पूंजीवाद द्वारा थोपी गई शर्तो के अंतर्गत पर्यावरण संकट का समाधान संभव नहीं
दुनिया भर से 45,000 लोग दिसम्बर, 2009 में जलवायु परिवर्तन पर एक नये विश्वव्यापी समझौते की आशा से कोपेनहेगन पहुंचे। बहुत से लोग ऐसे देशों में से थे, जहां जलवायु परिवर्तन से लोगों की रोजी-रोटी और यहां तक कि जीवन को भी भयंकर खतरा है। परंतु 192 देशों की भागीदारी से हुए इस सम्मेलन का नतीजा सिर्फ इतना ही था कि अमरीका और पांच अन्य देशों ने एक सौदा किया!
पूंजीवाद द्वारा थोपी गई शर्तो के अंतर्गत पर्यावरण संकट का समाधान संभव नहीं
दुनिया भर से 45,000 लोग दिसम्बर, 2009 में जलवायु परिवर्तन पर एक नये विश्वव्यापी समझौते की आशा से कोपेनहेगन पहुंचे। बहुत से लोग ऐसे देशों में से थे, जहां जलवायु परिवर्तन से लोगों की रोजी-रोटी और यहां तक कि जीवन को भी भयंकर खतरा है। परंतु 192 देशों की भागीदारी से हुए इस सम्मेलन का नतीजा सिर्फ इतना ही था कि अमरीका और पांच अन्य देशों ने एक सौदा किया!
सम्मेलन का स्वभाव निम्नलिखित से जाहिर होता है – साम्राज्यवादी देशों के बीच तीखी होड़; विभिन्न देशों के मध्यस्थों के विरोध-प्रदर्शन, जब उन्हें दरकिनार करने की कोशिशें की गयीं और दूसरे ''महत्वपूर्ण'' देशों को केन्द्र बिंदु में लाया गया; हजारों कार्यकर्ताओं द्वारा कोपेनहेगन की सड़कों पर प्रदर्शन, जिन्हें बेरहमी से कुचला गया; तथा अलग-अलग हितों को ''मंजूर'' कुछ भी पाने के लिए कठिन मोल-भाव। कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन द्वारा कोई भी लागू करने योग्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर के समझौतों की विफलता इसी सच्चाई की पुष्टि करता है कि पूंजीवाद द्वारा थोपी गयी शर्तों के अंतर्गत पर्यावरण संकट का समाधान असंभव है।
1997 में क्योटो में हुए संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन समझौते ने 38 औद्योगिक देशों पर ग्रीन हाऊस पर प्रभाव डालने वाली गैसों के उत्सर्जन को 1990 के मुकाबले कुछ प्रतिशत कम करने की बंदिश लगाई। 2005 तक, जब ज्यादातर हस्ताक्षरकर्ताओं ने अपने-अपने देशों में मंजूरी प्राप्त कर ली थी। यूरोपीय संघ के देशों ने
8 प्रतिशत उत्सर्जन कम करने की बात स्वीकार की। परंतु उस समय के अमरीकी राष्ट्रपति, जार्ज बुश ने उस समझौते को मानने से इंकार किया जबकि अमरीका दुनियाभर के देशों में सबसे ज्यादा ग्रीन हाऊस पर प्रभाव डालने वाली गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। दुनियाभर के कुल उत्सर्जन में एक चौथाई के लिए सिर्फ अमरीका ही जिम्मेदार है। अमरीका द्वारा समझौते की अवहेलना के कारण दूसरी उभरती साम्राज्यवादी ताकतों से समझौते को मनवाना बहुत मुश्किल हो गया।
उस दौरान जलवायु परिवर्तन पर अध्ययन व समस्या का सामना करने की कोशिशें जारी रहीं। अब तक यह साफ हो गया है कि मानव जाति पर एक बड़ी आपदा का खतरा है; यह साफ है कि मुनाफे बढ़ाने के अतिलोभ पर आधारित बिना योजना के विकास से पर्यावरण में कभी न सुधारा जा सकने वाला नुकसान हो रहा है जिससे व्यक्तियों, समाजों, राष्ट्रों तथा पूरी दुनिया पर्यावरण की बर्बादी के कगार पर खड़ी है। साम्राज्यवादी नज़रिये के अनुसार, पूंजी के मुट्ठीभर कुलीन मालिकों तथा उनके राजनीतिक संस्थापनों के पास पृथ्वी के विकास की दिशा तय करने की निरंकुश राजनीतिक सत्ताा होनी चाहिए, जबकि लोगों को उनके फुर्तीले परंतु निष्फल विरोध से संतुष्ट रहना होगा। साम्राज्यवादियों द्वारा सुझाई गई योजनायें जैसे कि कार्बन-व्यापार, कार्बन-कर व अन्य तथाकथित हरित-पहलकदमियों – जो लोगों को मैदान से बाहर रखकर सरमायदारों द्वारा मुनाफा बनाने के लिये प्राकृतिक संपदा के दोहन व विनाश के उनके बल व विशेषाधिकार को और मजबूत करते हैं।
कोपेनहेगन शिखर सम्मलेन शुरु होने के बहुत पहले से ही अलग-अलग तरह के लोग संदेह प्रकट कर रहे थे कि क्या यह सम्मेलन सफल हो भी सकता है। एक तरफ स्थापित साम्राज्यवादी देश हैं जिन्होंने सदियों से बस्तीवाद, जंग और दुनिया भर के लोगोें की धरती व श्रम की लूट के द्वारा अपनी ताकत बढ़ायी है और जो अपने विशेषाधिकारों को बरकरार रखना चाहते हैं और सुधार नहीं करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि पर्यावरण के संकट का बोझ औद्योगिक तौर पर अविकसित देशों सहित सब देशों को बराबरी से सहना चाहिए। दूसरी तरफ, साम्राज्यवादी मंसूबे रखने वाले हिन्दोस्तान व चीन जैसे देशों के पूंजीपति हैं जो दावा कर रहे हैं कि अब उनकी, स्थापित साम्राज्यवादी ताकतों की तरह ही औद्योगिकीकरण और ''विकसित'' होने की बारी है। यानि कि उनका कहना है कि खुद के ''विकास'' के लिये पर्यावरण को खराब करने की अब उनकी बारी है।
दुनिया भर में ज्यादा से ज्यादा आम लोग जलवायु परिवर्तन तथा पर्यावरण में कभी न सुधारे जा सकने वाले नुकसान को एक गंभीर मुद्दा मानते हैं, जिसका तुरंत समाधान निकाला जाना चाहिए। परंतु साम्राज्यवादी व पूंजीवादी देशों के हुक्मरान चाहते हैं कि समस्या का ''समाधान'' ऐसे सौदों के जरिये हो जिनमें लोगों की धरती व संसाधनों की लूट-खसौट का उनका अधिकार बरकरार रहे। जिस तरह लोग दूसरे जनहित से संबंधित मुद्दों के बारे में निर्णय लेने से बाहर रखे गये हैं उसी तरह, उनकी इच्छा है कि दुनिया के लोगों को जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों के बारे में निर्णय लेने से बाहर रखा जाये। परंतु दुनिया के लोग अपनी धरती व पृथ्वी से संबंधित निर्णय लेने में सक्षम होना चाहते हैं जैसा कि पर्यावरण को बचाने के लिये तेजी से हो रहे प्रदर्शनों से पता चलता है।
नतीजन, अलग-अलग देशों से हजारों कार्यकर्ताओं ने कोपेनहेगन की सड़कों पर भारी प्रदर्शन किये। उनका विरोध ऐसे दांव-पेचों के खिलाफ़ था जिनके द्वारा उनको सम्मेलन स्थल से दूर रखा गया था। उन्होंने नारे लगाये जैसे कि ''सत्ताा पर कब्ज़ा करो!'', ''लोगों की सभा में शामिल हो!'', ''आदिवासियों के अधिकारों को सम्मान दो!'', जबकि बहुत से अमरीकी मूल निवासियों ने नगाड़े बजाकर अपने गीत गाये। सैकड़ों प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने हिरासत में लिया और उन्हें मारा-पीटा। प्रदर्शनकारियों का एक दल बैला सेंटर (जहां सम्मेलन चल रहा था) से बाहर निकलकर टार्नबी (कोपेनहेगन से कुछ किलोमीटर दूर एक उपनगर) से आ रहे दूसरे दल से मिलने वाला था। परंतु पुलिस ने दोनों दलों के मिलने वाले रास्ते बंद कर दिये और आंसू गैस और लाठियों का इस्तेमाल करके एक दूसरे से मिलने नहीं दिया।
इससे साफ दिखता है कि कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन में चल रही पूरी प्रक्रिया गैर-लोकतांत्रिक थी। अपने विशेषाधिकारों में कटौती पर साम्राज्यवादी देशों का विरोध इतना खुल्लम-खुल्ला था कि जर्मनी की चांसलर को औद्योगिक देशों द्वारा किये वायदों को खुले रूप में अपर्याप्त बताना पड़ा। उन्होंने कहा कि अमरीका के चार प्रतिशत कटौती के प्रस्ताव में ''इच्छाशक्ति की कमी है''। कार्यप्रणाली बतौर शिखर सम्मेलन एक फरेब था, जिसमें आयोजक जल्दबाजी कर रहे थे कि किसी तरह कुछ भी निष्कर्ष निकल जाये। दूसरे देशों की सोच थी कि सब कुछ ठीक से मोल-भाव के लिये खुला होना चाहिए और जल्दबाजी के बारे में एक के बाद एक देशों ने अपना विरोध जताया। सत्रों का रद्दीकरण आम बात हो गयी। कम औद्योगिक देशों के प्रतिनिधियों ने डेनमार्क के सुझाव की निंदा की कि एक छोटे सौदेबाजी गुट द्वारा मसौदे को तेज़ी से तैयार कर देना चाहिए। परंतु प्रतिनिधियों का कहना था कि प्रक्रिया सब को सम्मिलित करने वाली होनी चाहिए।
जब यह स्पष्ट हो गया कि सैकड़ों घंटों से खिंच रही समझौते की बात-चीत कहीं नहीं पहुंच रही है और सम्मेलन एक शर्मनाक असफलता की ओर जायेगा, तब कॉमिक्स के सुपरमैन के जैसे अमरीकी राष्ट्रपति परिस्थिति को बचाने के लिये उतरे। चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ के साथ ''सकारात्मक'' मीटिंग करके रिपोर्टों के अनुसार, वह बिन बुलाये अचानक बी.ए.एस.आई.सी. (ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, हिन्दोस्तान व चीन) की मीटिंग में सौदेबाजी के लिये घुस गया। करार में दुनियाभर के तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने देने की छूट और औद्योगिक देशों द्वारा उत्सर्जन में कटौती को प्रमाणित करने के ढंग की मांगें पेश की गयी हैं। तीव्र तकरार के बाद सम्मेलन के प्रतिनिधियों ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें सौदे पर ध्यान दिलाया गया है पर उसे मान्यता नहीं दी गयी है। अमरीकी राज्य सचिव हिलेरी क्लिंटन द्वारा घोषित 10 बिलियन डालर्स के मदद कोष को बहुत से देशों व लोगों ने छल-कपट वाला बताकर निंदा की; जबकि साम्राज्यवादी देश हथियारों पर हजारों बिलियन डालर्स खर्च करते हैं, ऐसी छोटी सी ''सहायक निधि'' के जरिये वे पर्यावरण के विनाश में अपनी अहम भूमिका से लोगों का ध्यान हटाना चाहते हैं।
कोपेनहेगन में विभिन्न साम्राज्यवादी गुटों व स्थापित साम्राज्यवादी ताकतों के नेताओं तथा उभरती साम्राज्यवादी ताकतों के बीच की होड़ व लड़ाई ने साफ कर दिया है कि जिन्होंने मुनाफा बनाने के अपने अतिलोभ के कारण पर्यावरण को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, वे उस समस्या का समाधान नहीं दे सकते हैं। लोगों के कल्याण की जगह मुनाफों को अधिकतम बनाने वाले पूंजीवादी ढांचे में पर्यावरण जैसी गंभीर समस्या का हल नहीं निकल सकता है। अपने पर्यावरण के बचाव के लिये, हिन्दोस्तानी मेहनतकश लोग अपनी सरकार पर निर्भर नहीं रह सकते, जिसने अमरीका व दूसरी साम्राज्यवादी ताकतों के साथ
धुंधली सौदेबाजी की है ताकि हिन्दोस्तान के मुट्ठीभर अमीरों के हितों की रक्षा व आगे बढ़ाने का काम किया जा सके। देश और विदेश में पर्यावरण के विनाश व खराब करने के हर कदम का विरोध करने के साथ-साथ, हिन्दोस्तानी मजदूर वर्ग द्वारा सभी मेहनतकश लोगों को सचेत करने की जरूरत है कि वर्तमान व्यवस्था में पर्यावरण की गंभीर समस्या का कोई समाधान संभव नहीं है। उसे हिन्दोस्तान में इस आदमखोर व पर्यावरण विनाशी पूंजीवादी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने के संघर्ष में लोगों को लामबंद करने की जरूरत है।