भोपाल गैस रिसाव की त्रासदी की 40वीं बरसी

40 साल पहले, 2-3 दिसंबर 1984 की रात को, दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी हमारे देश के भोपाल शहर में हुई थी।

Bhopal-survivors-2012उस रात, शहर के रिहायशी इलाकों के ठीक बगल में स्थित यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के परिसर में कंटेनरों में रखी जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) का बड़ी मात्रा में रिसाव हो गया। जहरीला धुआं तेज़ी से पूरे शहर में फैल गया, जिससे भोपाल के 56 नगरपालिका वार्डों में से 36 प्रभावित हुए। आधिकारिक तौर पर कहा गया था कि उस रात गैस विषाक्तता के कारण 2,500 से ज़्यादा लोग मारे गए थे। जबकि तब से अब तक 35,000 से ज़्यादा लोग गैस से जुड़ी बीमारियों के कारण मर चुके हैं। उस समय भोपाल की कुल दस लाख से भी कम आबादी में से लगभग 5,50,000 लोगों के स्वास्थ्य को गंभीर नुक़सान पहुंचा था।

त्रासदी के तुरंत बाद, और उसके बाद के महीनों व वर्षों में, जो बात सामने आई, वह है कि यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के अधिकारियों, राज्य और केंद्र सरकार, सभी ने अपनी खुद की ग़लती को छिपाने में मिलीभगत की। साथ ही उन्होंने त्रासदी की भयावहता को मिलकर छुपाया और फिर यह सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास किया कि प्रभावित लोगों को कभी न्याय न मिले।

यूसीआईएल, एक विशाल बहुराष्ट्रीय निगम है, जिसका मुख्यालय अमरीका में है। वह हिन्दोस्तान, जो कि दुनिया में रासायनिक कीटनाशकों का एक बड़ा बाज़ार है, में रुचि रखता था। सायनाइड युक्त गैस एमआईसी, कीटनाशक सेविन में एक घटक थी जिसे वे हिन्दोस्तानी बाज़ार में बेचते थे। गैस रिसाव होने से बहुत पहले, स्थानीय यूनियनों और पत्रकारों ने संभावित सायनाइड विषाक्तता के ख़तरों को उजागर किया था। उन्होंने कई बार चेतावनी दी थी कि शहर और कारखाने के आसपास के इलाके एक टाइम बम की तरह हैं। उन्होंने बताया कि लागत कम करने और अपने मुनाफे़ को अधिकतम करने की लालच में, कंपनी ने सुरक्षा सावधानियों का उल्लंघन किया था और रसायनों को ठीक से संग्रहीत करने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए थे।

जब ज़हरीली गैसों का रिसाव हुआ, तो ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोगों द्वारा उठाया गया पहला क़दम यह था कि यह छुपाया जाए कि इन गैसों में एमआईसी है। इससे समय पर उपचार में देरी हुई, जबकि सैकड़ों लोगों की जानें बचाई जा सकती थीं।

Bhopal-survivors-2012अधिकारियों द्वारा फैलाए गए झूठे प्रचार और पीड़ित लोगों की दुर्दशा के प्रति चिकित्सा राहत, पुनर्वास, दस्तावेज़ीकरण और अनुसंधान से संबंधित मामलों में उनकी उदासीनता ने गैस पीड़ितों द्वारा झेले गए आघातों और कष्टों को और बढ़ा दिया। एमआईसी से संबंधित विषाक्तता के सर्वोत्तम संभावित एंटिडोट के बारे में यूसीसी/यूसीआईएल पूरी तरह चुप रहा। इसने एंटिडोट (विष नाशक) के रूप में सोडियम थायोसल्फेट के प्रयोग का कड़ा विरोध किया था। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के एक प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. श्रीरामचारी ने त्रासदी के बाद बताया कि जैसे ही भोपाल गैस त्रासदी हुई, यूनियन कार्बाइड कंपनी ने सच्चाई को दबाने और झूठ फ़ैलाने की नीति अपनाई।

अगले कुछ हफ़्तों में लोगों की मदद के लिए भोपाल में आए स्वैच्छिक सामाजिक संगठनों, डॉक्टरों और शिक्षाविदों ने नुक़सान की सीमा और लक्षण का पता लगाने के लिए घर-घर जाकर विस्तृत सर्वेक्षण किया। सरकार ने उनके काम में बाधा डाली। सरकार ने सुनिश्चित किया कि इन सर्वेक्षणों के परिणाम कभी भी सार्वजनिक नहीं किए जाएं या राहत कार्य में शामिल एजेंसियों को भी मुहैया न कराए जाएं।

यहां तक कि त्रासदी की जांच के लिए नियुक्त किये गये न्यायमूर्ति एनके सिंह आयोग ने भी जांच के काम को मुश्किल बनाने के लिए और देरी करने की रणनीति अपनाने के लिए राज्य सरकार और उसकी एजेंसियों की आलोचना की। नतीजतन, प्रभावित लोगों का कोई व्यापक मेडिकल रिकॉर्ड नहीं रखा गया। इससे पीड़ित परिवारों को उचित उपचार और मुआवज़े नहीं मिले।

यूसीआईएल के प्रमुख वारेन एंडरसन को केंद्र सरकार की मदद से उनकी गिरफ़्तारी के जारी वारंट के बावजूद, हिन्दोस्तान से भागने की अनुमति दी गई। लेकिन उनके नेतृत्व में यूनियन कार्बाइड के अपराधों के लिए उन्हें कभी दोषी नहीं ठहराया गया।

इसके बाद केंद्र सरकार ने लाखों प्रभावित लोगों को न्याय या मुआवज़ा पाने से रोकने के लिए आपराधिक रूप से भ्रामक उपायों का सहारा लिया। मार्च 1985 में इसने भोपाल गैस रिसाव त्रासदी (दावों का प्रसंस्करण) अधिनियम पारित किया। जिसने हिन्दोस्तानी सरकार को यूनियन कार्बाइड के ख़िलाफ़ दीवानी के मुकदमे में पीड़ितों का प्रतिनिधित्व करने का एकमात्र अधिकार दिया।

भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के हितों की रक्षा करना और इस आपदा के लिए ज़िम्मेदार लोगों को कड़ी सज़ा देना – यह हिन्दोस्तानी सरकार का कर्तव्य था। इसके बजाय, आगे के घटनाक्रम ने दिखाया कि हिन्दोस्तानी सरकार ने इस अधिनियम का इस्तेमाल यूसीआईएल के हितों की रक्षा करने और त्रासदी के पीड़ितों के हितों पर हमला करने के लिए किया।

1989 में, पीड़ितों और उनके प्रतिनिधियों से किसी भी परामर्श या सहमति के बिना, सरकार ने एकतरफ़ा यूनियन कार्बाइड के साथ एक समझौता किया। इसने मुआवजे़ के रूप में 470 मिलियन अमरीकी डॉलर की बेहद कम राशि स्वीकार की। पीड़ितों और उनके परिवारों को प्रत्येक मृत्यु के लिए केवल 1 लाख रुपये और आजीवन चोट के लिए 25,000 रुपये मिले। इसके बदले में, यूनियन कार्बाइड, इसकी सहायक और सहयोगी कंपनियों को उनके अपराध के लिए सभी नागरिक दायित्वों से मुक्त कर दिया गया। उनके ख़िलाफ़ कोई आपराधिक कार्यवाही भी शुरू नहीं की जा सकी। सरकार ने कंपनी के ख़िलाफ़ किसी भी मुकदमे में कंपनी का बचाव करने का फ़ैसले लिया। इस तरह पीड़ितों के लिए न्याय पाने के सभी रास्ते हमेशा के लिए बंद हो गए।

इसके बावजूद, आपदा से प्रभावित लोगों के कई संगठन न्याय के लिए सभी बाधाओं के बावजूद बहादुरी से संघर्ष कर रहे हैं।

कई अध्ययनों से पता चला है कि जहरीली गैस के रिसाव से मिले सबक को कभी स्वीकार नहीं किया गया। न ही ऐसी त्रासदियों को फिर से होने से रोकने के लिए कोई क़दम उठाए गए। शासक वर्ग और राज्य के लिए आम लोगों के जीवन का कोई मूल्य नहीं है। भले ही इसमें एक ही झटके में हजारों लोग मारे जाएं। यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री द्वारा छोड़ा गया परिसर, अपने सभी जंग खाए उपकरणों और ज़मीन में घुलते जहरीले रसायनों के साथ अभी भी खड़ा है। यह लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण के प्रति अधिकारियों की निष्ठुर उदासीनता का प्रमाण है।

इस आपदा से हमारे लोगों को क्या सबक लेना चाहिए? यही कि हिन्दोस्तान और विदेश में बड़े पूंजीपति हमारे लोगों का शोषण करके अधिकतम लाभ कमाने के लिए कुछ भी करने से नहीं चूकेंगे। यह कि ये पूंजीपति अपने कार्यों को सुविधाजनक बनाने और लोगों के ख़िलाफ़ अपने अपराधों को छिपाने के लिए राज्य और उसकी सभी एजेंसियों का इस्तेमाल करते हैं। पूंजीपतियों से लोगों को न्याय दिलाने के लिए राज्य के किसी भी अंग पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

मेहनतकश लोगों को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि मौजूदा राज्य कभी उनके हितों की रक्षा करेगा। हिन्दोस्तान में मौजूदा राज्य पूंजीपतियों की तानाशाही है। यह राज्य पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए लगातार काम करता है ताकि उन्हें लोगों के ख़िलाफ़ जघन्य अपराध करने, जिसमें इस तरह की सामूहिक हत्याएं भी शामिल हैं, की पूरी छूट है।

भोपाल में हुई अभूतपूर्व त्रासदी के चालीस साल बाद, हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि पीड़ितों और उनकी पीड़ा की याद को कभी न भुलाया जाए और शासकों को हमारे लोगों के ख़िलाफ़ ऐसे अपराध करने से रोकने के लिए अपना संघर्ष जारी रखना चाहिए। हमें पूंजीपतियों के मौजूदा शासन को मज़दूरों, किसानों और सभी मेहनतकश लोगों के शासन से बदलने के नज़रिए से अपने संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा, जो ऐसी त्रासदियों के ख़िलाफ़ एकमात्र गारंटी है।

Share and Enjoy !

Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *