महिलाओं के उद्धार का संघर्ष हमेशा ही समाजवाद के लिये मजदूर वर्ग के संघर्ष के साथ जुड़ा रहा है

यह वर्ष एक महत्वपूर्ण घटना – अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की घोषणा – की शताब्दी है। 1910में, कोपेनहेगन, डेनमार्क में, समाजवादी महिलाओं की अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी में जर्मनी की समाजवादी नेता क्लारा जे़टकिन ने यह प्रस्ताव रखा था कि महिलाओं के अधिकारों और महिला उद्धार के संघर्ष को मान्यता देने के लिये, एक अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाये। गोष्ठी में इस प्रस्ताव को बडे़ जोश के साथ स्वीकार किया गया था।

यह वर्ष एक महत्वपूर्ण घटना – अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की घोषणा – की शताब्दी है। 1910में, कोपेनहेगन, डेनमार्क में, समाजवादी महिलाओं की अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी में जर्मनी की समाजवादी नेता क्लारा जे़टकिन ने यह प्रस्ताव रखा था कि महिलाओं के अधिकारों और महिला उद्धार के संघर्ष को मान्यता देने के लिये, एक अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाये। गोष्ठी में इस प्रस्ताव को बडे़ जोश के साथ स्वीकार किया गया था। इस गोष्ठी से पूर्व, कई वर्षों से दुनिया के अलग-अलग शहरों में विभिन्न क्षेत्रों की महिला मज़दूर अपने शोषण के खिलाफ़, बड़ी बहादुरी के साथ संगठित रूप से संघर्ष कर रही थीं। न्यूयार्क में 1857में

8मार्च को महिला वस्त्र मजदूरों ने एक बहादुर संघर्ष किया था, जिसकी याद में, 8मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में चयनित किया गया था।

बीती शताब्दी के दौरान, महिलाओं के अधिकारों और उद्धार के लिये संघर्ष इस हद तक आगे बढ़ चुका है कि महिलाओं के शोषकों और अत्याचारियों को खुद ही 8मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने का दिखावा करना पड़ा है। इसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के असली महत्व और इतिहास को छुपाने की कोशिश की गई है। यह छुपाने की कोशिश की गई है कि इस दिन की शुरुआत पूंजीवादी शोषण के खिलाफ़ मेहनतकश महिलाओं के जुझारू संघर्ष से हुई थी, और इसका समाजवाद के लिये संघर्ष के साथ अटूट संबंध है।

महिलाओं के दमन और जीवन के हर पहलू में उनके साथ भेद-भाव की जड़ एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण और निजी सम्पत्ति के संस्थापन में है। पूंजीवादी शोषण व्यवस्था से महिलाओं पर बोझ और बढ़ गया है। परन्तु पूंजीवाद के तहत जो आधुनिक समाजीकृत उत्पादन होता है, उसमें भारी संख्या में महिलाओं को अपने घरों से निकल कर, अपने पुरुष व स्त्री सहकर्मियों के साथ संगठित होकर, शोषण के खिलाफ़ संषर्ष करने का मौका भी मिला है। 19वीं सदी में महिलाओं के उद्धार का संघर्ष और मजबूत हुआ। जब पैरिस कम्यून में मजदूर वर्ग ने अपनी सत्ता कायम करने की पहली कोशिश की, तो मेहनतकश महिलाओं ने भारी संख्या में आगे आकर उसमें भाग लिया। कई देशों में वैज्ञानिक विचारों से सचेत महिलायें कम्युनिज़्म के सिद्धांत

और कार्यक्रम की हिफ़ाज़त में आगे आईं। उन्होंने समाजवाद के लिये मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को महिला मुक्ति का भी रास्ता माना।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की घोषणा के कुछ ही वर्षों के बाद, रूस में अक्तूबर क्रांति की जीत और समाजवाद की स्थापना के साथ, महिलाओं के संघर्ष को बहुत प्रोत्साहन मिला। उससे पहले, सबसे अगुवा पूंजीवादी देशों में भी, कानून के अनुसार महिलाओं और पुरुषों को समान नहीं माना जाता था। अमरीका के बहुचर्चित जेफरसनवादी लोकतंत्र में भी सिर्फ जायदाद वाले श्वेत पुरुषों को ही वोट डालने का अधिकार था। राजनीतिक अधिकारों के क्षेत्र में, परिवार, विवाह तथा अपनी जायदाद संबंधी कानूनों में, महिलाओं को पुरुषों की तुलना में नीचा दर्जा दिया जाता था।

पर सोवियत संघ में सर्वहारा की हुक्मशाही के राज्य ने थोडे़ ही समय में वह हासिल कर दिखाया जो दूसरे देशों के पूंजीवादी राज्य इतने लंबे अरसे तक करने में नाकामयाब रहे – उसने कानूनी और राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की असमानता को पूरी तरह खत्म कर दिया और हर क्षेत्र में महिलाओं को मेहनतकश पुरुषों के बराबर अधिकार और सुविधायें प्राप्त हुईं। समाजवादी कानून के अनुसार शोषकों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित किया गया, जबकि सर्वोच्च ताकत मजदूरों, किसानों और सैनिकों के सोवियतों के हाथों में सौंपा गया। दुनिया यह देख पायी कि सिर्फ इस प्रकार की मजदूर वर्ग की सत्ता ही महिलाओं के दमन की जंजीरें तोड़ने में रुचि रखती है।

समाजवादी राज्य ने महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक समानता को सुनिश्चित करने के लिये ठोस कदम उठाये, जिनके बिना महिलायें अपने जीते गये राजनीतिक व कानूनी अधिकारों का पूरा आनन्द नहीं ले सकती थीं। समाजवादी राज्य ने इस काम में अपनी पूरी ताकत व संसाधन लगाए। उत्पादक रोज़गार पाने का महिलाओं का अधिकार सुनिश्चित किया गया, जिससे महिलाओं को आर्थिक आज़ादी मिली।

एक-दो पीढि़यों के चलते, सोवियत महिलाओं और लड़कियों ने पुरुषों के बराबर शिक्षा स्तर प्राप्त कर ली। सोवियत संघ महिला डाक्टरों, इंजीनियरों, शिक्षकों, प्रशिक्षित मजदूरों, उच्च वैज्ञानिक व प्रौद्योगिक कर्मचारियों की विशाल सेना के लिये दुनिया में प्रसिद्ध हो गया। महिलाओं और बच्चों की खास स्वास्थ्य ज़रूरतों की देखभाल के लिये हर मुहल्ले में अस्पताल व स्वास्थ्य केन्द्र खोले गये। क्रेच, शिशु पालन केन्द्र तथा अन्य सामाजिक व खेल-कूद की सुविधाओं को स्थापित करना राज्य की जिम्मेदारी थी, जिससे मेहनतकश महिलाओं के शिशुपालन व घर संभालने के काम का बोझ हलका हुआ। प्रशासनिक काम में बड़ी संख्या में महिलाओं को लाया गया और हर स्तर पर उन्हें संगठित व लामबंध करने पर ध्यान दिया गया, जो कि इन सभी प्रयासों की कामयाबी के लिये निर्णायक था।

दुनिया भर की लाखों-लाखों महिलायें सोवियत संघ व दूसरे समाजवादी देशों में महिलाओं की हालतों की बड़ी-बड़ी तरक्कियों से प्रेरित होकर, अपने-अपने देशों में संघर्ष करने लगीं। महिलाओं में यह जागृति आयी कि जब तक शोषण की व्यवस्था बरकरार रहेगी, तब तक महिलाओं का उद्धार नहीं हो सकता। जागरुक और सक्रिय महिलायें यह समझने लगीं कि रूस की महिलाओं की तरह, दूसरे देशों में भी महिलाओं को अपने उद्धार हेतु क्रांति और समाजवाद की फतह के लिये संघर्ष करना पडे़गा।

हिन्दोस्तान में बीसवीं सदी के आरंभ में, उपनिवेशवाद- विरोधी संघर्ष के चलते, लाखों-लाखों महिलायें सभी प्रकार की गुलामी के खिलाफ़ संघर्ष में आगे आयीं मजदूर आन्दोलन और किसान संघर्षाें से इसे और ताकत मिली। कम्युनिस्टों और खास तौर पर अनेक महिला कम्युनिस्टों ने भारी संख्या में महिलाओं को संगठित किया। साथ ही साथ, पूंजीवादी राष्ट्रवादी नेताओं और संगठनों ने भी अपने उद्देश्यों से महिलाओं को लामबंध किया। जब उपनिवेशवादी शासन खत्म हुआ, तब हिन्दोस्तानी महिलाओं को कुछ राजनीतिक और कानूनी अधिकार मिले जो पहले उन्हें नहीं प्राप्त थे। परन्तु नये पूंजीपति शासक वर्ग ने सोच-समझकर, कई क्षेत्रों में महिलाओं की कानूनी गैर-बराबरी को बरकरार रखा।

सामंती व पिछडे़ रिवाज़ों से महिलाओं का भयंकर दमन, जाति प्रथा के चलते महिलाओं पर अत्याचार व भेदभाव, इन सब को अधिकांश मात्रा में उपनिवेशवादी शासकों और उनसे सत्ता ग्रहण करने वाले हिन्दोस्तानी पूंजीपति शासकों ने बरकरार रखा। इन सभी प्रकार के अत्याचारों के साथ-साथ महिलाओं को पूंजीवादी शोषण का भी शिकार बनना पड़ा। आज भी, रस्मी आज़ादी के 60से ज्यादा साल बाद, अधिकतर हिन्दोस्तानी महिलायें इस बहुतरफा शोषण की शिकार हैं। हिन्दोस्तानी राज्य व उसके संस्थान महिलाओं के इस बहुतरफा शोषण की हिमायत करते हैं। इस पूरी अवधि के दौरान, हिन्दोस्तानी महिलायें इस शोषण और दमन के खिलाफ़, बेहतर वेतन व काम की हालतों के लिये, सामाजिक समानता, सम्मान और सुरक्षा के लिये, लगातार संघर्ष करती रही हैं। इस संघर्ष से मजबूर होकर शासकों को कुछ महिला केंद्रित कानून व नीतियां पास करनी पड़ी हैं, हालांकि इन्हें लागू करने में भारी कमियां रही हैं।

सभी देशों में अपने शोषण के खिलाफ़ महिलाओं के बढ़ते संघर्षों की स्थिति में, बीसवीं सदी में पूंजीवाद के गढ़ में सबसे पहले पूंजीवादी नारीवाद को पैदा किया गया व फैलाया गया। महिलाओं के उद्धार के संघर्ष को मजदूर वर्ग के संघर्ष तथा समाजवाद के लिये संघर्ष के साथ जोड़ने के विरोध में पूंजीवादी नारीवाद की धारा महिला आंदोलन में सक्रियता से फैलायी गयी। पूंजीवादी नारीवाद के अनुसार, महिलाओं के दमन का स्रोत पितृसत्ता की व्यवस्था में है परंतु एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण की व्यवस्था से अलग है। महिलाओं के उद्धार का मुख्य दुश्मन पुरुष माना जाता है। महिलाओं के उद्धार का एकमात्र उद्देश्य आत्म आज़ादी और यौन आज़ादी माना जाता है। पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर, पूंजीवादी शोषण के खिलाफ़ संघर्ष मंे, मजदूर बतौर महिलाओं की संगठित भागीदारी को नकारा जाता है। समाजवाद में महिलाओं द्वारा की गई उपलब्धियों को नीचा दिखाया जाता है या नकारा जाता है। “अपरचनावाद” – यानि महिलाओं की विभिन्न्ा समस्याओं को अलग-अलग करके देखना, न कि एक एकताबद्ध सामाजिक समस्या के भिन्न्ा पहलू बतौर – इसे बहुत सोच समझकर बढ़ावा दिया गया।

पूंजीपति जानते हैं कि अगर पूंजीवाद के खिलाफ़ मजदूर वर्ग के संघर्ष को कामयाब होना है तो उसमें बड़ी तादाद में महिलाओं की भागीदारी आवश्यक है। इसीलिये पूंजीपति महिलाओं के कुछ तबकों को अपने बीच शामिल करने के लिये, कुछ थोड़ी रियायतें भी देने को तैयार हैं। महिलाओं के संपूर्ण उद्धार के लिये आन्दोलन और समाजवाद के लिये आन्दोलन के बीच संबंध को कमज़ोर करने के इरादे से पूंजीपति ऐसा करते हैं। परन्तु पारिवारिक दमन सहित सभी प्रकार के शोषण और दमन से महिलाओं के उद्धार की शर्त समाजवाद की जीत है। महिलाओं के उद्धार के आन्दोलन और इंसान द्वारा इंसान के हर प्रकार के शोषण को खत्म करके मजदूर वर्ग की मुक्ति के आन्दोलन, इन दोनों को पूंजीवादी नारीवाद कमज़ोर करता है।

हिन्दोस्तान में 70और 80के दशकों में, “स्वायत्त” महिला आन्दोलन के रूप में, पूंजीवादी नारीवाद का प्रभाव अनेक शहरी शिक्षित महिलाओं पर फैला। इस धारा के चलते, मजदूर वर्ग आन्दोलन और राजनीतिक व सामाजिक अधिकारों के लिये आम जन आन्दोलन से महिलाओं को अलग रखने का प्रयास किया गया। इस तरह महिलाओं की एक पूरी पीढ़ी के आक्रोश को बंद गली में गुमराह करवाया गया।

90के दशक में, समाजवाद के गिरने पर और पूंजीवादी सुधारों, हमला और जंग के कार्यक्रम को विश्व पूंजीवाद द्वारा सभी देशों पर थोपे जाने पर, महिलाओं का संघर्ष फिर से उभरा। सारी दुनिया में महिलायें पूंजीवादी सुधारों के विनाशकारी परिणामों का विरोध करने के लिये, साम्राज्यवादी जंग और हमले के खिलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिये आगे आने लगीं। हिन्दोस्तान में, इस हाल के दौर में, महिलायें बड़ी संख्या में, पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर, अक्सर संघर्ष की अगुवा श्रेणियों में, सक्रियता से निकल कर आयी हैं – उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के खिलाफ़, बड़ी इज़ारेदार कंपनियों द्वारा अपनी भूमि व संसाधनों की लूट-खसौट के खिलाफ़, राज्य द्वारा आयोजित हिंसा के खिलाफ़, अपने राष्ट्रीय अधिकारों के लिये, मजदूर बतौर अपने अधिकारों के लिये, तथा सभी प्रकार के सामाजिक अत्याचार व असम्मान के खिलाफ़।

पूंजीपतियों का यह प्रचार, कि महिलायें वर्ग शोषण पर आधारित वर्तमान समाज के अंदर ही अपनी मुक्ति पा सकती हैं, यह बहुत बड़ा धोखा है। महिलाओं को इससे बचना चाहिये। बीती सदी में अंतर्राष्ट्रीय महिला आन्दोलन के इतिहास का अमिट सबक यही है कि महिलाओं के उद्धार के संघर्ष को समाज में सभी प्रकार के शोषण को मिटाने के लिये मजदूर वर्ग की अगुवाई में किये जा रहे संघर्ष के साथ नजदीकी से जोड़कर ही किया जाना चाहिये। समाजवाद और कम्युनिज़्म ही महिलाओं का पूर्ण उद्धार हासिल कर सकता है; समाजवाद और कम्युनिज़्म का संघर्ष तभी कामयाब हो सकता है जब महिलायें अधिक से अधिक संख्या में आगे आकर उसमें सक्रियता से भाग लेती हैं। 

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