भाजपा सरकार और कांग्रेस की परंपरा

भाजपा कांग्रेस से किस बात में अलग है? वह कांग्रेस व संयुक्त मोर्चा की “मानव चेहरे के साथ उदारीकरण” की नीति की आलोचना करती है, परन्तु खुद “स्वदेशी चेहरे केसाथ निजीकरण व उदारीकरण” की हिमायत करती है। वह धर्मनिरपेक्षतावाद का मंत्र पढ़ते हुये धर्म के आधार पर लोगों को बांटने की कांग्रेस की झूठी धर्मनिरपेक्षता की परम्परा की आलोचना करती है। पर भाजपा हिन्दु राष्ट्रवाद का मंत्र पढ़ते हुये अपने ही तरीके से धर्म के आधार पर लोगों को बांटने की नीति अपना रही है। विचारधारात्मक क्षेत्र में भाजपा का यह दावा है कि वे नेहरू व उनके वारिसों की इंडियन नैशनल कांग्रेस की यूरोपीय परम्पराओं से नाता तोड़ेंगे। लेकिन कैसे, यह नहीं बताया गया है।

1996 और फिर 1998 में कांग्रेस द्वारा जीते गये संसदीय सीटों की संख्या का घट जाना यह दिखाता है कि लोग एक प्रकार की राजनीतिक परंपरा से तंग आ चुके हैं। यह परंपरा है कि पहले अधिकतम लोग जो कुछ चाहते हैं उसके वायदे करो और फिर बाद में बड़े सरमायदारों के हितों की सेवा करो। यह सोशल डेमोक्रेसी की यूरोपीय विचारधारा और राजनीति में बस्तीवादी प्रशिक्षण की पैदाइश है। यह परंपरा पहले हिन्दोस्तान में कांग्रेस पार्टी की थी, पर अब दूसरी पार्टियां भी इसी रास्ते पर चल रही हैं। 1998में चुनावों में भजपा की कुछ ज्यादा जीत हुई है, जो यह दिखाता है कि यह पार्टी अपने आप को अलग तथा कांग्रेस परम्परा से नाता तोड़ने वाली पार्टी के रूप में कुछ ज्यादा हद तक पेश कर पायी है।

भाजपा कांग्रेस से किस बात में अलग है? वह कांग्रेस व संयुक्त मोर्चा की “मानव चेहरे के साथ उदारीकरण” की नीति की आलोचना करती है, परन्तु खुद “स्वदेशी चेहरे केसाथ निजीकरण व उदारीकरण” की हिमायत करती है। वह धर्मनिरपेक्षतावाद का मंत्र पढ़ते हुये धर्म के आधार पर लोगों को बांटने की कांग्रेस की झूठी धर्मनिरपेक्षता की परम्परा की आलोचना करती है। पर भाजपा हिन्दु राष्ट्रवाद का मंत्र पढ़ते हुये अपने ही तरीके से धर्म के आधार पर लोगों को बांटने की नीति अपना रही है। विचारधारात्मक क्षेत्र में भाजपा का यह दावा है कि वे नेहरू व उनके वारिसों की इंडियन नैशनल कांग्रेस की यूरोपीय परम्पराओं से नाता तोड़ेंगे। लेकिन कैसे, यह नहीं बताया गया है।

अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी तर्क कि उदारीकरण और निजीकरण का कोई विकल्प नहीं है, इसे मान लेने में क्या हिन्दोस्तानियत है? अगर भाजपा कहती है कि वे हिन्दोस्तानी विचारों का पुनर्जागरण करेगी, तो आर्थिक विचारों में पश्चिमी परम्पराओं को स्वीकार करना कैसे उचित ठहराया जा सकता है? ऋगवेद के समय से हिन्दोस्तानी लोगों ने आर्थिक विचारों पर काफी कुछ लिखा है। इन सब का अध्ययन व विश्लेषण किये बिना श्री वाजपयी खुले बाजार के सुधारों की विश्वव्यापी नीति को दोहरा रहे हैं, ठीक नरसिंह राव की तरह, जो हिन्दोस्तान में आजकल हो रहे आर्थिक सुधारों को जन्म देने वाले माने जाते हैं।

जो समाज शत्रुतापूर्ण वर्गों के बीच में बंटा हुआ है, जहां चंद शोषक अधिकतम जनसमुदाय पर अत्याचार करते हैं, वहां किसी राजनीतिक पार्टी की क्या भूमिका है? या तो वह मौजूदे हालातों को बरकरार रख सकती है, शोषण और अत्याचार की व्यवस्था को बचाये रख सकती है। अगर वह ऐसा करती है तो वह कांग्रेस की परम्परा को ही चलायेगी, बेशक थोड़ा इधर-उधर बदल कर। या फिर, वह हालातों को बदलने के लिये दबे कुचले जनसमुदाय को संगठित करने की भूमिका अदा कर सकती है। अगर वह ऐसा करती है तो उसे कांग्रेस की परम्परा और पूरे बस्तीवादी बोझ से नाता तोड़ना होगा।

मजदूर वर्ग और मेहनतकश हिन्दोस्तान की किसी भी राजनीतिक पार्टी को इसी आधार पर परख सकते हैं कि क्या वह कांग्रेस की परम्परा और बस्तीवादी विरासत को बरकरार रखती है या उससे नाता तोड़ती है? भाजपा को भी इसी आधार पर परखा जायेगा।

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