट से यही नज़र आता है कि यह कोई अपवाद नहीं बल्कि लोगों को लूटने का एक आम तरीका है।

केंद्रीय मंत्रीमंडल ने भगोड़ा आर्थिक अपराध विधेयक को संसद में पेश करने की मंजूरी दी है। इस विधेयक के मुताबिक जो कोई आर्थिक अपराधी देश से भाग जाता है तो सरकार उसकी ज़ायदाद को ज़ब्त कर सकती है और उसे बेच सकती है। इसके अलावा सरकार ने एक राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग प्राधिकरण का गठन करने का ऐलान किया है। यह नया प्राधिकरण चार्टेड अकाउंटेंटों के कार्य की निगरानी करेगा, जो बड़ी-बड़ी निजी और सरकारी पूंजीवादी कंपनियों सहित बैंकों के लेखे-जोखे की ऑडिटिंग करते हैं।

हिन्दोस्तान की सरकार लोगों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रही है कि समस्या पूरी बैंकिंग व्यवस्था में नहीं है बल्कि कुछ लुटेरे पूंजीपतियों में और कुछ बैंकों की ऑडिटिंग प्रणाली में है। सरकार लोगों को यह भी विश्वास दिलाने की कोशिश कर रही है कि वह उन लोगों को पकड़ने के लिए बेहद गंभीरता से पीछे लगी हुई है। जो हिन्दोस्तानी लोगों की लाखों-करोड़ों की जमा-पूंजी को लूटकर देश से भाग गए हैं। लेकिन असलियत तो यह है कि हिन्दोस्तान की सरकार ने ही इन भगोड़ों को देश से भागने का मौका दिया है।

इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि माल्या, मोदी और चोकसी द्वारा लूटी गयी रकम, उस रकम का केवल 2-3 प्रतिशत ही है, जिसे पिछले कई दशकों में पूंजीपतियों ने बैंकों से लेकर डुबाया है और अब पूंजीपति उसे वापस नहीं कर रहे हैं।

पिछले कई वर्षों से पूंजीवादी कंपनियां व्यवसायिक बैंकों से बड़े पैमाने पर कर्जे़ ले रही हैं, जिनका मूलधन और ब्याज अदा नहीं कर रही हैं। यह समस्या कई वर्षों तक छुपी रही, लेकिन हाल ही में रिज़र्व बैंक ने सभी व्यवसायिक बैंकों को अपनी “गैर-निष्पादित संपत्ति (एन.पी.ए.)”, या डूबंत कर्ज़ों का खुलासा अपने वित्तीय बही-खतों में करने का आदेश दिया है। 

अब पता चला है कि पिछले 10 वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और निजी बैंकों के 4 लाख करोड़ के एन.पी.ए. को माफ़ कर दिया गया है। इसके दुगने से अधिक रकम पर अभी फैसला नहीं हुआ है। बकाया एन.पी,ए. की सही मात्रा का प्रमाण बदलता रहता है क्योंकि कुछ कर्ज़ों को “पुनर्गठित” किया जाता है और वे एन.पी.ए. नहीं कहलाते। उदाहरण के लिए 2014 में रिज़र्व बैंक ने एक आदेश जारी किया जिसके मुताबिक ढांचागत परियोजनाओं के लिए दिए गए कर्ज़ों की रकम की अवधि को 5 वर्ष से बढ़ाकर 25 वर्ष कर दिया गया है। इस तरह की जोड़-तोड़ के बावजूद ऐसा अनुमान है कि एन.पी.ए. की बकाया रकम 8 लाख से 10 लाख करोड़ के आस-पास होगी।

इतनी बड़ी रकम को देखते हुए यह जाहिर है कि यह समस्या केवल कुछ गलत लोगों तक सीमित नहीं है, जैसा कि सरकारी प्रचार दावा करता है। और न ही यह केवल सार्वजनिक बैंकों की खास समस्या है। असली समस्या यह है कि पूरी बैंकिंग व्यवस्था और पूरा राज्य इन बड़े इजारेदार पूंजीपतियों की सेवा में काम करता है और हर हाल में अधिकतम मुनाफे़ की उनकी भूख को मिटाने का काम करता है फिर वे तरीके चाहे कानूनी हों या गैर-कानूनी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

राज्य इजारेदार पूंजीवाद

हमारे देश में जो व्यवस्था है, वह राज्य इजारेदार पूंजीवाद है। इस व्यवस्था में 150 बड़े पूंजीवादी इजारेदार घराने पूरे राज्य पर नियंत्रण करते हैं और विधानपालिका – संसद और विधानसभाओं में बैठी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को पैसा देते हैं। यह राज्य इजारेदार घरानों के हितों में काम करता है, लेकिन खुद को लोगों के हितों के रखवाले के रूप में पेश करता है।  

इन बड़े इजारेदार घरानों के नुमाइंदे, सार्वजनिक और निजी बैंकों के निदेशक मंडलों में बैठते हैं। वे रिज़र्व बैंक के निदेशक मंडल में भी बैठते हैं। तथाकथित रूप से आज़ाद कहे जाने वाले निदेशक भी किसी न किसी इजारेदार समूह के वफ़ादार एजेंट होते हैं। वरिष्ठ सरकारी अधिकारी और नौकरशाह जो इन बैंकों के निदेशक मंडल में होते हैं उनको सेवानिवृत्ति के बाद इन्हीं पूंजीवादी इजारेदार घरानों की कंपनियों में आकर्षक पद उपहार के रूप में दिए जाते हैं।

जब किसान या छोटे उत्पादक बैंक के पास कर्ज़ा लेने के लिए जाते हैं तो उन्हें सैकड़ों चक्कर लगाने पड़ते हैं। उनको बैंकों से कर्ज़ लेने की एवज में अपनी संपत्ति को गिरवी रखना पड़ता है और यदि वे समय पर अपना कर्ज़ा वापस नहीं करते हैं तो उनको अपनी संपत्ति से हाथ धोना पड़ता है।

लेकिन जब टाटा, बिरला, रिलायंस या अन्य पूंजीवादी इजारेदार घराने बैंक से कर्ज़ की मांग करते हैं तो बैंक के मुखिया की अगुवाई में वरिष्ठ अधिकारियों की टीम उनको सलाम करती है और उनका स्वागत करती है। इन इजारेदार पूंजीपतियों के लिये कोई संपत्ति गिरवी रखे, बगैर कर्ज़ का इंतजाम किया जाता है।

जब इन बड़ी इजारेदार कंपनियों की परियोजना मोटा मुनाफ़ा कमाती है तो ये कंपनियां बैंक से लिया गया कर्ज़ा वापस करती हैं और बाकी की रकम अपनी तिजोरी में डाल देती हैं। लेकिन जब मुनाफ़ा कम होता है या नुकसान हो जाता है तो ये कंपनियां कर्ज़ा वापस करने से इंकार कर देती हैं और दावा करती हैं कि उनको घाटा हो गया है। कुछ बहुत ही बड़े कर्ज़ों को पुनर्गठित कर दिया जाता है या माफ़ कर दिया जाता है। सरकार बैंकों के “पुनः मुद्रीकरण” के लिए सरकारी खजाने से पैसा निकालती है और इस नुकसान का पूरा बोझ लोगों के कंधों पर लाद देती है।

संक्षिप्त में कहा जाए तो एन.पी.ए. की समस्या की जड़ इजारेदार पूंजीवादी व्यवस्था में निहित है, जहां बैंक पूंजीवादी लूट बढ़ाने का माध्यम बन जाते हैं। पिछले कुछ दशकों से यह समस्या और अधिक गंभीर हो गई है क्योंकि भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के झंडे तले राज्य ने अधिकतम पूंजीवादी लूट के लिए सारे दरवाजे़ खोल दिए हैं। सभी व्यवसायिक बैंकों पर दबाव डाला जा रहा है कि वे जितना संभव हो सके उतनी तेज़ी से कर्जे़ दें और अधिकतम मुनाफ़े की दर हासिल करने की होड़ में लग जाएं। तमाम तरीकों से सट्टेबाजी करके मुनाफ़े बनाने लिए इजारेदार पूंजीपतियों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग को बड़े पैमाने पर कर्ज़ा दिया गया है।

सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण का कोई औचित्य नहीं है

आर्थिक भगोड़ों को पकड़ने के लिए कानून बनाने और ऑडिट कार्य प्रणाली को मजबूत करने के नाटक के साथ-साथ हिन्दोस्तान की सरकार यह झूठा प्रचार चला रही है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भ्रष्ट हैं और उनका निजीकरण करने से यह समस्या हल हो जाएगी।

एन.पी.ए. की समस्या केवल सार्वजनिक बैंकों तक सीमित नहीं है। 2008 में हिन्दोस्तान के निजी बैंक बकाया कर्ज़ो के अनुपात में एन.पी.ए. के मामले में सबसे ऊपर थे (तालिका-1)। वर्ष 2015 तक सरकार ने निजी बैंकों के एन.पी.ए. का बोझ सार्वजनिक बैंकों पर डालने में मदद की। अब सार्वजनिक बैंक बकाया कर्ज़ो के अनुपात में एन.पी.ए. के मामले में सबसे ऊपर हैं। (तालिका-2)

निजी बैंकों के एन.पी.ए. का बोझ सार्वजनिक बैंकों के कन्धों पर डालने की सुनियोजित योजना को बारी-बारी से सत्ता में आई सभी केंद्र सरकारों ने लागू किया है। इस योजना का मकसद है कुछ सार्वजनिक बैंकों को दिवालिया बनाना ताकि उनका निजीकरण किया जा सके।

अंतर्राष्ट्रीय अनुभव यह दिखाता है कि बैंकों के निजीकरण से समय-समय पर होने वाले संकट का हल नहीं होगा। 2008 में शुरू हुआ वैश्विक संकट दरअसल अमरीका में निजी बैंकों और वित्त संस्थानों की कार्यवाहियों की वजह से ही फूट पड़ा था। सभी पूंजीवादी देशों में जहां निजी बैंक हैं वहां सबसे बड़े पूंजीपति कर्ज़दारों और सबसे बड़े बैंकों के मुखियाओं के बीच करीबी के संबंध होते हैं। बंद दरवाज़ों के पीछे बड़े-बड़े सौदे किये जाते हैं। निजी बैंक लोगों की जमा-पूंजी से सट्टा खेलते हैं और जब ये बैंक डूबने लगते हैं, तो राज्य इनको बचाने के लिए सार्वजनिक खजाने से पैसा खर्च करता है और यह तर्क देता है कि “ये बहुत बड़े बैंक हैं और इनको डूबने नहीं दिया जा सकता”।

हमारे देश में सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण की मांग के पीछे असली मकसद है बैंकों की सभी कार्यवाहियों से इजारेदार पूंजीपतियों की अधिकतम मुनाफे़ की भूख को पूरा करना। पूंजीवादी इजारेदार घराने हिन्दोस्तान में बैंकिंग व्यवसाय से होने वाले बेशुमार मुनाफे़ को हथियाने के मौके का इतंजार कर रहे हैं।

दशकों पहले राज्य ने बड़े पूंजीपतियों के हितों की सेवा के लिए सार्वजनिक बैंकिंग व्यवस्था का निर्माण किया और उसमें निवेश किया। ऐसा करने से पूंजीपतियों के लिए एक घरेलू बाज़ार का निर्माण करने और लोगों की जमा-पूंजी को वित्त पूंजी में बदलने में सहायता मिली। लेकिन अब बड़े पूंजीवादी इजारेदार घराने इन बैंकों को खुद चलाना चाहते हैं ताकि वित्तीय दलाली से मोटे मुनाफ़े कमा सकें। निजीकरण का यही असली मकसद है, हालांकि दिखाया इस तरह जा रहा है कि यह सब बैंकिंग व्यवस्था की समस्या को हल करने के लिए किया जा रहा है।

असली समाधान

इस समस्या का असली समाधान है इजारेदार पूंजीपतियों की लालच को पूरा करने के बजाय, पूरी बैंकिंग व्यवस्था और अर्थव्यवस्था को लोगों की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में मोड़ दिया जाये। यह बेहद ज़रूरी है कि बैंकिंग सहित बड़े पैमाने पर उत्पादन और विनियम के सभी साधनों को, इजारेदार पूंजीपतियों के हाथों से छीनकर सामाजिक मालिकी और नियंत्रण के तहत लाया जाये। ऐसा करने से बैंकों से कर्ज़ों का वितरण इजारेदार पूंजीपतियों और उनके नुमाइंदों के मुनाफ़ों की गिनती के आधार पर नहीं किया जायेगा बल्कि एक व्यापक आर्थिक योजना के आधार पर किया जायेगा।

इस क्रांतिकारी परिवर्तन को लागू करने के लिए मज़दूर वर्ग को किसानों और सभी दबे-कुचले लोगों के साथ गठबंधन बनाकर राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में लेनी होगी। तभी अर्थव्यवस्था की दिशा को मोड़ा जा सकेगा। तब जाकर सभी के लिए सुरक्षित रोज़गार और समृद्धि की गारंटी दी जा सकेगी। तब जाकर शोषण से मुक्त और अपने हाथों में राजनीतिक सत्ता के साथ मेहनतकश लोग सार्वजनिक संपत्ति और लोगों की जमा-पूंजी को लुटने से बचा पायेंगे।

इस उत्तेजक नज़रिये के साथ मज़दूर वर्ग को एकजुट होना होगा और बैंकों के निजीकरण के ख़िलाफ़ और इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा तमाम तरीके से की जा रही लूट के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष को तेज़ करना होगा। हम सभी को लोगों की जमा-पूंजी की सुरक्षा के अधिकार की हिफ़ाज़त में एकजुट होना होगा।

हिन्दोस्तान में बैंकिंग व्यवस्था का क्रमिक विकास

हिन्दोस्तान में आधुनिक व्यवसायिक बैंकों की स्थापना 19वीं सदी में बर्तानवी हिन्दोस्तान में हुई। 1809 में बैंक ऑफ बंगाल, 1840 में बैंक ऑफ बॉम्बे और 1848 में बैंक ऑफ मद्रास की स्थापना हुई। आगे चलकर इन तीनों बैंकों का विलय करके इम्पीरियल बैंक बनाया गया। 1955 में इस बैंक का राष्ट्रीयकरण किया गया और उसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का नाम दिया गया।

1935 में रिज़र्व बैंक को केंद्रीय मुद्रा के संचालक और बैंकों के नियामक के रूप में स्थापित किया गया। इसके बाद कई प्रमुख निजी बैंकों की स्थापना की गयी जैसे – पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ इंडिया, केनरा बैंक और इंडियन बैंक। रिज़र्व बैंक जिसकी स्थापना पहले एक निजी शेयर होल्डर बैंक के रूप में की गयी थी, 1949 में उसका राष्ट्रीयकरण किया गया।

1947 और 1955 के बीच 361 निजी बैंक डूब गए। जिन लोगों ने इन बैंकों में अपनी जमा-पूंजी रखी थी उनका सारा पैसा डूब गया।

1960 के दशक में केवल एक सार्वजनिक बैंक था (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया) और कई निजी बैंक थे जिनके मालिक निजी पूंजीपति थे। घरेलू बचत का बहुत ही छोटा हिस्सा बैंकों में जमा किया जाता था। बैंक केवल पूंजीपतियों को ही अधिकांश कर्ज़ा देते थे। 1967 में बैंकों से कृषि को मिलने वाले कर्ज़ का अनुपात केवल 2.2 प्रतिशत था।

इजारेदार घरानों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग ने इस बात को समझा कि पूंजीवाद के विकास के लिए देशभर के ग्रामीण इलाकों में बैंकों का नेटवर्क फैलाने की ज़रूरत है। पूंजीवादी खेती के लिए कर्जे़ देने की ज़रूरत थी और साथ ही साथ ग्रामीण इलाकों की घरेलू बचत को एक जगह लाकर उसे वित्त पूंजी में परिवर्तित करने की भी ज़रूरत थी। निजी बैंकों को ग्रामीण इलाकों में अपनी शाखाएं खोलने में निवेश करने में न तो दिलचस्पी थी और न ही उनकी इतनी क्षमता।

1969 में 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। 1980 में छः और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। इंदिरा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी ने इसे तथाकथित तौर पर समाजवादी कदम बताया। लेकिन बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पूंजीवाद का और अधिक विकास हुआ और पूंजीवादी इजारेदार घरानों के पास बेशुमार दौलत इकट्ठी हो गयी। सार्वजनिक बैंकों के ज़रिये उनके पास देश के सभी लोगों की पूरी बचत पर नियंत्रण हासिल हो गया।

1990 के दशक की शुरुआत से बैंकिंग क्षेत्र के निजीकरण की ओर धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित तौर से कदम बढ़ाये जा रहे हैं। सबसे पहले निजी कंपनियों को बैंकिंग क्षेत्र में प्रवेश करने और उसका विस्तार करने की इजाज़त दी गयी। उसके बाद वैश्विक प्रतिस्पर्धा के नाम पर सभी सार्वजनिक बैंकों पर आउट-सोर्सिंग करने और अपने मज़दूरों का शोषण बढ़ाने के लिए दबाव डाला जाने लगा। तीसरा, सार्वजनिक बैंकों पर अतिरिक्त ज़िम्मेदारियों का बोझ डाला गया ताकि कुछ बैंक डूब जायें और उनके निजीकरण के लिए ज़मीन तैयार की जाए। यह पूरी प्रक्रिया इस पड़ाव पर पहुंच गयी है कि अब खुलकर बड़े ज़ोर-शोर से सार्वजनिक बैंकों की संख्या कम करने और निजी बैंकों के विस्तार के लिए अधिक आयाम खोलने के बात की जा रही है।

 

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