कारखानों और औद्योगिक इलाकों में दुर्घटनाओं के लिए पूंजीपति और सरकार जिम्मेदार हैं

लगभग हर दिन, देश में कहीं न कहीं, कारखानों और निर्माण-कार्यशालाओं (वर्कशॉप) में जानलेवा दुर्घटनाओं की खबरें आती रहती हैं। यही सच केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के अधीन कारखानों और उद्यमों में भी दिखता है।

24 जनवरी, 2025 को महाराष्ट्र के नागपुर के पास भंडारा शहर में एक आयुध कारखाने में भीषण विस्फोट हुआ, जिसमें 8 मज़दूरों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए। बताया जाता है कि कारखाने में विस्फोटक उपकरण बनाए जाते हैं। पहले भी सरकार के रक्षा मंत्रालय के अधीन आयुध कारखानों में विस्फोट की कई घटनाएं हो चुकी हैं।

इससे पहले, 16 जनवरी को ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में एक सीमेंट प्लांट के परिसर में ढही लोहे की विशाल ढांचे के मलबे से, 36 घंटे के बचाव-अभियान के बाद तीन लापता मज़दूरों के शव बरामद किए गए थे।

11 जनवरी, 2025 को उत्तर प्रदेश के कन्नौज रेलवे स्टेशन पर, एक निर्माणाधीन इमारत की छत का स्लैब गिर गया, जिसके मलबे में कई रेलवे कर्मचारी और कई मज़दूर दब गए।

9 जनवरी, 2025 को छत्तीसगढ़ के एक स्टील प्लांट में चिमनी गिरने से कम से कम चार मज़दूरों की मौत हो गई और कई अन्यों के फंसे होने की आशंका जताई जा रही है।

असम में इसी साल, 6 जनवरी को दीमा-हसाओ पहाड़ी जिले में, एक खदान में अचानक पानी भर जाने से नौ खदान मज़दूर फंस गए थे। यह एक अवैध खदान बताई गई है, जो काम नहीं कर रही है और स्पष्ट रूप से असुरक्षित है।

11 जनवरी तक, चार मज़दूरों के शव बरामद कर लिए गए थे। असम के अन्य जिलों से भी इसी तरह की त्रासदियाँ पहले भी सामने आ चुकी हैं।

हाल के चार वर्षों में, 2020 से 2023 के दौरान, औद्योगिक “दुर्घटनाओं” की संख्या चौंकाने वाली हैं। ये वास्तव में दुर्घटनाएं नहीं हैं क्योंकि प्रत्येक मामले में उन्हें रोका जा सकता था, अगर प्रबंधन की आपराधिक लापरवाही न होती।

2021 में, भारतीय विनिर्माण उद्योग (मैन्युफैक्चरिंग-क्षेत्र), दुर्घटनाओं से भरा हुआ था, जिसमें हर महीने, औसतन

7 दुर्घटनाएं दर्ज की गईं। उसी वर्ष, सीमेंट उद्योग में कम से कम 17 दुर्घटनाएं हुईं। 2022 में कम से कम दस दुर्घटनाएं हुईं। मारे गए या घायल हुए अधिकांश कर्मचारी ठेका-मज़दूर थे। ये दुर्घटनाएं आदित्य बिड़ला समूह के स्वामित्व वाली सीमेंट योजनाओं और होलसिम (बाद में अडानी समूह द्वारा खरीदी गई) जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सहायक कंपनियों में हुईं।

भारतीय राष्ट्रीय सीमेंट मजदूर संघ (आईएनसीडब्लयूएफ) के अनुसार, सीमेंट-उद्योग में लगभग 83 प्रतिशत मज़दूर ठेकेदारों के लिए काम करते हैं, जिन्हें सीमेंट कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट पर रखती हैं।

श्रम और रोजगार मंत्रालय के महानिदेशालय कारखाना सलाह सेवा और श्रम संस्थान (डीजीएफएएसएलआई) के आंकड़ों के अनुसार, 2017 से 2020 के बीच,  कुल पंजीकृत कारखानों में कार्यस्थल-दुर्घटनाओं के कारण औसतन हर दिन तीन लोग मारे गए और 11 घायल हुए। इन आंकड़ों को, सूचना के अधिकार (आरटीआई) के माध्यम से, नवंबर 2022 में इंडियास्पेंड समाचार वेबसाइट द्वारा प्राप्त किया गया था।

आंकड़ों से यह भी पता चला कि 2018 से 2020 के बीच 3,331 मौतें दर्ज की गईं, लेकिन इसी अवधि के दौरान कारखाना अधिनियम 1948 के तहत अपराधों के लिए केवल 14 लोगों को ही जेल भेजा गया।

श्रम और रोजगार मंत्रालय के महानिदेशालय कारखाना सलाह सेवा और श्रम संस्थान (डीजीएफएएसएलआई), राज्य के मुख्य फैक्ट्री निरीक्षकों और औद्योगिक सुरक्षा और स्वास्थ्य निदेशकों से, व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य (ओएसएच) डेटा एकत्र करता है। ये आँकड़े केवल औपचारिक (फॉर्मल) क्षेत्र में पंजीकृत कारखानों से संबंधित हैं, जबकि हम सब जानते हैं कि देश में लगभग 90 प्रतिशत मज़दूर अनौपचारिक (इनफॉर्मल) क्षेत्र में काम करते हैं।

ओएसएच कोड दुर्घटनाओं के लिए ज्यादा गुंजाइश प्रदान करता है।

नया व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य परिस्थितियां (ओएसएच) कोड, 2020 में इस दावे के साथ लागू किया गया था कि इसे कार्यस्थलों में न्यूनतम स्वास्थ्य और सुरक्षा मानकों को निर्दिष्ट करने के लिए डिजाइन किया गया है। हालंाकि, ओएसएच कोड की शर्तों का गहन अध्ययन करने से पता चलता है कि यह उस सीमा को कम कर देगा जिस पर किसी कारखाने को कार्यस्थल पर स्वास्थ्य और सुरक्षा की देखरेख के लिए मज़दूरों और प्रबंधकों से मिलकर एक सुरक्षा समिति स्थापित करनी होगी। कारखाना अधिनियम के तहत, 10 या उससे ज्यादा मज़दूरों वाली एक पंजीकृत फैक्ट्री को, एक सुरक्षा समिति स्थापित करनी होती थी, लेकिन इस नए ओएसएच कोड के तहत, इस सीमा को, एक खतरनाक फैक्टरी के लिए 250 मज़दूरों और एक मानक-फैक्टरी (स्टैण्डर्ड फैक्ट्री) में 500 मज़दूरों तक बढ़ाया जाएगा।

अधिकांश औद्योगिक दुर्घटनाएं अपर्याप्त या अनुपलब्ध सुरक्षा उपकरणों, मज़दूरों को अपर्याप्त या असंगत प्रशिक्षण और सुरक्षा मानकों के उल्लंघन के कारण होती हैं। मज़दूरों को काम पर पर्याप्त सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं – जो श्रम-कानूनों का स्पष्ट उल्लंघन है। ऐसे कोई प्रोटोकॉल और प्रक्रियाएं नहीं हैं जो सुरक्षित कार्य-परिस्थितियां सुनिश्चित कर सकें। यहां तक कि जो मानक संचालन प्रक्रियाएं (स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स) मौजूद हैं, उनका भी आम तौर पर उल्लंघन किया जाता है। ओएसएच कोड के तहत, ट्रेड यूनियनों के पास यह शिकायत करने का कोई तंत्र नहीं है कि सुरक्षा मानकों का उल्लंघन किया जा रहा है।

आधिकारिक ऑडिट, जिनसे यह पता चल सके कि सुरक्षा दिशा-निर्देशों का पालन किया जा रहा है या नहीं, मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों में, या तो बहुत कम या बिल्कुल ही नहीं होते हैं। पिछले पांच वर्षों में सरकार ने सुरक्षा निरीक्षण और लाइसेंसिंग में ढील दी है, ताकि पूंजीपति स्वयं को सुरक्षा कानूनों का अनुपालन करने के रूप में प्रमाणित कर सकें।

सरकार ने, व्यावसायिक बोझ को कम करने और छोटे उद्यमों को समर्थन देने के नाम पर, कंपनियों को स्वास्थ्य और सुरक्षा पर रिपोर्टिंग करने से छूट दे दी है। इस बात के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं कि स्वास्थ्य, सुरक्षा और कारखाना निरीक्षकों की अपर्याप्त संख्या और कार्यस्थलों पर सुरक्षा मानकों के पालन पर सरकारी निगरानी का अभाव, निश्चित रूप से औद्योगिक दुर्घटनाओं में योगदान देने वाले कारणों में से एक हैं। इसके बावजूद सरकार ओएसएच कोड को और कमजोर कर रही है। उत्पादन आपूर्ति श्रृंखला के, छोटे और मध्यम उद्यमों में, उत्पादन के दौरान स्वास्थ्य और सुरक्षा की स्थिति और भी खराब है। बड़ी कंपनियां लागत कम करने और अपने स्वयं के मुनाफे को अधिकतम करने के लिए, छोटे उद्यमों को उप-अनुबंध (सब-कॉन्ट्रैक्ट) देती हैं। छोटी कंपनियां, सुरक्षा उपायों का उल्लंघन करने के बावजूद बच सकती हैं, क्योंकि उन्हें ओएसएच कोड के तहत छूट दी जाएगी, जैसा कि उनमें से कई कम्पनियां पिछले श्रम कानूनों के तहत भी करती आ रही हैं।

इस मज़दूर विरोधी और अमानवीय स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है?

भोपाल में यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में गैस रिसाव की घटना को हुए 40 साल से ज्यादा हो चुके हैं। हमारे देश में औद्योगिक दुर्घटनाएं चौंका देने वाली निरंतरता से हो रही हैं, क्योंकि उस त्रासदी के मूल कारण को समाप्त नहीं किया गया है। सरकारी अधिकारियों की निगरानी में भी, फैक्ट्री मालिक और प्रबंधन के द्वारा सभी सुरक्षा-उपायों का लगातार उल्लंघन किया जाता है क्योंकि कंपनियों को पता है कि वे आसानी से बच निकलेंगे। हमारे देश में लगभग सभी औद्योगिक हादसों में यही सच सामने आता रहा है।

हर बार जब कोई दुर्घटना होती है, तो यह सभी के लिए एक बार फिर वही सच हमारे सामने स्पष्ट उजागर होता है कि अगर फैक्ट्री ने मज़दूरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक निर्माण, संचालन और आपातकालीन प्रतिक्रिया के निर्धारित मानकों का पालन किया होता, तो आपदा को रोका जा सकता था। घटिया निर्माण सामग्री का उपयोग करके, चेतावनी के बावजूद समय पर खराब और दोषपूर्ण उपकरणों को न बदलकर, पर्यावरण-मानकों का उल्लंघन करके और उच्च-जोखिम वाले खतरनाक कार्यों में, अप्रशिक्षित और अस्थायी अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) मज़दूरों का इस्तेमाल करके, मानव जीवन की कीमत पर पैसा बचाने की कोशिश की जाती है।

पूंजीपति, चाहे हिन्दोस्तानी हों या विदेशी, अपने मज़दूरों की सुरक्षा से ज्यादा अपने मुनाफे की परवाह करते हैं। संबंधित सरकारी मंत्रालय और विभाग आपराधिक-लापरवाही के दोषी हैं। लाइसेंसिंग और निरीक्षण अधिकारी सभी सुरक्षा मानदंडों का उल्लंघन करते हुए पूंजीवादी मालिकों के साथ सक्रिय रूप से मिलीभगत करते हैं। इसके अलावा, जब जानलेवा हादसे होते हैं, तो उनकी जांच के लिए गठित समितियों का उपयोग वास्तव में, सच को छिपाने और मालिकों को दोषमुक्त करने के लिए किया जाता है।

जानबूझकर क़ानूनन, ज़िम्मेदारी और जवाबदेही में कोई स्पष्टता नहीं है, जिसके चलते पूंजीवादी मालिक बेदाग बच निकलते हैं। मज़दूरों की मौत या चोट के हर मामले में, सरकारी अधिकारी, मारे गए लोगों के परिवारों के प्रति सहानुभूति का दिखावा करते हैं और मुआवजे के रूप में कुछ अनुग्रह राशि की घोषणा करते हैं।

मेहनत करने वालों के प्रति, इस व्यवस्था की आपराधिक उदासीनता, पूरी तरह से निंदनीय है और सत्ता में बैठे लोगों को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। पूंजीवादी उद्यमों के मालिकों, उनके मुख्य अधिकारियों के साथ-साथ, राज्य और उसके अधिकारियों को, मज़दूरों की मौत और चोटों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। सुरक्षा मानकों के उल्लंघन को एक अपराध माना जाना चाहिए, न कि सिर्फ एक भूल-चूक।

अर्थव्यवस्था के हर उद्योग और क्षेत्र के मज़दूरों को सुरक्षा मानकों की एक संहिता और उसके सख्त पालन के लिए अपना संघर्ष जारी रखना चाहिए। सभी कार्य स्थलों पर सुरक्षा मानकों को सुनिश्चित करने के लिए संघर्ष, शासक पूंजीपति वर्ग के मजदूर-विरोधी हमले के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग के संघर्ष का हिस्सा है।

भोपाल गैस त्रासदी के बाद प्रमुख औद्योगिक दुर्घटनाएं

वर्ष 2009 में, छत्तीसगढ़ में अब तक की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना में 41 मज़दूरों की जान चली गई थी। बाल्को के परिसर में 1200 मेगावाट के बिजली संयंत्र में निर्माणाधीन 275 मीटर ऊंची चिमनी ढह गई थी। न्यायिक आयोग ने कंपनी और प्रशासन को घटिया निर्माण सामग्री के इस्तेमाल करने का दोषी पाया था।

वर्ष 2014 में एक गंभीर आपदा हुई थी, जो 3 दिसंबर, 1984 को भोपाल में हुए जानलेवा गैस रिसाव की याद दिलाती है। 12 जून, 2014 की रात को जहरीली गैस के रिसाव के कारण भिलाई इस्पात संयंत्र (बीएसपी) के कम से कम छः मज़दूरों की मौत हो गई थी और 30 से ज्यादा घायल हो गए थे। बीएसपी में रिसाव से एक साल पहले से ही प्लांट प्रबंधन को पाइपलाइन की खराब स्थिति के बारे में बार-बार सूचित किया गया था, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। जाहिर है, पाइपलाइन फटने से पहले, पिछले 24 घंटों में, कम मात्रा में परन्तु लगातार गैस का रिसाव हो रहा था। बीएसपी कर्मचारी यूनियन के सदस्यों ने तब बताया था कि बीएसपी प्रबंधन का, सुरक्षा की अनदेखी करने का एक दर्दनाक इतिहास रहा है। इस दुर्घटना से पहले तीन दशकों तक कई पाइपलाइनों को बदला नहीं गया था।

मई 2020 में विशाखापटनम में, एलजी पॉलिमर प्लांट में, एक बड़ी गैस रिसाव आपदा देखी गई। सुबह 3 बजे, स्टाइरीन गैस का रिसाव हुआ, जब शहर के आस-पास के इलाकों में लोग गहरी नींद में सो रहे थे। गैस के संपर्क में आने से कम से कम 12 लोगों की तुरंत मौत हो गई। गैस के संपर्क में आने से अनुमानित 5000 लोग बीमार हो गए। रिसाव तब हुआ, जब नियामक मंजूरी का उल्लंघन करते हुए, लॉकडाउन के बाद, प्लांट को फिर से शुरू करने की तैयारी की जा रही थी। प्लांट के मालिकों ने, प्लांट की क्षमता 450 टन प्रतिदिन से बढ़ाकर 650 टन कर दी थी और बाद में पर्यावरण मंजूरी के लिए आवेदन किया था। राज्य के अधिकारियों ने, नवंबर 2019 में कंपनी को एक नोटिस भेजा था कि उसके पास पर्यावरण मंजूरी नहीं है। इस प्रकार प्लांट को शुरू करने का प्रयास, पर्यावरणीय मंजूरी का स्पष्ट उल्लंघन था।

21 जनवरी, 2022 को, सूरत जिले के, सचिन खाड़ी से निकलने वाली जहरीली गैस की कारण, एक कपड़ा रंगाई और छपाई कारखाने के, छः मज़दूरों की मौत हो गई और 29 अन्य मज़दूरों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस हकीकत की पुष्टि की कि सोडियम हाइड्रोसल्फाइड और सोडियम थायोसल्फेट को अवैध रूप से प्राकृतिक खाड़ी में छोड़ा गया था।

देश में खतरनाक रासायनिक और धातु निर्माण इकाइयों के आसपास हवा, पानी और जमीन के जबरदस्त प्रदूषण के कई अन्य उदाहरण हमारे सामने हैं।

इनमें से एक प्रमुख मामला, स्टरलाइट कंपनी का है। इस कंपनी ने 2018 में, सरकारी अधिकारियों की अनुमति के बिना और बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों की अनदेखी करते हुए, एक विस्तार योजना शुरू की। इस कंपनी का, 1996 में तमिलनाडु के थूथुकुडी जिले में अपना परिचालन शुरू करने के बाद से अपनी तांबा इकाई के आसपास के क्षेत्र में भूजल के व्यापक प्रदूषण और संदूषण का लम्बा दर्दनाक इतिहास रहा है। कारखाने से जहरीली गैसों के रिसाव से होने वाली दुर्घटनाओं के कारण कंपनी के कई मज़दूर और आसपास के लोग मारे गए और गंभीर रूप से बीमार भी पड़े। इसके अलावा, कंपनी के आसपास के क्षेत्र के लोगों में कैंसर और फेफड़े और सांस संबंधी बीमारियों, गर्भपात, विकलांगता आदि की, और अधिक घटनाओं का सामना करने की ख़बरें भी सामने आयी थी।

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