17 वर्ष पहले, 22 फरवरी 1993 में, हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के कामरेडों ने दूसरे जन संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर, दिल्ली के फिरोज़शाह कोटला में शहीद भगत सिंह के स्मारक पर एक ऐतिहासिक रैली आयोजित की थी।
17 वर्ष पहले, 22 फरवरी 1993 में, हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के कामरेडों ने दूसरे जन संगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर, दिल्ली के फिरोज़शाह कोटला में शहीद भगत सिंह के स्मारक पर एक ऐतिहासिक रैली आयोजित की थी।
बाबरी मस्जिद के गिराये जाने के ठीक बाद, जिस समय नई दिल्ली के अनेक इलाकों में दफा 144 लागू थी, उस समय ऐतिहासिक रैली ने वीरता से करफ्यू का उल्लंघन करके, भाजपा और कांग्रेस पार्टी दोनों के खिलाफ़ आवाज़ उठायी थी। देश के अनेक भागों में हज़ारों लोगों के साम्प्रदायिक कत्लेआम की अपराधी राजनीति के लिये दोनों भाजपा और कांग्रेस पार्टी को समान रूप से गुनहगार ठहराया गया था। सैकड़ों लोग आते-जाते हुये, साथियों को सुनने व उनसे बात करने के लिये रुके और सभी ने उस अवसर पर जारी किये गये पर्चे को बड़ी उत्सुकता से पढ़ा।
पार्टी के कामरेडों ने साफ-साफ बताया कि हमारे देश की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में बड़े इज़ारेदार पूंजीपतियों की पार्टियां, जैसे कि कांग्रेस पार्टी व भाजपा, राजनीतिक एजेंडे को तय करती हैं, जब कि आम लोगों को राजनीतिक प्रक्रिया से पूरी तरह दरकिनार किया जाता है।
ये राजनीतिक पार्टियां अपराधी तरीके से लोगों को बांटती हैं और खून-खराबा आयोजित करती हैं, ताकि बड़े पूंजीपतियों की हुकूमत के चलते, घोर अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ़ हमारे संघर्षों को कुचल दिया जाए। हमारे शासकों ने अपने उपनिवेशवादी मालिकों से यह तरीका सीखा था और अब वे इसे और कुशलता के साथ बार-बार इस्तेमाल करते हैं। यह जन-विरोधी कार्यक्रम को लागू करने के लिये पूंजीपतियों का पसंदीदा हथियार है। आम मेहनतकश जनसमुदाय इस अपराधी राजनीति के बेबस शिकार हैं और समाज की दिशा तय करने में लोगों की कोई भूमिका नहीं है।
मौजूदे राजनीतिक व्यवस्था की मूल समस्या – कि फैसले लेने और पूरे समाज का एजेंडा तय करने की ताकत मुट्टीभर शासकों के हाथों में है, जो अपने हितों की हिफ़ाज़त करने वाली राजनीतिक पार्टियों के जरिये, बडे़ पूंजीपतियों के हित में शासन करते हैं – यह हमारी जनता की अनगिनत समस्याओं की जड़ है, ऐसा कामरेडों ने रैली में बहादुरी से कहा, अपने नारों के द्वारा और आम जनता में बांटे गये अपने पर्चे में भी। मौजूदे राजनीतिक प्रक्रिया में कुछ-कुछ साल बाद चुनाव आयोजित किये जाते हैं, जिनमें लोगों को यह चुनना पड़ता है कि इन्हीं गुनहगार राजनीतिक पार्टियों में से कौन उनका प्रतिनिधित्व करेगी। यह प्रक्रिया मजदूरों, किसानों और सभी मेहनतकशों को पूरी तरह राजनीतिक सत्ता से दूर कर देती है, यह बताया गया। इस राजनीतिक व्यवस्था और प्रक्रिया का पूर्ण नवनिर्माण आवश्यक है। एक नई राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना करने की जरूरत है, जिसमें राज्य सत्ता मजदूरों, किसानों और मेहनतकशों के हाथों में होगी। एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया की जरूरत है जिससे यह सुनिश्चित हो कि राज्य सत्ता मेहनतकशों के हाथ में रहे और कांग्रेस पार्टी व भाजपा जैसी पूंजीपतियों की अपराधी पार्टियों को सत्ता से बाहर रखा जाए। इसमें वे तंत्र भी शामिल होने चाहियें जिनके जरिये मेहनतकश समाज के भविष्य पर असर डालने वाले फैसले खुद ले सकते हैं और उनका लागू होना सुनिश्चित कर सकते हैं।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की पहल पर, 17 वर्ष पहले जारी किया गया यह बहादुर बयान और रवैया, यह भाकपा और माकपा जैसी संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा पूंजीपतियों के साथ समझौता करने की राजनीति का बिल्कुल उल्टा था। भाकपा-माकपा जैसी पार्टियां मौजूदे राजनीतिक व्यवस्था और उसके संविधान की वफ़ादारी से हिफ़ाज़त करती हैं और उनका विरोध ज्यादा से ज्यादा इसी व्यवस्था में कुछ सुधार लाने तक सीमित होता है। 22 फरवरी, 1993 की रैली के बहादुर बयान और रवैये ने पूरे देश और विदेश में हजारों हिन्दोस्तानियों का समर्थन पाया, क्योंकि उसने उस भविष्य का रास्ता दिखाया, जिसमें हमारी जनता खुद अपने भविष्य के मालिक होगी।
22 फरवरी, 1993 के ऐतिहासिक कार्यक्रम से कमेटी फॉर पीपल्स एंपावरमेंट (सी.पी.ई.) की स्थापना हुई। जनता के अधिकारों की हिफ़ाज़त में लड़ रहे सैकड़ों लोगों – शिक्षाविदों, न्यायाधीशों, वकीलों, मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, मीडिया कर्मियों, लेखकों, फिल्म निर्माताओं, महिला कार्यकर्ताओं, मजदूरों, किसानों, नौजवानों, आदि – इस कमेटी से जुडे़। सी.पी.ई.एक ऐसा मंच बना जिस पर लोगों की सत्ताहीनता से चिंतित सभी लोग, चाहे किसी भी विचारधारा या संगठन से हों, एकजुट होकर काम कर सकते थे।
सी.पी.ई.की एक उपलब्धि थी वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के विश्लेषण को गहरा करना और लोगों की सत्ताहीनता की जड़ों को समझना। उस कार्यक्रम के बाद के सालों में सी.पी.ई. ने लोगों को सत्ता में लाने के नज़रिये से, बड़ी बहादुरी के साथ कई अभियान चलाये। उसने राजनीतिक प्रक्रिया के नवनिर्माण के लिये, मौजूदे प्रतिनिधित्व के लोकतंत्र की जगह पर प्रत्यक्ष लोकतंत्र के लिये पूंजीपतियों की राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवारों को ठुकराकर लोगों के अपने ही बीच में से उम्मीदवार चुनने के अधिकार के लिये, चुने गये उम्मीदवारों की लोगों के सामने जवाबदेही सुनिश्चित करने के तंत्रों के लिये, लोगों द्वारा कानून बनाने के तंत्रों के लिये, इत्यादि, कई ठोस प्रस्ताव रखे। सी.पी.ई. की इन पहलकदमियों से लोग आकर्षित होने लगे और 1998 में वह लोक राज संगठन के रूप में पुनर्गठित हुआ।