खाद्य पदार्थों की मुद्रा स्फीति: कीमतें इतनी ज्यादा क्यों हैं और इस समस्या का समाधान क्या है?

पिछले करीब एक वर्ष में चावल,गेहूं, दाल, चीनी, अंडे, दूध, प्याज व आलू जैसे जरूरी खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि के कारण मज़दूर वर्ग व मेहनतकशों के परिवारों का जीवन असहनीय हो गया है। एक वर्ष पहले जो तेजी से महंगाई बढ़नी शुरू हुई, वह आज भी जारी है और मुद्रा स्फीति की दर 20प्रतिशत से भी अधिक हो गयी है। इसका मतलब है कि जो परिवार मासिक वेतन पाते हैं या सेवानिवृति पर निश्चित आय पाते हैं, उनकी

पिछले करीब एक वर्ष में चावल,गेहूं, दाल, चीनी, अंडे, दूध, प्याज व आलू जैसे जरूरी खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि के कारण मज़दूर वर्ग व मेहनतकशों के परिवारों का जीवन असहनीय हो गया है। एक वर्ष पहले जो तेजी से महंगाई बढ़नी शुरू हुई, वह आज भी जारी है और मुद्रा स्फीति की दर 20प्रतिशत से भी अधिक हो गयी है। इसका मतलब है कि जो परिवार मासिक वेतन पाते हैं या सेवानिवृति पर निश्चित आय पाते हैं, उनकी आय के मूल्य में डाका डाला गया है। यहां तक कि जिन मज़दूरों को 10से 15प्रतिशत वेतन वृद्धि मिली है, वे भी आज, खाद्य पदार्थों को खरीदने की क्षमता में पिछले वर्ष के मुकाबले गरीब हुये हैं।

मज़दूर वर्ग को, जो आज निरंतर बढ़ती खाद्य पदार्थों की कीमतों से जूझ रहा है, उसे समझना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है और इस गंभीर समस्या का समाधान कैसे हो सकता है। दाल, चावल, आलू, प्याज या तरकारियों में जुलाई 2009से बढ़ती कीमतों का सूखा या बाढ़, एक आंशिक कारण हो सकते हैं। यह इतने सारे खाद्य पदार्थों की लम्बे समय से बढ़ रही कीमतों को समझाने के लिये पर्याप्त नहीं है।

इसका मूल कारण अर्थ व्यवस्था में हावी पूंजीवादी उत्पादन संबंध हैं जिनमें कृषि उत्पादन तथा कृषि उत्पादों का व्यापार शामिल हैं।

खाद्य पदार्थों के उत्पादन में समस्यायें

अगर हम पिछले 15वर्षों के उत्पादन के आंकड़े जांचें और 2009-10व इसके आगे के खाद्य पदार्थों की मांग के अनुमानों की तुलना उत्पादन से करें तो हमें दिखेगा कि या तो उत्पादन मांग से थोड़ा कम है या थोड़ा ज्यादा। असलियत में बुनियादी खाद्य पदार्थों की मांग का अनुमान कम आंका गया है क्योंकि इस सच्चाई को नज़रअंदाज किया गया है कि अपने मेहनतकश लोगों में से एक बड़ा हिस्सा किसी तरह जी रहा है; वह पर्याप्त खाद्य पदार्थों से वंचित है व कुपोषित है। इसका अनुमान एक स्वस्थ आबादी के अनुसार नहीं लगाया गया है।

वस्तुओं के औद्योगिक उत्पादन के मुकाबले, कृषि उत्पादन में जरूरी सामाजिक श्रम में उतनी कमी नहीं हुई है जितनी औद्योगिक उत्पादन में। कृषि के एक सीमित क्षेत्र को छोड़ कर, जिसमें यंत्रों की मदद से बड़े तौर पर पूंजीवादी कृषि होती है, तकनीकी व वैज्ञानिक उपलब्धियों का प्रयोग होता है और कुछ सिंचाई की सुनिश्चिति है, बाकि सब कृषि क्षेत्रों में श्रम उत्पादकता में बहुत कम उन्नति हुई है।

जहां-जहां यंत्रों व श्रमिकों के आधार पर पूंजीवादी कृषि के इर्दगिर्द बहुत छोटी से छोटी भूमि वाली कृषि है, छोटे किसानों को उतने ही मूल्य के उत्पादन के लिये दुगना परिश्रम करना पड़ता है। इसका कारण है कि उन्हें अधिक उत्पादकता वाली खेती के साथ मुकाबला करना पड़ता है जो उत्पादों के मूल्य को नीचे गिराता है। इसके साथ, छोटे किसानों को अपने उत्पादों की बिक्री से उनके द्वारा उत्पादित मूल्य पाना भी सुनिश्चित नहीं होता क्योंकि बड़ी कंपनियां व थोक के व्यापारी अपने एकाधिकार से कृषि उत्पादों की कीमतें मूल्य से भी नीचे ढकेल देते हैं।

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अगर किसी क्षेत्र में कीमतें बढ़ती हैं तो वस्तुओं से मुनाफा भी बढ़ता है और उस क्षेत्र में पूंजी निवेश होता है। जब खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ती हैं तो यह तर्कसंगत है कि किसान उनका उत्पादन बढ़ाना चाहेंगे ताकि अनकी आय में वृद्धि हो। ऐसा उन किसानों के लिये संभव है जो अच्छी जमीन, सिंचाई व तकनीकी जानकारी से संपन्न होते हैं और पूंजी एक फसल से दूसरी ज्यादा फायदेमंद फसल लगाने के लिये लग जाती है (उदाहरण के लिये गन्ना, कपास व दूसरे व्यापार की फसलें)।

यहां भी किसानों की बर्बादी होती है जब अनिवार्य रूप से उस फसल की कीमत में गिरावट आती है। परन्तु दूसरी फसलों में जहां राज्य ने किसानों के लिये समर्थक कीमतें सुनिश्चित नहीं की हैं, जैसे कि दालों में, पूंजी निवेश नहीं हुआ है। समय बीतने पर भी दालों के उत्पादन की कमी कम नहीं हुयी है। पिछले दस वर्षों से दाल का वार्षिक उत्पादन करीब 150लाख टन पर ही अटका हुआ है। दाल की बढ़ती मांग पूरी करने के लिये आयात का सहारा लिया गया है। दालों का आयात 1998-99के 4.6लाख टन से बढ़ कर 2008-09में 20लाख टन से भी अधिक हो गया है।

खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि पर उत्पादक और अधिक गरीब

आम तौर पर, कीमतों में वृद्धि का लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है। एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में, वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि उनके उत्पादन की सघनता के अनुसार होती है – कम सघनता वाले उत्पादन की वस्तुओं के मुकाबले ज्यादा सघनता वाले उत्पादन की वस्तुओं के दाम ज्यादा बढ़ते हैं। अधिकतर किसानों के उत्पादन की परिस्थिति प्रतिकूल होती है क्योंकि वे बड़ी संख्या में अलग-अलग उत्पादक होते हैं न कि एकाधिकारी उत्पादक।

अपने उत्पाद के अनेक खरीदारों के साथ किसान व्यापार करते हैं। किसान जो मेहनत करके कृषि उत्पादन करते हैं, आम तौर पर, पैदा किये मूल्य का एक छोटा अंश ही पाते हैं। व्यापार में शोषण का स्तर व्यापार संबंध में असमानता के स्तर पर निर्भर करता है। याने कि कितने बड़े एकाधिकारी व्यापारी से किसान व्यापार करते हैं। इस संदर्भ में सार्वजनिक खरीदी व शहरी मेहनतकशों के लिये फुटकर सार्वजनिक वितरण की भूमिका कृषि उत्पादनकर्ताओं के लिये बहुत ही निर्णायक है।

पिछले कई दशकों में राज्य द्वारा खरीदी व समर्थन कीमतें देश के विभिन्न इलाकों में गेहूं, चावल व गन्ने के उत्पादन को बढ़ावा देने का एक महत्वपूर्ण कारक रही हैं। उदारीकरण लहर के पहले, 1980के दशक तक, उत्पादकों से सरकार गेहंू व चावल को न्यूनतम समर्थन कीमत पर खरीदती थी। परन्तु ऐसा दूसरी फसलों के लिये नहीं किया गया। अतः दालों व तिलहन के लिये न्यूनतम समर्थन कीमत नहीं दी गयी। चीनी के लिये भी ऐसा लगातार नहीं किया गया, अतः गन्ना उगाने वाले किसानों को उनकी फसल के लिये क्या मिलेगा, इस बात की सुनिश्चिति नहीं थी। सच्चाई तो है कि गेहूं व चावल के लिये भी न्यूनतम समर्थन कीमत पहले से घोषित नहीं की जाती थी; अतः किसान अपनी हर फसल का क्षेत्रफल ठीक से तय करने में असमर्थ रहते थे। इसका यह भी मतलब था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सिर्फ अन्न व चीनी ही मिलती थी तथा दूसरी जरूरी दालें इत्यादि शामिल नहीं थीं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत मेहनतकश जनता के पौष्टिक आहार की सभी जरूरतें पूरी नहीं की जाती थीं।

90के दशक के मध्य से, सरकार ने आम जनता के लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पूरी तरह खत्म करना शुरू किया। थोक व फुटकर व्यापार का अधिकाधिक उदारीकरण चल रहा है और आज 35प्रतिशत से भी कम व्यापार सार्वजनिक खरीदी व वितरण व्यवस्था से होता है। व्यापक सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बन्द करने व लक्षीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली शुरु करने के साथ सरकार द्वारा नियंत्रित भंडार में भारी गिरावट आयी है।

फुटकर व्यापार में बड़े निगमों के आने से थोक व फुटकर कीमतों के बीच का अंतर ज्यादा बढ़ गया है; रिपोर्टों के अनुसार पहले जो प्याज फुटकर में 10रु प्रति किलो मिलता था वह 18रु प्रति किलो हो गया है। हाल के महीनों में बड़े फुटकर व्यापारियों ने सूखे की संभावना और इसकी वजह से संभावित कमी का इस्तेमाल करके जमाखोरी की है। एक अनुमान के अनुसार, 2009में पैदा किये 310लाख टन आलू में से 180लाख टन देश के अलग-अलग हिस्सों के ठंडे गोदामों में जमा किया गया है, कीमतों के बढ़ने के इन्तज़ार में।

यह पूंजीवादी कानून है जिसके अनुसार हर निजी व्यापारी अपने मुनाफे को अधिकतम बनाने के लिये धंधा करता है और आपूर्ति व मांग के बीच की अनुमानित कमियों का पूरा फायदा उठाना चाहता है। रिलायंस व दूसरे बड़े मुनाफाखोर महंगाई से लाभ पाते हैं – और हिन्दोस्तानी सरकार सार्वजनिक वितरण द्वारा खाद्य पदार्थों की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये कुछ भी नहीं कर रही है।

मज़दूर वर्ग की मांग

पिछले दो वर्षों में जबकि अधिकांश मज़दूरों के वेतन जहां के तहां रहे हैं और बहुतों की नौकरियां चली गयी हैं, खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतें मज़दूर वर्ग को बहुत पीड़ा पहुंचा रही है।

मज़दूर सबसे आवश्यक वस्तुयें भी नहीं खरीद पा रहे हैं और भुखमरी व कुपोषण के शिकार बन रहे हैं। छोटे व मंझोले किसान बर्बाद हो रहे हैं क्योंकि कृषि से रोजी-रोटी सुनिश्चित नहीं हो रही है।

कृषि के विभिन्न उत्पाद देश के अलग-अलग कृषि मौसम क्षेत्रों के अनुसार पैदा होते हैं। कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जो लोगों के लिये जरूरी हर खाद्य पदार्थ में आत्मनिर्भर है। अतः खाद्य पदार्थों का यातायात जरूरी है – उत्पादकों से खरीद कर, देश के एक इलाके से दूसरे इलाके में पहुंचा कर और फुटकर में उपयुक्त कीमतों पर उपलब्ध कराना निहायत जरूरी है। इस काम को थोक व्यापारियों के हाथ, मुनाफे के स्रोत बतौर, नहीं छोड़ा जा सकता है।

अर्थव्यवस्था की दिशा पुनःनिर्धारित करने की आवश्यकता है ताकि यह मज़दूर वर्ग व मेहनतकश लोगों के हित में चल सके। ऐसी दिशा लागू करने के लिये न तो पूंजीपतियों की इच्छा है और न ही वे ऐसा करने में समर्थ हैं। उनका लक्ष्य तो सिर्फ मुनाफा अधिकतम करना है।

मज़दूर वर्ग को राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में लेनी होगी और खाद्य पदार्थों के व्यापार पर पूरा नियंत्रण स्थापित करना, उनके सबसे पहले कदमों में से एक होगा। अपने नियंत्रण के जरिये उन्हें इस व्यापार से मुनाफा खत्म करना होगा। आंतरिक थोक व्यापार व खाद्य पदार्थों का आयात-निर्यात सार्वजनिक नियंत्रण में करना होगा ताकि निजी बिचैलियों की भूमिका पूरी तरह खत्म की जा सके। एक बार सत्ता हासिल करने के बाद मज़दूर वर्ग को एक आधुनिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली का निर्माण करना होगा जो यह सुनिश्चित करेगी कि आम उपभोग की सभी जरूरी वस्तुयें – खाद्यान्न, खाने का तेल, दालें, तरकारियां आदि – पर्याप्त मात्रा, अच्छी गुणवत्ता तथा मेहनतकश लोगों के लिये उपयुक्त कीमतों में उपलब्ध हों।

एक बार राज्य व्यवस्था पाने के पश्चात, कृषि की उत्पादकता बढ़ाने के लिये मज़दूर वर्ग को किसानों की मदद करनी होगी। अलग-अलग फसलों की योजना बनानी होगी ताकि शहरों व गांवों के लोगों की बढ़ती जरूरतें पूरी की जा सकें।

वर्तमान में मज़दूर वर्ग को पूंजीपतियों की केन्द्र व राज्य सरकारों से तात्कालिक कार्यवाईयों की मांग पर जोर देना चाहिये कि 2010-11 के बजट में सभी टिकाऊ खाद्य पदार्थों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे में शामिल करने के लिये पर्याप्त बजट प्रावधान होना चाहिये। उन्हें मांग करनी चाहिये कि सरकार सभी असूचित भंडारों से खाद्य पदार्थ जप्त करे और उन्हें विस्तारित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये लोगों तक पहुंचाये ताकि मज़दूरों व मेहनतकशों को राहत मिले। लोगों के उपभोग के सभी जरूरी कृषि उपजों के लिये सरकार पर्याप्त समर्थन कीमतें दे ताकि उनका उत्पादन करने वाले किसानों का जीवनयापन सुनिश्चित हो। मज़दूर वर्ग की मांग होनी चाहिये कि सभी कृषि उत्पादों का थोक व्यापार निजी हाथों से लेकर सार्वजनिक नियंत्रण में लाया जाये ताकि मज़दूरों व किसानों, दोनों के हित की रक्षा हो सके।

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