कनाडा में हिन्दोस्तानी छात्रों का अनिश्चित भविष्य

मज़दूर एकता कमेटी के संवाददाता की रिपोर्ट

17 नवम्बर, 2024 को मज़दूर एकता कमेटी ने ‘कनाडा में हिन्दोस्तानी छात्रों का अनिश्चित भविष्य’ – इस विषय पर एक सभा का आयोजन किया। इस सभा में देश के अलग-अलग हिस्सों से छात्रों, शिक्षकों, अधिवक्ताओं, मज़दूरों, किसानों, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं, महिला संगठनों के कार्यकर्ताओं, आदि ने हिस्सा लिया। इसके अलावा, सभा में कनाडा, इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया, आदि कई देशों से लोग शामिल हुये।

सभा को संबोधित करने वालों में मुख्य वक्ता थे – मज़दूर एकता कमेटी से श्री संतोष कुमार; नौजवान सपोर्ट नेटवर्क आर्गेनाइजेशन, बै्रम्पटन, ओंटारियों कनाडा से श्री बिक्रमजीत सिंह कुल्लेवाल; इंडियन वर्कर्स एसोसियेशन (ग्रेट-ब्रिटेन) से श्री दलविंदर; और कनाडा के ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता श्री इंदरदीप सिंह।

श्री बिरजू नायक ने मंच का संचालन किया।

Student_photo with zoom mtgश्री संतोष कुमार ने अपने संबोधन में कहा कि आंकड़ों के मुताबिक 2024 में लगभग 4,27,000 हिन्दोस्तानी छात्र कनाडा में पढ़ रहे हैं। यह संख्या कुल अंतर्राष्ट्रीय छात्रों का 40 प्रतिशत है। कनाडा हिन्दोस्तान जैसे देशों से आप्रवासन को प्रोत्साहित करता रहा है, क्योंकि इससे कनाडा के पूंजीपतियों के लिये कुशल व सस्ता श्रम मिलता है, जिनका अत्याधिक शोषण किया जा सकता है।

उन्होंने बताया कि अभी हाल ही में कनाडा ने फास्ट ट्रैक स्टडी वीज़ा प्रोग्राम (पी.टी.एस.डब्ल्यू.पी.), स्टूडेंट डायरेक्ट स्ट्रीम (एस.डी.एस.) को तत्काल प्रभाव से ख़त्म कर दिया है। इसके साथ-साथ पोस्ट ग्रेजुएशन वर्क परमिट (पी.जी.डब्ल्यू.पी.) में भी बदलाव किया गया है। इसकी वजह से 70,000 से 1,30,000 अंतर्राष्ट्रीय छात्रों के वीज़ा की अवधि 2024 और 2025 में समाप्त हो जाएगी। छात्रों को शंका है कि उन्हें वीज़ा एक्सटेंशन और स्थायी निवास नहीं मिलेगा। कनाडा की कई प्रांतीय-सरकारें, वर्क-परमिट के नियमों में भी बदलाव कर रही हैं। उदाहरण के लिए, प्रिंस एडवर्ड आइलैंड में, अब नए आप्रवासियों को केवल स्वास्थ्य सेवा और प्राथमिक शिक्षा जैसे कुछ चुनिंदा कार्य क्षेत्रों में ही स्थायी-निवास (परमानेंट रेजिडेंस) दिया जाएगा।

उन्होंने बताया कि गारंटीड इन्वेस्टमेंट सर्टिफिकेट (जी.आई.सी.) स्कीम के तहत हिन्दोस्तानी छात्रों को कनाडा में पढ़ने के लिए बाध्यकारी लगभग 10,000 कनेडियन डॉलर का निवेश करना पड़ता था। यह छात्रों के फंड्स का प्रूफ भी होता है। निवेश और उसके रिटर्न से छात्रों के एक साल तक रहने के खर्च की पूर्ति हो जाती थी। लेकिन यह ट्यूशन फीस को कवर नहीं करता है, जिसे अलग से भरना पड़ता है। कनाडा के निवासी-छात्र की ट्यूशन फीस से तीन से पांच गुना अधिक ट्यूशन फीस अंतर्राष्ट्रीय छात्रों को देनी पड़ती है। कनाडा के निजी कॉलेजों में यह फीस 10,000 कनेडियन डॉलर प्रति माह है – यानि कि 6 लाख रुपये प्रति माह से अधिक।

कनाडा की सरकार ने दिसंबर 2023 से जी.आई.सी. को दोगुना कर दिया है। अब यह 20,635 कनेडियन डॉलर है। जो कि हिन्दोस्तान का 12,75,878 रुपये होता है। कनाडा में छात्रों को बेसमेंट में रहने के लिये 600 से 650 कनेडियन डॉलर देने पड़ते हैं जो कि हिन्दोस्तान का 35,000 से 40,000 रुपये होता है। कई जगहों पर तो छात्र मोटरगाड़ियों में रहने के लिये मजबूर हैं।

कनाडा में कई जगह छात्रों ने वीजा एक्सेंटशन की नीति में बदलाव, जी.आई.सी. को दोगुना किये जाने और एस.डी.एस. के ख़त्म किए जाने के ख़िलाफ़ धरना प्रदर्शन किए हैं।

श्री संतोष ने कहा कि पूंजीवादी व्यवस्था के चलते, आर्थिक संकट आने पर शिक्षा व रोज़गार के साधनों में कटौती की पहली मार ख़ास तौर पर आप्रवासी छात्रों और मज़दूरों पर पड़ती है। स्थानीय छात्रों व मज़दूरों में यह प्रचार किया जाता है कि आप्रवासी आकर तुम्हारे शिक्षा व रोज़गार के मौके को छीन रहे हैं, और इस प्रकार उन पर नस्लवादी हमले भड़काए जाते हैं। यह पूंजीवादी व्यवस्था के बेहद अमानवीय चरित्र का एक और सीधा उदाहरण है। इससे साबित होता है कि पूंजीवादी व्यवस्था लोगों के लिए सुरक्षित और खुशहाल भविष्य सुनिश्चित नहीं कर सकती।

_photo with zoom_Truckनौजवान सपोर्ट नेटवर्क आर्गेनाइजेशन बै्रम्पटन, ओंटारियों कनाडा से श्री बिक्रमजीत सिंह कुल्लेवाल ने कनाडा में छात्रों पर हो रहे हमलों के बारे में बहुत ही विस्तार से बताया। उन्होंने बताया कि 27 अप्रैल, 2024 से बै्रम्टन के सेंटर में हमारा धरना चल रहा है। कनाडा की सरकार ने आप्रवासन के नियमों में और छात्रों की पढ़ाई और स्थाई निवास से संबंधित नीतियों में कई बड़े बदलाव किये हैं। हमारा संगठन इसका विरोध कर रहा है। अगले साल कनाडा में चुनाव होने वाले हैं। कनाडा राज्य लोगों के गुस्से को सोच-समझकर आप्रवासी छात्रों और आप्रवासी मज़दूरों के ख़िलाफ़ मोड़ने की कोशिश कर रहा है, ताकि लोगों का गुस्सा पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की ओर न जाये। हाल में कनाडा के शिक्षा मंत्री ने आवास के संकट के लिए आप्रवासी छात्रों को ज़िम्मेदार बताया है। इसके चलते सोशल मीडिया पर आप्रवासी छात्रों और मज़दूरों के ख़िलाफ़ नफ़रती और नस्लवादी प्रचार किया जाने लगा है।

यहां अंतर्राष्ट्रीय छात्र या मज़दूर उन कामों को करते हैं, जिसे कनाडा के मज़दूर करना पसंद नहीं करते हैं। इन कामों में कम वेतन मिलता है। आर्थिक मंदी के चलते इन कामों की ओर कनाडा के लोग देखने लगे हैं, तब उनको लगता है कि आप्रवासी हमारी नौकरियों के मौकों को कम कर रहे हैं।

कोविड के समय में ओंटारियों में सरकार ने शिक्षा, काॅलेज और विश्वविद्यालय पर सरकारी खर्च में भारी कटौती की थी। साथ ही शिक्षण संस्थानों को अंतर्राष्ट्रीय छात्रों को दाखिला देने की खुली छूट दी थी, ताकि ये संस्थान अपना घाटा पूरा कर सकें। क्षमता से बहुत अधिक छात्रों को दाखिला दिया गया। ओंटारियों अंतर्राष्ट्रीय छात्रों से भर गया। इसमें सबसे ज्यादा हिन्दोस्तानी छात्र हैं। दूसरे नम्बर पर चीन के छात्र हैं, उसके बाद फिलिपींस के छात्र हैं। कोविड के दौरान एक शिक्षक 300 से 500 छात्रों को आनलाईन पढ़ाने लगा। तब छात्र घर से पढ़ रहे थे। जब कोविड ख़त्म हुआ तो सभी छात्र कनाडा पहुंचे। छात्रों ने मांग की कि अब कालेजों में पढ़ाई करवाई जाये। कॉलेजों ने अगले सेमेस्टर में पढ़ाने के लिये घोषणा की, जिसका छात्रों ने विरोध किया और कालेजों के सामने धरने पर बैठ गये। हमारी पहले से ही मांग रही है कि 2-2 कमरों के कॉलेजों और 3-3 कमरे के विश्वविद्यालयों को बंद किया जाये।

कोविड के दौरान, दो साल तक स्थायी निवास के लिए नियुक्तियां बंद रहीं। कोविड में छात्रों ने दो-दो शिफ्टों में काम किया। छात्रों को कोविड वारियर कहा गया था, छात्रों को रिवार्ड भी दिये गये। टीआर टू पीआर प्रोग्राम (अस्थायी नागरिकता से स्थायी नागरिकता कार्यक्रम) निकाला गया। मगर उसमें 30-40 हजार छात्रों को ही पक्का किया गया, लेकिन काम तो लाखों बच्चों ने किया था।

इस साल तक 1 लाख, 30 हजार छात्रों का वर्क परमिट समाप्त हो रहा है। ये लोग दोबारा से और समय एक्सटेंशन की मांग कर रहे हैं। सरकार ने एक्सटेंशन देने से मना कर दिया है। छात्रों के पास कनाडा में रुकने का कोई रास्ता नहीं बचा है। अतः उन्होंने विनिपैग में प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। उसके बाद प्रिंसएडवर्ड आइलैंड में प्रदर्शन शुरू कर दिया। क़रीब 100 दिन वहां पर स्थायी धरना चला।

जो छात्र या मज़दूर अपनी ज़मीन खेत बेचकर हिन्दोस्तान से कनाडा आए हैं, मजबूर होकर रिफ्यूजी का केस डाल रहे हैं। जिसका फै़सला 4-5 साल बाद आयेगा। उनको चार साल का और समय मिल जायेगा। लेबर मार्केट इंपेक्ट असेसमेंट – यह एम्पलाॅयर के साथ दो साल का क्लोज वर्क परमिट है। इस परमिट से आप दो साल कनाडा में रुक सकते हैं। यह परमिट अब 30-40 हजार कनेडियन डॉलर में मार्केंट में ब्लैक में बिक रहा है। कनाडा में रुकने का एक और तरीक़ा है, जिस कालेज सरकार ने बंद कर दिया है, उसमें 10 से 15 हजार डाॅलर में दाखिला लेकर। लेकिन उसमें आपको वर्क परमिट नहीं मिलेगा।

अगले साल तक, कुल मिलाकर वर्क परमिट ख़त्म होने वालों की संख्या 10 लाख होने का अनुमान है। आज तक की यह हालात है। अगले साल चुनाव है। लिबरल पार्टी हमारे खि़लाफ़, समुदाय में प्रचार कर रही है कि ये लोग पब में नाचते हैं। गदंगी फ़ैलाते हैं। पढ़ते नहीं हैं। हमारे पास काम का अनुभव नहीं है। जबकि हम लोग जो धरने पर बैठे हैं, सभी कुशल श्रमिक हैं। पार्टियों के ग़लत प्रचार के बावजूद लोग हमारे साथ हैं।

यहां पर दो उद्योग रीढ़ की हड्डी माने जाते हैं। एक है ट्रक इंस्ड्रस्टीज और दूसरा रियल एस्टेट। इन दोनों ही बड़ी इंड्रस्टीज का बुरा हाल है, नौकरियां नहीं हैं।

कुल मिलाकर अगले साल यह बड़ी लड़ाई बन जायेगी। छात्रों और मज़दूरों का दमन हो रहा है। उसके ख़िलाफ़ हमें एकजुट होकर संघर्ष करना होगा। इसके अलावा कोई रास्ता हमारे सामने नहीं है।

श्री इंदरदीप सिंह ने बताया कि 1970 से पहले यह प्रचार किया जाता था कि आप्रवासी आ रहे हैं, यहां के मूल निवासियों की नौकरियां छीन लेंगे। इसके ख़िलाफ़ लोगों ने बहुत संघर्ष भी किया था। उसी प्रचार को नया रंग देकर आज भी पेश किया जा रहा है। समस्या इस पूंजीवादी व्यवस्था की है।

कनाडा की सरकार मानती है कि शिक्षा एक उद्योग है न कि समाज सेवा। उद्योग का एक ही लक्ष्य होता है, ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कमाना। शिक्षा एक समय पर सेवा मानी जाती थी, लेकिन अब उद्योग है।

पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप (सार्वजनिक निजी सांझेदारी) के तहत बड़े-बड़े शहरों में कालेज खोले जा रहे हैं। ये बड़े कालेजों के साथ समझौता करके छात्रों को ऑफर लेटर देते हैं। छोटे शहरों में जहां कालेजों के हेडक्वाटर हैं, वहां इतनी नौकरियां नहीं होती हैं। कालेज सिर्फ़ पैसे बना रहे हैं। यहां ऐसे भी संस्थान हैं जहां पर 80 से 95 फीसदी अंतर्राष्ट्रीय छात्र हैं। अंतर्राष्ट्रीय छात्रों से 3 से 5 गुनी ज़्यादा फीस वसूली जाती है। जो छात्र तीन से पांच गुनी फ़ीस दे रहे हैं उससे भी पैसे बना रहे हैं। उसके बाद छात्र काम कर रहे हैं। अपनी रोज़मर्रा की वस्तुयें ख़रीद रहे हैं वह भी अपना पैसा अर्थव्यवस्था में दे रहे हैं। छात्र अर्थव्यवस्था को चलाने में पूरा योगदान कर रहे हैं।

आप्रवासी 20 घंटे तक काम करके अपना गुजारा नहीं कर पा रहे हैं। कनाडा में न्यूनतम वेतन का प्रावधान है। जिसके पास पूरा पेपर वर्क है, पूरे घंटे काम कर सकता है, वह चाहे तो न्यूनतम वेतन से कम पर नौकरी करने से मना कर सकता है। लेकिन छात्रों के पास नौकरी करने के मौके कम हैं। उनको अपना खर्च भी पूरा करना है। कई जगह तो उनको न्यूनतम वेतन का 60 से 70 प्रतिशत ही वेतन मिलता है। हिन्दोस्तान में छात्रों को सपना बेचा जाता है कि छात्र वीज़ा लेकर वहां काम भी कर सकते हैं और पढ़ाई भी कर सकते हैं। बाद में वहां के स्थायी निवासी हो सकते हैं। छात्र कई ऐसे कोर्स करते हैं जिससे उनको नौकरी नहीं मिलती है।

सार्वजनिक निजी सांझेदारी में कालेज खोलने के लिए स्थानिय व प्रांतीय सरकार, दोनों से अनुमति लेनी पड़ती है। कालेज के ऑफर लेटर पर फेडरल सरकार वीज़ा देती है। फेडरल सरकार के मुताबिक़ इतने लोग यहां नहीं हो सकते हैं। फिर इतने वीज़ा जारी ही क्यों किए गए हैं? जवाबदेही भी उनकी बनती है।

इन छात्रों ने एक बड़ा अच्छा नारा दिया है कि ‘हम काम करने के लिये अच्छे हैं तो हम रहने के लिये अच्छे क्यों नहीं?’ यही नारा अस्थाई खेत मज़दूर भी उठा रहे हैं। अस्थाई मज़दूर यहां पर खेतों में पिछले 12-16 सालों से काम कर रहे हैं। उनके पास स्थायी निवास का स्टेटस नहीं है। वे फ़सल के समय पर खेतों में काम करते हैं और वापस चले जाते हैं।

उन्होंने बताया कि शिक्षा पर सरकारी खर्चा कम हो रहा है। ओंटारियो प्रांत में कालेजों में 76 प्रतिशत ट्यूशन फीस अंतर्राष्ट्रीय छात्रों से आ रही है। सिर्फ़ 24 प्रतिशत फीस स्थानीय छात्रों से आती है। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है हिन्दोस्तान से आने वाले छात्र ओंटारियों के कालेजों को संचालन के लिए लगभग 12 करोड़ डालर की आय दे रहे हैं। यह सब कुछ लेने के बाद भी वे कहते हैं कि आप यहां अच्छे नहीं हैं। इतनी ज्यादा फ़ीस देने के बावजूद सबसे ज़्यादा समस्या ब्रिटिश कोलंबिया और ओंटारियो में है। ओंटारियो में सबसे ज्यादा निजी कालेज हैं। सभी स्तर पर कनाडा सरकार की जवाबदेही तय होनी चाहिये।

सबसे बड़ी बात है कि सरमायदारी को सस्ता श्रम चाहिये। आप्रवासन नहीं होगा तो मज़दूर कहां से आयेंगे।

कनाडा के टोरांटो शहर की पंजीकृत आबादी 28 लाख है। असलियत में यहां रहने वाले 10 में से एक व्यक्ति फूड बैंक पर निर्भर करता है। अच्छी बात है कि इस मीटिंग की वजह से लोगों को कनाडा की असलियत पता चल रही है। आप्रवासी छात्रों और मज़दूरों के हालात के बारे में भी लोगों को पता चलेगा।

इंडियन वर्कर्स एसोसियेशन (ग्रेट-ब्रिटेन) से श्री दलविन्दर ने बताया कि कनाडा जैसी स्थिति इंग्लैंड में भी है। पहले छात्र के साथ उसका जीवन साथी आ सकता था और काम कर सकता था। अब ये सारे नियम ख़त्म कर दिए गये हैं। प्रवासी छात्र ज्यादा घंटे काम करते हंै तो वे पढ़ाई नहीं कर पाते हैं। वे पास होते हैं या नहीं, उसकी किसी को कोई परवाह नहीं है। विश्वविद्यालयों को अपनी फ़ीस से मतलब है। इंग्लैंड के विश्वविद्यालय भी छात्रों से बहुत मुनाफ़ा कमाते हैं। पहले सरकार विश्वविद्यालय को अनुदान देती थी। अब अनुदान बहुत कम कर दिया गया है। पहले तो यहां पर छात्रों को खाने, आवास, पढ़ने के लिये सरकार धन देती थी। अब हालात बिल्कुल बदल गये हैं। यहां के छात्रों का एक साल का फ़ीस 9,535 पाउंड है, लगभग 10 लाख रुपये।

उन्होंने कहा कि बहुत से छात्र इसका भुगतान नहीं कर सकते हैं। इसके अलावा, होस्टल में रहने का किराया और खाने पर खर्च भी अंतर्राष्ट्रीय छात्रों के लिए फीस के दोगुना से ज्यादा है। पिछले साल 1,45,693 छात्र आये थे। 2024 में 1,10,000 रह गये हैं। यहां पर भी 75 कालेज और फर्जी विश्वविद्यालय पकड़े गये हैं। इनमें सिर्फ़, हिन्दोस्तान और पाकिस्तान के आप्रवासी छात्र ही थे। देश से जो सपना लेकर आये थे कि हम पैसा कमायेंगे, घर वालों को भेजेंगे, वे लोग पुल या रेलव पुल या नहर के किनारे टेंट के नीचे सोते हैं। इन लोगों को कंपनियां काम देकर जबरदस्त शोषण करती हैं।

उन्होंने बताया कि हिन्दोस्तान में पूंजीवादी व्यवस्था है। यह नौजवानों को नौकरियां नहीं दे सकता है। लोग मजबूर होकर बाहर के मुल्कों में जाते हैं। इसका असली हल तब ही होगा जब हिन्दोस्तान के लोग अपने देश में मज़दूरों-किसानों का राज स्थापित करेंगे। समस्या से भागकर दूर जाने से समस्या हल नहीं होगी। हमें इन्हीं समस्याओं का सामना दूसरे देशों में भी करना पड़ेगा। पूरी दुनिया में ऐसा ही है। मज़दूरों-किसानों को पूरी दुनिया में संघर्ष करना पड़ेगा। और कोई रास्ता नहीं है।

पुरोगामी महिला संगठन से रिया ने कहा कि हिन्दोस्तान में शिक्षा बहुत ही महंगी है। अभिभावकों को शिक्षा के लिये क़र्ज़ लेना पड़ता है। शिक्षा पूरी करने के बाद भी नौकरी की कोई गांरटी नहीं है। यहां पर शिक्षा में निजी खिलाड़ी हैं जिनका मक़सद है मुनाफ़ा कमाना। सरकारी कालेजों में सीटों की संख्या बहुत ही कम कर दी गयी है ताकि छात्र निजी कालेजों या स्कूलों में जाने के लिये मजबूर हों।

निजीकरण के चलते सरकारी संस्थानों में नौकरियां घटती जा रही हैं। छात्रों को देश में अपना भविष्य सुरक्षित नहीं लगता हैं। इसलिये वे पढ़ने और काम के अवसर की तलाश में दूसरे देशों में जाते हैं। शिक्षा की समस्या, बेरोज़गारी की समस्या, निजीकरण, ठेका मज़दूरी यह सब एक दूसरे से जुड़ी हुई है। पूंजीवाद इसी व्यवस्था को जारी रखना चाहता है। हमें पूंजीवादी व्यवस्था को बदलना ही होगा।

कनाडा से गुरमीत सिंह ने बताया कि अभी हाल में 4-5 छात्रों ने यहां आत्महत्या कर ली है। पश्चिम के देश हिन्दोस्तान जैसे देशों के छात्रों और मज़दूरों को आने को प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि उनको कम वेतन पर सस्ता श्रम चाहिये। यहां आप्रवासी का ज्यादा शोषण किया जा सकता है। वे अपने साथ हो रहे नाइंसाफी के ख़िलाफ़ लड़ नहीं सकते हैं। कनाडा में आप्रवासी छात्र पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। उनके संघर्ष को बधाई देता हूं।

इसके अलावा, इंडियन वर्कर्स एसोसिएशन (ग्रेट-ब्रिटेन) से सलविंदर ढिल्लों, महिला किसान यूनियन, पंजाब से राजविन्दर कौर; लोक राज संगठन के उपाध्यक्ष हनुमान प्रसाद शर्मा तथा कई नौजवान साथियों ने सभा को संबोधित किया।

श्री बिरजू नायक ने सभा का समापन करते हुये कहा कि पूंजीवाद अपने आर्थिक संकट के बोझ को आप्रवासी छात्रों और मज़दूरों पर डालता है। पूंजीपतियों के धन पर पलने वाली पूंजीवादी पार्टियां, स्थानीय छात्रों और मज़दूरों में प्रचार करती हैं कि आप्रवासी आकर तुम्हारे शिक्षा और रोजगार को छीन रहे हैं। इस तरह से आप्रवासी मज़दूरों पर नस्लवादी हमले भड़काये जाते हैं।

हिन्दोस्तान में सरकारें यह कहकर दूसरे राज्यों से आने वाले मज़दूरों के ख़िलाफ़ हिंसा को बढ़ावा देती हैं कि ये लोग स्थानीय लोगों की रोज़ी-रोटी तथाकथित छीन रहे हैं, जैसा कि एक समय पर मुंबई में उत्तरी हिन्दोस्तान के लोगों के लिए कहा जाता था। देश के अंदर ही नहीं, पूरी दुनिया में जहां-जहां भी पूंजीवादी व्यवस्था है, वहां-वहां हुक्मरान अपने संकट को छुपाने के लिये इसी तरह का प्रचार करते हैं।

हमारा देश एक पूंजीवादी देश है। यह एक अमानवीय व्यवस्था है। यह व्यवस्था सभी को रोज़ी-रोटी व सुख-सुरक्षा दे पाने में असमर्थ है। देश के मज़दूरों-किसानों को राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था की बागडोर अपने हाथों में लेनी होगी। तभी हमारे देश में मज़दूर किसान और मेहनतकश बहुसंख्यक जनता की रोज़ी-रोटी, सुख-सुरक्षा और खुशहाली संभव होगी।

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