निजीकरण के साथ कोई समझौता नहीं!
10 वर्ष पहले फरवरी, 2000 को माडर्न फूड्स इंडिया लिमिटेड (एम.एफ.आई.एल.) के मजदूरों ने संसद सत्र के पहले ही दिन एक बहादुर प्रदर्षन आयोजित किया था। एम.एफ.आई.एल. के मजदूर सरकार द्वारा इस सार्वजनिक कंपनी को हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड (एच.एल.एल.) नामक निजी बहुराष्ट्रीय कंपनी के हाथों बेचने का विरोध कर रहे थे। एम.एफ.आई.एल.
निजीकरण के साथ कोई समझौता नहीं!
10 वर्ष पहले फरवरी, 2000 को माडर्न फूड्स इंडिया लिमिटेड (एम.एफ.आई.एल.) के मजदूरों ने संसद सत्र के पहले ही दिन एक बहादुर प्रदर्षन आयोजित किया था। एम.एफ.आई.एल. के मजदूर सरकार द्वारा इस सार्वजनिक कंपनी को हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड (एच.एल.एल.) नामक निजी बहुराष्ट्रीय कंपनी के हाथों बेचने का विरोध कर रहे थे। एम.एफ.आई.एल. के मजदूरों के साथ में कानपुर के सैकड़ों कपड़ा मिल मजदूर भी शामिल हुए, जो अपनी मिलों के बंद किए जाने के खिलाफ़, मिलों को फिर से चालू किए जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। 10 वर्ष पहले मजदूरों का यह संयुक्त प्रदर्षन सरमायदारों के निजीकरण और उदारीकरण के कार्यक्रम के खिलाफ हिन्दोस्तानी मजदूर वर्ग के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मील पत्थर था। आज जब सरमायदार फिर एक बार राज्य की संपत्ति को निजी मालिकों के हाथों में देने की तैयारी कर रहा है, ऐसे हालातों में इस संघर्ष से सीखे गए सबकों का महत्व और भी बढ़ जाता है।
वाजपयी सरकार द्वारा माडर्न फूड्स इंडिया लिमिटेड और बाल्को (भारत एल्यूमिनियम कंपनी) को बेचने के साथ ही सरमायदारों के सुधार कार्यक्रम का तथाकथित दूसरा दौर शुरू हुआ। यह वह दौर था जब मजदूर वर्ग के कुछ तथाकथित नेता यह पूंजीवाद प्रचार दोहरा रहे थे कि निजीकरण का कोई विकल्प नहीं है, तथा “नुकसान में चलने वाली कंपनियों“ को बंद करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। मजदूर वर्ग के ये तथाकथित नेता मजदूरों को यह सलाह दे रहे थे कि बेहतर यही होगा कि मजदूर वी.आर.एस. के तहत कुछ रकम लेकर कंपनी छोड़ दें। तमाम संसदीय पार्टियों के ट्रेड यूनियन नेता यह राग अलाप रहे थे कि “आज के दौर में इतनी ही उम्मीद की जा सकती है“। इन मुष्किल हालातों में एम.एफ.आई.एल. के मजदूरों ने बड़ी बहादुरी के साथ निजीकरण के खिलाफ़ बिना समझौता संघर्ष करने का झंडा लहराया। इस संघर्ष ने कई अन्य कंपनियों और क्षेत्रों के मजदूरों की आँखे खोल दी।
कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की अगुवाई में एम.एफ.आई. एल. के मजदूरों ने यह सवाल उठाया कि कंपनी घाटे में क्यों चल रही है। उन्होंने पूछा “किसी समय मुनाफे बनाने वाली कंपनी को घाटे में चलने वाली कंपनी बनाने के लिए कौन जिम्मेदार है, और इसकी कीमत किनसे वसूली जानी चाहिये?“ सरमायदारों और उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों द्वारा लोगों को बेवकूफ बनाने की कोषिष का उन्होंने पर्दाफाष किया। तत्कालिन विनिवेष मंत्री अरूण जेटली ने जब बड़े हेकड़पन के साथ यह दावा किया कि “ब्रेड बनाना सरकार का काम नहीं है“, तब एम.एफ.आई.एल. के मजदूरों ने यह सवाल पूछा “तो फिर सरकार का काम क्या है – सिर्फ पूजीपतियों की सेवा करना?“
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के मुखपत्र मजदूर एकता लहर ने एम.एफ.आई.एल. के मजदूरों के संघर्ष के समर्थन में लगातार अभियान चलाया, और मजदूर यूनियनों, महिला संगठनों और मानव अधिकार संगठनों से समर्थन जुटाया। इस अभियान की वजह से निजीकरण के कार्यक्रम की हक़ीक़त का पर्दाफाष किया गया, कि यह कार्यक्रम केवल इज़ारेदार पूंजीपतियों की लालच को पूरा करने के लिये चलाया जा रहा है और इससे मजदूर वर्ग तथा समाज के हितों को नुकसान होगा। हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के मुखपत्र ने इस नारे को बुलंद किया कि किसी भी पार्टी को, सार्वजनिक संपत्ति को निजी कंपनियों को बेचने का कोई अधिकार नहीं है।
माडर्न फूड्स के मजदूरों के संघर्ष ने भारत अल्यूमिनियम कंपनी (बाल्को) और तमाम राज्यों के बिजली बोर्ड के मजदूरों को निजीकरण के कार्यक्रम के खिलाफ़ आंदोलन में षामिल होने के लिये प्रेरित किया। इससे संघर्ष और भी तेज हुआ। एम.एफ.आई.एल. के मजदूरों के संघर्ष के शुरू होने के तीन वर्ष बाद, मजदूर वर्ग के बीच निजीकरण कार्यक्रम के खिलाफ़ बढ़ती हुई एकता और लड़ाकू जज्बा फरवरी 2003 में हुई एक विशाल रैली में साफ नज़र आया।
मार्डन फूड इंडस्ट्रीज़ की सबसे बड़ी व जुझारू युनिट, एम.एफ.आई.एल. दिल्ली युनिट के मजदूरों ने लगातार 7 साल तक (जब तक एम.एफ.आई.एल. दिल्ली युनिट का अंतिम मजदूर काम से न निकाला गया) निजीकरण के खिलाफ़ संघर्ष किया। उन्होंने संसद पर प्रदर्शन किये, दिल्ली सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन किये, सांसदों को अपील की, इत्यादि। उन्होंने लगभग दो साल तक फैक्टरी के फाटक पर धरना दिया। इस संघर्ष की वजह से वाजपयी सरकार को एक प्रधानमंत्री की विशेष समिति गठित करनी पड़ी, यह पता करने के लिये कि एम.एफ.आई.एल. और बाल्को के निजीकरण का क्या असर पड़ा है। मजदूरों ने कमेटी के सामने सबूत पेश किया कि कैसे एच.एल.एल. मैनेजमेंट प्लांट और मशीनरी को नष्ट कर रहा था, ठेके पर ब्रेड बनवा रहा था, नियमित मजदूरों की जगह पर ठेके के मजदूरों से काम करवा रहा था, सभी श्रम कानूनों का हनन कर रहा था, इत्यादि। उन्होंने साबित किया कि एच.एल.एल. को सिर्फ माडर्न फूड के ब्रांड नाम में रुचि है और निजीकरण के सौदे की वजह से प्राप्त रियेल एस्टेट की विशाल कीमत में रुचि है।
जब निजीकरण के असर पर गठित समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, तब एम.एफ.आई.एल. के मजदूरों ने यह मांग की कि रिपोर्ट को संसद में रखा जाये और उस पर चर्चा की जाए। परंतु मनमोहन सिंह सरकार ने, जो उस समय वाम दलों के समर्थन के साथ सत्ता में आ चुकी थी, इस मांग को खारिज़ कर दी। एम.एफ.आई.एल. और बाल्को के निजीकरण को पलटने की मांग पर चुप्पी का पर्दा डालकर, संप्रग सरकार ने वाम दलों के समर्थन के साथ, निजीकरण और उदारीकरण को लागू करने का दूसरा रास्ता अपनाया, जिसका वही उद्देश्य था और जिसके जरिये मजदूर वर्ग को नींद की गोली खिला दी गई। एम.एफ.आई.एल. और बाल्को के मजदूरों के बहादुर संघर्ष की वजह से कुछ थोड़े समय के लिये उन सब मजदूरों को राहत मिली, जिन पर निजीकरण की तलवार लटक रही थी।
2003 में मजदूर वर्ग की इस विशाल रैली के बाद हुई घटनाओं का अगर जायजा लिया जाये तो हमें यह मानना होगा कि निजीकरण के खिलाफ़ संघर्ष उसके बाद कुछ ठंडा पड़ गया, खास तौर पर 2004 से 2009 के दौरान। यह वह दौर था जब संसद में बैठी वाम पार्टियों ने माकपा की अगुवाई में कांग्रेस नीत संप्रग सरकार को समर्थन दिया और यह वादा किया कि तथाकथित सांझा न्यूनतम कार्यक्रम पूंजीपतियों के साथ-साथ मजदूरों और किसानों के हितों की भी रखवाली करेगा। लेकिन हमारे जीवन के अनुभवों ने इस झूठ का पर्दाफाष किया है।
पूंजीवादी लालच के साथ-साथ मजदूरों की जरूरतें पूरी करना संभव है – इस वादे का पूरी तरह से पर्दाफाष हो चुका है। ऐसा करना असंभव है। मजदूर वर्ग को खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के साथ-साथ निर्यात प्रधान और अन्य क्षेत्र की कंपनियों में बडे़ पैमाने पर छंटनी और बेरोजगारी का सामना करना पड़ रहा है। जबकि हिन्दोस्तान के बडे़ पूंजीपति दुनिया की एक बड़ी साम्राज्यवादी ताकत बनने की कोषिष में, मोटे मुनाफे बना रहे हैं और विदेषों में कंपनियां खरीद रहे हैं।
पूंजीपति वर्ग की लालच को पूरा करते हुए मजदूर वर्ग की जरूरत पूरा करना संभव नहीं है। मजदूर वर्ग के महान वैज्ञानिक और शिक्षक कार्ल मार्क्स ने इस बुनियादी सच की खोज की थी। दुनिया के तमाम देशों के मजदूरों के जीवन के अनुभव ने इस सच को बार-बार सही साबित किया है। हिन्दोस्तान के मज़दूर वर्ग का हाल का अनुभव इस सच को फिर एक बार सही साबित कर रहा है। जो लोग इस सच के खिलाफ़ प्रचार कर रहे हैं वे माक्र्सवादी नहीं हो सकते, वे चाहे खुद माक्र्सवादी होने का दावा क्यों न करें।
कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी, ये दोनों ही पार्टियां हिन्दोस्तानी सरमायदारों के कार्यक्रम और उनके साम्राज्यवादी मंसूबों को अमल में लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इनमें से किसी एक पार्टी को सत्ता से बाहर रखने के लिए दूसरी पार्टी को समर्थन देना, जैसे कि 2004-09 के दौरान माकपा ने किया था, यह मज़दूर वर्ग के साथ धोखा करना और उसे वर्ग संघर्ष की राह से भटकाना है। इसका मतलब है मजदूर वर्ग के संघर्ष की धार को कम करना, मज़दूर वर्ग में यह गलतफहमी पैदा करना कि एक पूंजीवादी पार्टी मज़दूर वर्ग की रक्षा कर सकती है और निजीकरण और उदारीकरण का कार्यक्रम “मानवीय चेहरे” के साथ अमल में लाया जा सकता है।
माकपा ने पश्चिम बंगाल में अपनी सरकार को बरकरार रखने के लिये सरमायदारों के निजीकरण के कार्यक्रम के सवाल पर समझौता किया है। उन्होंने इस मसले को निजीकरण के कार्यक्रम को बेहतर तरीके से लागू करने का सवाल बना दिया है। माकपा की अगुवाई में चलाई जा रही पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने सेमिनार और कांफ्रेंस आयोजित किये जहां उन्होंने विश्व बैंक के विशेषज्ञों को यह सीखने के लिए आमंत्रित किया कि किस तरह से उनकी सरकार निजीकरण का कार्यक्रम असरदार तरीके से, मज़दूर यूनियनों के विरोध के बिना, अमल में ला रही है।
सरमायदार और उनके निजीकरण औैर उदारीकरण के तथाकथित सुधार कार्यक्रम के साथ समझौता और समर्थन करने की वजह से पश्चिम बंगाल में माकपा गहरे विश्वसनीयता के संकट में फंस गई है। ऐसा करने से मज़दूर वर्ग और उसके सबसे अधिक संगठित दस्तों की लड़ने की ताकत और मनोबल पर भी नकारात्मक असर हुआ है।
आज 2010 में, माडर्न फूड्स में ऐतिहासिक संघर्ष के 10 साल बाद, यह समय की पुकार है कि मज़दूर वर्ग को अपने अनुभव से कुछ अहम सबक सीखने होंगे। निजीकरण और उदारीकरण के कार्यक्रम के मसले पर हम किसी भी तरह का समझौता बर्दाश्त नहीं कर सकते। हमें इस कार्यक्रम के असली सार और मकसद का विरोध करना होगा। हमारा संघर्ष इस बात पर नहीं कि पूंजीवादी सुधारांे को अच्छे या बुरे तरीके से अमल में लाया जा सकता है। संघर्ष उन लोगों के बीच है जो पूंजीवादी निजी सम्पत्ति को बढ़ावा देना चाहते हैं और जो इस संपत्ति को सामाजिक सम्पत्ति में तब्दील करना चाहते हैं।
निजीकरण और उदारीकरण के कार्यक्रम के साथ समझौता करने का मतलब है साम्राज्यवाद के साथ समझौता करना और मज़दूर वर्ग के साथ गद्दारी करना। हाल के हमारे अनुभव का यह सबसे महत्वपूर्ण सबक है।
माडर्न फूड्स के मजदूरों द्वारा शुरू किये गये संघर्ष के साथ हमें न्याय करना होगा! निजीकरण और उदारीकरण कार्यक्रम के साथ मिली-भगत और समझौते के रास्ते को हमें ठुकराना और हराना होगा! पूंजीवादी-साम्राज्यवादी कार्यक्रम के खिलाफ़ बिना समझौता संघर्ष चलाना होगा! समाजवाद का निर्माण करने के मज़दूर वर्ग के वैकल्पिक कार्यक्रम के तहत एकजुट होना होग!