8 मार्च, 2010 अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की घोषणा की शताब्दी होगी। अपने अधिकारों और समाज में सम्मान पाने के लिये दुनिया की महिलाओं के संघर्ष के सौ साल से अधिक पूरे होने के इस अवसर पर मज़दूर एकता लहर समाज में महिलाओं के दमन के स्रोत को स्पष्ट करती है और इस तरह, इस दमन को खत्म करने की दिशा दिखाती है।
8 मार्च, 2010 अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की घोषणा की शताब्दी होगी। अपने अधिकारों और समाज में सम्मान पाने के लिये दुनिया की महिलाओं के संघर्ष के सौ साल से अधिक पूरे होने के इस अवसर पर मज़दूर एकता लहर समाज में महिलाओं के दमन के स्रोत को स्पष्ट करती है और इस तरह, इस दमन को खत्म करने की दिशा दिखाती है।
सदियों से चल रहे महिलाओं के दमन के लिये कई कारण बताये जाते हैं। कई धर्मों और फलसफों के अनुसार यह बताया जाता है कि महिलाओं के दमन के पीछे जैविक कारण हैं क्यों कि पुरुष महिलाओं से शारीरिक तौर पर ज्यादा बलवान हैं, अतः महिलाओं पर पुरुष का हावी होना ‘स्वाभाविक’ है। यह भी कहा जाता है कि महिलाओं का दमन प्राचीन काल से लगातार चलता आया है। इससे यह नतीजा निकाला जाता है कि महिलाओं का दमन हमेशा ही होता रहा है और होता रहेगा क्योंकि यही स्वाभाविक है।
माक्र्सवाद की महानता इस बात में है कि इसने मानव समाज के विकास की वैज्ञानिक समझ के आधार पर इन धारणाओं को ग़लत साबित किया। महान मार्क्सवादी फ्रेडरिक एंगेल्स ने, माक्र्स और अपने शोधकार्यों तथा अपने समय के अगुवा वैज्ञानिकों के अध्ययनों के आधार पर, यह समझाया कि सबसे पहले, ऐतिहासिक तौर पर महिलाओं का दमन एक हाल की ही घटना है। प्राचीन समाज में महिलाओं का रुतबा आज से कहीं ज्यादा ऊंचा था। मानव जीवन को जन्म देने और पालने-पोसने में तथा जीवन के लिये ज़रूरी भौतिक साधनों के उत्पादन में पुरुषों के साथ बराबर के साझेदार बतौर, महिलाओं का समाज में बहुत महत्वपूर्ण और सम्मानजनक स्थान था। कई सदियों के दौरान आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में विभिन्न गतिविधियों के कारण, जिनके बारे में एंगेल्स ने विस्तारपूर्वक समझाया है, महिलाओं ने अपना वह सम्मानजनक रुतबा खो दिया और दमन का शिकार बन गईं।
अगर महिलाओं का दमन हमेशा नहीं होता था, अगर किसी समय समाज में महिलाओं का सम्मानजनक स्थान था, तो यह नतीजा निकलता है कि सामाजिक हालतों को बदला भी जा सकता है और महिलाओं के दमन को खत्म किया जा सकता है।
अपनी प्रमुख रचना, ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ में एंगेल्स समझाते हैं कि महिलाओं के दमन की जड़ निजी संपत्ति की उत्पत्ति और वर्गोंे में समाज के विभाजन में है। जब प्रौद्योगिकी के विकास से मनुष्य के लिये अपनी ज़रूरत से अधिक उत्पादन करना संभव हो गया, तब समाज में असमानतायें उभरकर आने लगीं। कुछ लोगों ने अत्यधिक उत्पादन का ज्यादा बड़ा हिस्सा हथियाने का साधन प्राप्त कर लिया जबकि दूसरों को इससे वंचित किया गया। यह निजी संपत्ति (भूमि, मवेशी, औजार और उत्पादन के अन्य साधन) और वर्गाें में समाज के बंटवारे की शुरुआत थी – निजी संपत्ति और दूसरों के श्रम का शोषण करने के साधनों के मालिकों का वर्ग और वह दूसरा वर्ग जिसके पास कोई निजी संपत्ति नहीं थी, जिसे जीने के लिये अपने श्रम को बेचना पड़ता था।
इसी प्रक्रिया ने समाज में महिलाओं के स्थान और परिवार के रूप पर भी अपना असर डाला। भूतपूर्व प्राचीन समाजों में बच्चों का पालन-पोषण और खुशहाली समाज के सभी सदस्यों की जिम्मेदारी थी। बच्चों को जन्म देने और पालने वाली, महिला को अत्यंत सम्मान का स्थान दिया जाता था। परंतु जब निजी संपत्ति की उत्पत्ति हुई, तब पुरुष (जो श्रम के स्वाभाविक आवंटन के चलते, अत्यधिक उत्पादन के लिये मुख्यतः जिम्मेदार था) को निजी संपत्ति, यानि उत्पादन के साधनों का मालिक माना जाने लगा। जिनके पास निजी संपत्ति थी, उनकी कोशिश थी यह सुनिश्चित करना कि संपत्ति अपने ही खून के वारिसों के हाथ में जाये, किसी और के हाथ में नहीं। इस तरह, अत्यधिक उत्पादन को हथियाने की भूमिका और निजी संपत्ति के मालिक की भूमिका पुरुष की बनी, जबकि महिलाओं की मुख्य भूमिका जन्मदाता के रूप में मानी जाने लगी, जिनका जीवन का एकमात्र औचित्य था उन संतानों को जन्म देना जो अपने पिता की संपत्ति के वारिस हो सकें।
जैसे-जैसे उत्पादन की प्रक्रिया में प्रगति के साथ-साथ, मानव समाज अलग-अलग पड़ावों से गुजरता गया – गुलामी, सामंतवाद और अंत में पंूजीवादी समाज – वैसे-वैसे निजी संपत्ति का रूप भी बदलता गया, पहले गुलाम, फिर मवेशी, कृषि औजार इत्यादि, फिर और आगे बढ़कर उत्पादन के उन्नत से उन्नत साधन, मशीनरी और पूंजी। इनमें से हरेक पड़ाव एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण पर आधारित था और इसके साथ-साथ परिवार का रूप भी बदलता गया, परंतु पुरुष निजी संपत्ति का मालिक माना जाता रहा, जबकि महिला का दर्जा पुरुष से नीचे ही रहा।
हिन्दोस्तानी समाज में ब्राह्मणवादी प्रथा और जाति प्रथा ने महिलाओं पर क्रूर अत्याचार और दमन किया। निजी संपत्ति और समाज द्वारा जाति के आधार पर पुरुष को नियुक्त किया गया काम पिता से पुत्र को वंशानुगत तरीके से हस्तांतरित किया जाता रहा। साथ ही साथ, महिलाओं को सिर्फ घर में ही दमन का सामना नहीं करना पड़ा बल्कि निचली जाति की महिलाओं को उच्च जाति के पुरुषों के हाथों शोषण भी झेलना पड़ा। इसके साथ-साथ, शासक वर्ग (राजा, ब्राह्मण आदि), जो उत्पादन करने वाले वर्ग के अतिरिक्त उत्पादन को हड़प कर जीते थे, उत्पादक वर्ग का शोषण करते रहे। 15-16वीं सदियों के भक्ति आंदोलन के दौरान, इन सभी प्रकार के शोषणों के खिलाफ़ पुरुषों और महिलाओं ने बगावत की थी। उपनिवेशवादी शासन और उसके साथ-साथ हिन्दोस्तान में पूंजीवाद के विकास से शोषण के इन भयानक तरीकों को मिटाया नहीं गया। बल्कि पूंजीपति वर्ग के मुनाफों को सुनिश्चित करने के लिये, मेहनतकश महिलाओं और पुरुषों के शोषण को और तेज़ करने के उद्देश्य से, शोषण के इन सभी तरीकों को बरकरार रखा जाता रहा।
अंत में जिस प्रकार के एक-वैवाहिक परिवार का विकास हुआ, जिसके तहत महिला अपने ससुराल की चारदीवारी में अंदर बंद हो गई, वह पूरे समाज के लिये परिवार का नमूना बन गया, उन अधिकांश परिवारों के लिये भी, जिनकी कोई निजी संपत्ति न थी और जो अपना श्रम बेचकर जीते थे। महिलाओं का यह दमन आज तक जारी है। इसके आधार पर कई पहलुओं को समझा जा सकता है, जैसे कि बाहरी दुनिया से महिलाओं का अलगाव, परिवार और समाज में महिलाओं की भूमिका का अवमूल्यन, महिलाओं पर शारीरिक अत्याचार, इत्यादि।>/p>
माक्र्सवाद ने यह दिखाया है कि हालांकि सदियों से भैातिकी और प्रौद्योगिकी प्रगति होती रही है और इसके साथ-साथ एक प्रकार का समाज दूसरे प्रकार के समाज में बदलता रहा है, परंतु 20वीं सदी में समाजवाद की स्थापना होने से पहले के ये सारे प्रकार के समाज इंसान द्वारा इंसान के शोषण पर आधारित समाज थे। पूंजीवाद के तहत, शोषक पूंजीपति वर्ग को अपने मुनाफे बढ़ाने के लिये अधिक से अधिक संख्या में महिलाओं को अपने घरों से निकालकर फैक्टरियों, दफ्तरों और कार्यालयों में लाना पड़ा है। कुछ हद तक महिलाओं को शिक्षा भी देनी पड़ी है, हालांकि हिन्दोस्तान जैसे समाजों में महिलायंे शिक्षा के मामले में काफी पीछे हैं। महिलाओं के संघर्ष के परिणाम स्वरूप, शासक पूंजीपति वर्ग को मताधिकार तथा सरकारी नीतियों में कुछ रियायतें, जैसे थोड़े से अधिकार महिलाओं को देने पड़े हैं। क्या इससे महिलाओं का शोषण खत्म हुआ है? नहीं! बल्कि पूंजीवादी समाज में आज महिला दोहरे शोषण का शिकार है – मज़दूर बतौर शोषण का शिकार और समाज व घर में पुराने तरीके के दमन और भेद-भाव का शिकार।
हिन्दोस्तानी समाज में महिलायें जातिवादी दमन और सामंती शोषण के अवशेषों का शिकार आज भी हैं। साथ ही साथ महिलायें मज़दूर बतौर पूंजीवादी शोषण का शिकार भी हैं। पूंजीपतियों का राज्य महिलाओं के इस चैतरफे दमन को जायज़ ठहराता है, बड़े अपराधी तरीके से उसे लागू करता है और उसके ज़रिये समाज के सभी दबे-कुचले तबकों को दबाता है। महिलाओं को मज़दूर वर्ग का अति-शोषित तबका बनाये रखना, जिनकी हालतें संपूर्ण मज़दूर वर्ग के वेतनों और काम के हालतों को नीचे रखने का बहाना बनाई जाती हैं, यह पूंजीपतियों के लिये बहुत ज़रूरी है। इसीलिये महिलाओं का शोषण और दमन आज भी जारी है और एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा है, जो “अगुवा” पूंजीवादी देशों और कम अगुवा देशों, जहां-जहां मानव शोषण मौजूद है, वहां-वहां देखने में आता है।
हिन्दोस्तान में और सारी दुनिया में महिलायें अपने शोषण और दमन के खिलाफ़ तथा समाज के समान सदस्य बतौर समान अधिकारों के लिये अनवरत संघर्ष करती रही हैं। परंतु शोषक वर्ग महिलाओं के दमन के असली स्रोत को छिपाने की कोशिश करते रहते हैं और आम पुरुष को महिलाओं का दुश्मन बताते रहते हैं।
माक्र्स और एंगेल्स की रचनाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि आम पुरुष महिला के दमन का स्रोत नहीं हैं। महिलाओं का दमन समाज में एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण के साथ शुरु हुआ, निजी संपत्ति के साथ, उत्पादन के साधनों के चंद लोगों की मालिकी में हो जाने के साथ और समाज के अधिकांश लोगों की संपत्ति-विहीनता के साथ शुरु हुआ। आज भी अपने परिवारों को चलाने के लिये महिलाओं को घर में जो कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है और मेहनतकश महिलाओं को जो कम वेतन दिये जाते हैं, उनके ज़रिये पूंजीपति संपूर्ण मज़दूर वर्ग का शोषण और तेज़ करते हैं। महिला मज़दूरों को कम वेतन देकर पूरे मज़दूर वर्ग के वेतनों को नीचे रखा जाता है। पूंजीपति मज़दूर और उसके परिवार को मुश्किल से दो वक्त की रोटी के लिये मज़दूरी देता है परंतु मज़दूर के जीने और फिर से काम पर आने के लिये महिला द्वारा घर में की गई मेहनत को पूंजीवादी समाज में कोई मान्यता नहीं दी जाती, न ही उसका कोई हिसाब-किताब होता है।
यह स्पष्ट हो जाता है कि दमन से महिलाओं के उद्धारकी मूल शर्त यह है कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण और उत्पादन के साधनों की निजी मालिकी को खत्म किया जाये। उसे खत्म करके जो समाज बनेगा, वह समाजवाद का समाज है। आज मानव समाज एक ऐसे पड़ाव पर पहुंचा है जब एक वर्ग द्वारा दूसरे का शोषण, बाकी समाज को वंचित करके एक वर्ग द्वारा निजी संपत्ति और मुनाफों को हथियाना, महिलाओं का दमन – यह सब समाज की उत्पादक क्षमता के आगे बढ़ने के रास्ते में रुकावट बन गयी हैं। अगर समाज को आगे बढ़ना है तो यह अनिवार्य है कि वर्ग शोषण और उत्पादन के साधनों की निजी मालिकी को खत्म करना होगा। महिलाओं और पुरुषों को मिलकर इंसान द्वारा इंसान के हर प्रकार के शोषण को खत्म करने के लिये और समाजवाद की स्थापना के लिये संघर्ष करना होगा। समाजवाद ही समाज में महिलाओं को अपना सम्मान, मुक्ति और समानता वापस दिला सकता है।