जनवरी की शुरुआत में, बाइडन प्रशासन के अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) जेक सुलिवन ने हिन्दोस्तान का दौरा किया और हिन्दोस्तानी एनएसए अजीत डोभाल के साथ-साथ प्रधानमंत्री मोदी से भी मुलाक़ात की। अमरीका के इस शीर्ष अधिकारी के हिन्दोस्तान आने की ज़ल्दबाजी को असामान्य माना जा सकता है, क्योंकि बाइडन प्रशासन के कार्यकाल में डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व वाली नई सरकार आने के लिए सिर्फ़ दो सप्ताह ही बचे थे।
बैठकों का मुख्य आकर्षण स्पष्ट रूप से सुलिवन के वादे थे, “मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (एम.टी.सी.आर.) के तहत अमरीकी मिसाइल निर्यात नियंत्रण नीतियों में बाइडन प्रशासन द्वारा लाए गए अपडेट जो हिन्दोस्तान के साथ अमरीकी वाणिज्यिक अंतरिक्ष सहयोग को बढ़ावा देंगे“, साथ ही ”हिन्दोस्तानी परमाणु संस्थाओं को सूची से हटाने के लिए आवश्यक क़दमों को अंतिम रूप देने के अमरीकी प्रयास, जो सिविल परमाणु सहयोग को बढ़ावा देंगे”। दूसरे शब्दों में, अमरीका ने संकेत दिया कि वह हिन्दोस्तान के परमाणु कार्यक्रम के लिए प्रौद्योगिकी और सामग्री की आपूर्ति करने तथा हिन्दोस्तान के साथ अन्य उन्नत प्रौद्योगिकियों को साझा करने में अपनी ओर से आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए क़दम उठाने को तैयार है।
पृष्ठभूमि
18 जुलाई, 2005 को जॉर्ज डब्ल्यू बुश के नेतृत्व वाली अमरीकी सरकार और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली हिन्दोस्तानी सरकार ने एक सिविल परमाणु सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसे हिन्दोस्तान के प्रति अमरीकी नीति में एक बड़ा बदलाव माना गया, क्योंकि 1974 में हिन्दोस्तान के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद, अमरीका ने इसके परमाणु हथियार कार्यक्रम को काली सूची में डाल दिया था – और परिणामस्वरूप इसके सहयोगियों और परमाणु अप्रसार संधि के अन्य हस्ताक्षरकर्ताओं ने भी इसे काली सूची में डाल दिया था। इसका मतलब यह था कि हिन्दोस्तान को उन देशों से सामग्री या तकनीक नहीं मिल सकती थी जिन्हें उसके परमाणु कार्यक्रम में सहायक माना जा सकता था। उस समय, हिन्दोस्तान को अमरीका शीत युद्ध के चश्मे से देखता था, और उसे सोवियत संघ के बहुत क़रीब माना जाता था। अमरीका और अन्य देशों से अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए बाहरी समर्थन की अनुपस्थिति में, हिन्दोस्तानी राज्य ने अपने परमाणु कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए सोवियत संघ (और बाद में, रूस) की मदद ली।
लेकिन, बीसवीं सदी के पहले दशक से ही अमरीका की रणनीतिक प्राथमिकताएं बदल गई थीं। चीन की बढ़ती ताक़त को अमरीकी साम्राज्यवाद की वैश्विक आधिपत्य स्थापित करने की भव्य रणनीति के लिए मुख्य बाधा के रूप में देखा गया। इसलिए, हिन्दोस्तानी राज्य को एक ऐसी शक्ति के रूप में मजबूत करना जो अपने पड़ोस में चीन का मुक़ाबला कर सके और उसे नियंत्रित कर सके, अमरीकी रणनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना गया। इसी संदर्भ में पिछले बीस वर्षों में अमरीकी साम्राज्यवाद ने अपने प्रत्येक क्रमिक प्रशासन के तहत हिन्दोस्तान के साथ अपने सैन्य और रणनीतिक संबंधों को विस्तारित और मजबूत करने के लिए लगातार क़दम उठाए हैं, जिसकी शुरुआत 2005 के सिविल परमाणु सहयोग समझौते से हुई है। इसमें क्वाड का गठन शामिल है, जो अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और हिन्दोस्तान का एक समूह है, जिसका स्पष्ट उद्देश्य चीन को उसके समुद्री पड़ोस में नियंत्रित करना है। इसमें सैन्य, खुफिया, लॉजिस्टिक और तकनीकी क्षेत्रों में हिन्दोस्तान-अमरीका सहयोग को बहुत बढ़ाने के लिए चार “आधारभूत समझौतों” का समापन भी शामिल है। सबसे हालिया पहल 2022 में शुरू की गई “महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों पर पहल” (आईसीईटी) है। पिछले कुछ वर्षों में अमरीका और हिन्दोस्तान के बीच सैन्य हार्डवेयर के व्यापार में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
इसके बावजूद, परमाणु ऊर्जा और उन्नत प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के क्षेत्रों में सहयोग में बाधाएं रही हैं। अमरीकी परमाणु ऊर्जा कंपनियां हिन्दोस्तान के साथ जुड़ने के लिए आगे नहीं आई हैं क्योंकि वर्तमान में हिन्दोस्तान के परमाणु दायित्व क़ानून किसी भी परमाणु “दुर्घटना” के लिए मुआवजे़ का दायित्व स्पष्ट रूप से परमाणु संयंत्र आपूर्तिकर्ताओं पर डालते हैं, न कि परमाणु संयंत्र संचालकों पर जैसा वे चाहते हैं। भोपाल गैस आपदा के मामले में हिन्दोस्तानी लोगों का अनुभव बहुत बुरा रहा है, जहां यूनियन कार्बाइड संयंत्र के मालिक अमरीकी पूंजीपति अपनी आपराधिक ज़िम्मेदारी से बचने में सफल रहे। इसने शासक वर्ग के राजनेताओं के लिए हिन्दोस्तान के परमाणु दायित्व क़ानून को कमजोर करने की वकालत करना कठिन बना दिया है। साथ ही, 2005 के समझौते के बावजूद, अमरीकी क़ानून हिन्दोस्तानी परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठानों को ब्लैकलिस्ट करना जारी रखते हैं और हिन्दोस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम के कारण सामग्री और प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाते हैं। यह प्रतिबंध उन प्रौद्योगिकियों तक भी फैला हुआ है जिन्हें हिन्दोस्तान के परमाणु कार्यक्रम में मदद करने के लिए माना जा सकता है, जैसे कि एआई, क्वांटम कंप्यूटिंग और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी।
परमाणु सहयोग और उन्नत प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का लालच देना
सुलिवन की हिन्दोस्तान की यात्रा इस बात का संकेत है कि अमरीका हिन्दोस्तान को चीन को नियंत्रित करने और एशिया तथा विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की अपनी रणनीति के लिए महत्वपूर्ण मानता है। उन्होंने बिना कोई विवरण बताए यह वादा किया है कि जो भी उन्नत प्रौद्योगिकी और घटक हिन्दोस्तानी राज्य चाहते हैं, उन पर बाधाओं को वे दूर करेंगे। इसे एक ऐसे तरीक़े के रूप में भी देखा जा सकता है जिससे अमरीकी साम्राज्यवाद रूस के साथ हिन्दोस्तान के संबंधों को कमज़ोर कर सकता है, जो वर्तमान में परमाणु रिएक्टरों का एकमात्र विदेशी आपूर्तिकर्ता है। हिन्दोस्तानी राज्य के साथ अपने सहयोग को मजबूत करने के अमरीकी साम्राज्यवाद के उपाय हिन्दोस्तान के लिए “जीत” नहीं लेकिन हिन्दोस्तानी लोगों के लिए एक गंभीर ख़तरा है। हथियारों, सामग्रियों और उन्नत प्रौद्योगिकियों की आपूर्ति के माध्यम से, अमरीकी साम्राज्यवाद हिन्दोस्तानी राज्य और उसकी नीतियों को और अधिक बारीकी से नियंत्रित और हेरफेर कर सकता है। वे हमारे लोगों को अपने हितों के लिए उत्पन्न संघर्षों और तनावों में और अधिक घसीट सकता है, जो हमारी अपनी शांति और सुरक्षा को ख़तरे में डालता है।