30 सितंबर से 3 अक्तूबर के बीच के चार दिनों में, बिहार की तीन मुख्य नदियों – कोसी, गंडक और बागमती तथा कई अन्य छोटी नदियों में बाढ़ की स्थिति आ गयी थी।
429 गांवों के लाखों लोग इस बाढ़ से तबाह हुए हैं। बाढ़ ने क़रीब 12 लाख लोगों को बेघर कर दिया है। हज़ारों विस्थापित निवासियों को, राहत सामग्री की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। कई लोगों को अस्थायी प्लास्टिक चादरों के नीचे शरण लेनी पड़ी है। एक हफ़्ते बाद भी जल-भरे गांवों में बांस-छप्पर और टिन की छतों पर फंसे सैकड़ों लोग बचाव-दलों का इंतजार कर रहे हैं। जिन लोगों तक बचाव और राहत दल पहुंचे, वे सब अभी भी अस्थायी आश्रयों में रह रहे हैं। वे जल-जनित बीमारियों के ख़तरे से जूझ रहे हैं और हेलीकॉप्टरों से गिराए गए खाने के पैकेटों के सहारे, मुश्किल से ज़िन्दा हैं।
बिहार के लोग, लगभग हर साल, इस तरह की विनाशकारी बाढ़ का सामना करते हैं। मानव-जीवन के नुक़सान के अलावा, राज्य सरकार फ़सलों, बुनियादी ढांचे, पशुधन की हानि और पुनर्वास-व्यय में, लगभग 1,000 करोड़ रुपये का वार्षिक खर्च उठाती है।
राज्य के आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने बाढ़ को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया है। पहली श्रेणी में अचानक आने वाली बाढ़ (फ्लैश फ्लड्स), दूसरी श्रेणी में नदी में आने वाली बाढ़, तीसरी श्रेणी में नदियों के संगम पर जल-निकासी का बंद होना और चौथी श्रेणी में स्थायी रूप से जल-भराव वाले क्षेत्र शामिल हैं। प्रत्येक श्रेणी में नदियों में बाढ़ की चेतावनी से लेकर बाढ़ का पानी उतरने तक का समय गिना जाता है।
इनमें से पहली तीन तरह की बाढ़ का एक बड़ा कारण यह है कि बिहार नेपाल के नीचे स्थित है, और हिमालय की नदियां बिहार राज्य से होकर बहती हैं। क्योंकि हिमालय एक युवा-पर्वत-श्रृंखला है जिसमें बहुत अधिक भुरभुरी-मिट्टी है, इसलिए कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, कमला बलान, महानंदा, अधवारा नदियां तलछट से भरी हुई हैं। जब बारिश के कारण पानी की मात्रा बढ़ जाती है, तो नदियां तुरंत अपने किनारों को पार कर जाती हैं। हाल ही में 26-29 सितंबर को नेपाल में हुई भारी बारिश इन भयावह बाढ़ों का तात्कालिक कारण थी।
इस सब जानकारी और इतने सालों के दर्दनाक अनुभव को देखते हुए, यह उम्मीद की जा सकती है कि हरेक सरकार ऐसी आपदाओं को रोकने के लिए सभी आवश्यक क़दम उठाएगी। बाढ़ की समस्या को दूर करने के लिए, समय-समय पर अनेक प्रस्ताव आये हैं। परन्तु हिन्दोस्तान में लोगों की ज़िन्दगी का कड़वा अनुभव यह बताता है कि योजनायें बनाने और उन्हें अमल में लाने के बीच बहुत बड़ा फ़ासला है।
आज़ादी के तुरंत बाद, 1950 के दशक में, कोसी के प्रवाह को रोकने के लिए तटबंध बनाए गए थे। न केवल ये तटबंध कई बार टूटे हैं, बल्कि उन्होंने नदी के मार्ग को और अधिक संकुचित होने की एक नई समस्या पैदा कर दी है। इसलिए, जबकि पहले कोसी की तलछट फैल कर वितरित हो जाती थी, अब यह पतली सी जगह में सीमित हो गयी है। तलछट के बह जाने के लिए कोई जगह न मिलने के कारण, नदी का तल हर साल लगभग 5 इंच ऊंचा हो रहा है, जिसकी वजह से इसके उफ़ान पर आने की संभावना और अधिक बढ़ गई है।
कई दशकों से कोसी पर एक बांध बनाने की बात की जा रही है, लेकिन ऐसा न करने का बहाना यह दिया जाता रहा है कि इसके लिए नेपाल की सहमति की ज़रूरत है। इसलिए योजना आगे नहीं बढ़ पाई।
नेपाल से बिहार होकर बहने वाली हिमालय की सभी नदियां पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश से गुजरने के बाद, आखिर में बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं। यह ज़ाहिर सी बात है कि हिन्दोस्तानी सरकार को नेपाल और बांग्लादेश की सरकारों के साथ बैठकर ऐसा हल निकालना चाहिए जो तीनों देशों के लोगों के लिए फ़ायदेमंद हो। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को देखते हुए, बाढ़-प्रबंधन को अच्छी तरह करने के हर संभव उपाय मौजूद हैं। जल-वायु की प्रवृत्तियों को समझना और जलवायु-जोखि़मों का पूर्वानुमान करना, नदियों के किनारों पर अतिक्रमण को नियंत्रित करना और नदी किनारे की बस्तियों में बाढ़ के संभावित ख़तरों के बारे में लोगों को सूचित करना बिल्कुल संभव है। इन ख़तरों से मानव-जीवन की अपूरणीय क्षति को रोकने के लिए आवश्यक निवेश तुरंत किया जाना चाहिए।
बिहार के लोगों को अपने जान और माल की सुरक्षा का अधिकार है, जिसे राज्य को सुनिश्चित करना चाहिए।
समस्या के समाधान में बाधा यह है कि हिन्दोस्तानी राज्य ने लोगों की भलाई सुनिश्चित करने की ज़रूरत को कभी अपनी प्राथमिकता नहीं बनाया है। पूंजीपतियों के लिए अधिकतम मुनाफ़ा सुनिश्चित करना ही राज्य की प्राथमिकता है। बाढ़, अकाल, सूखा आदि ऐसे अवसर होते हैं जिनका फ़ायदा उठाकर, पूंजीपति लोगों को “राहत देने” या बाढ़ को नियंत्रित करने के नाम पर, ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़े कमाते हैं।