लद्दाख से दिल्ली आये आंदोलनकारियों पर केंद्र सरकार के दमन की निंदा करें!

1 सितंबर, 2024 को लेह, लद्दाख से निकली पदयात्रा को 30 सितंबर को दिल्ली की सरहद पर केन्द्र सरकार द्वारा रोका गया। दिल्ली चलो पदयात्रा को लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) ने आयोजित किया था। सामाजिक और पर्या

वरण कार्यकर्ता श्री सोनम वांगचुक के नेतृत्व में निकला 150 लोगों का जत्था हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हरियाणा से गुजरते हुए, दिल्ली की सरहद पर पहुंचा था, जहां दिल्ली पुलिस के क़रीब 1000 जवान तैनात किये गये थे। पदयात्रियों को वापस जाने के लिये बोला गया और जब उन्होंने ऐसा करने से इनकार किया तो आंदोलनकारियों को हिरासत में ले लिया गया। तीन दिन के बाद, 4 अक्तूबर को किसी मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किये बिना उन्हें रिहा कर दिया गया। परन्तु उन्हें किसी भी सार्वजनिक जगह पर अपना विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं दी गयी। इस समय आंदोलनकारी लद्दाख हाउस में भूख हड़ताल पर बैठकर अपना विरोध प्रकट कर रहे हैं।

2019 में जम्मू-कश्मीर से धारा 370 के हटाये जाने के बाद जम्मू-कश्मीर व लद्दाख को दो अलग-अलग केन्द्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया था। साथ ही साथ लद्दाख का दर्ज़ा घटा कर इसे बिना विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश घोषित कर दिया गया था। याने कि लद्दाख के लोगों की अपने इलाके से संबंधित मुद्दों पर लिये जाने वाले फ़ैसलों में कोई औपचारिक भागीदारी नहीं है। मौजूदा परिस्थिति में न तो विधानसभा है और न ही जिला परिषद। इसलिये लोगों ने आंदोलन के माध्यम से अपनी आवाज़ सरकार तक पहुंचाने की ठान ली है।

आंदोलनकारियों की प्रमुख मांगें लद्दाख के विकास में वहां के लोगों की भागीदारी के अधिकार से जुड़ी हैं। वे चाहते हैं कि लद्दाख को एक राज्य का दर्ज़ा दिया जाये। अगर केंद्र सरकार ऐसा करने से इंकार करती है, तो वे चाहते हैं कि कम से कम संविधान की छठी अनुसूची लद्दाख में लागू हो। छठी अनुसूची जनजाति बहुल क्षेत्रों में स्वायत्त जिलों के निर्माण की अनुमति देती है, जिनमें उन्हें भूमि उपयोग, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि संबंधित मामलों पर फै़सले लेने के कुछ अधिकार मिलते हैं। लद्दाख की आबादी में 90 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा जनजाति है। आन्दोलनकारियों का मानना है कि इस क्षेत्र की संस्कृति और आकांक्षाओं के संरक्षण के लिए सभी फैसलों में वहां के लोगों की भागीदारी होना अनिवार्य है।

जम्मू और कश्मीर से धारा 370 के हटाये जाने के बाद लद्दाख के लोग बहुत दुखी हैं क्योंकि उन्हें दिख रहा है कि केन्द्रीय प्रशासन उनके इलाके में तेज़ी से पूंजीवादी “विकास” के क़दम उठा रहा है। बड़े पूंजीवादी घराने वहां अपने सीमेंट प्लांट लगाने के लिये आतुर हैं, जिनके लिये वहां के पहाड़ों का चूना-पत्थर इस्तेमाल किया जायेगा। इस तरह के “विकास” के परिणाम हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में पहले से ही देखे जा रहे हैं, जहां “विकास” के नाम पर पहाड़ों का तेज़ी से खनन किया गया है और वहां के पर्यावरण तथा जल संसाधनों का विनाश हुआ है। ऐसा “विकास” लोगों की आकांक्षाओं व ज़रूरतों के बिलकुल खि़लाफ़ है।

लद्दाख के आंदोलन की एक और मांग यह है कि वहां लोक सेवा आयोग की स्थापना की जाये। उनका मानना है कि इससे वहां की सरकारी नौकरियों के लिए भर्ती की प्रक्रिया मानकीकृत होगी और सरकारी नौकरियों की वृद्धि की सम्भावना होगी।

वर्तमान में, लद्दाख के पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए लोकसभा में सिर्फ़ एक सांसद है। आन्दोलनकारियों का मानना है कि इसके दो मुख्य जिलों, लेह और कारगिल, से अलग-अलग सांसद चुने जाने चाहियें।

लद्दाख से 1000 किमी दूर दिल्ली तक आये, सौ से भी अधिक लोगों के शांतिपूर्ण आंदोलन के प्रति राज्य के क्रूर रवैये से स्पष्ट है कि हिन्दोस्तानी शासक वर्ग लोगों की समस्याओं और उनकी संस्कृति व पर्यावरण के बारे में चिंताओं को कोई महत्व नहीं देता है। वह चाहता है कि राज्य का केन्द्रीय और क्षेत्रीय प्रशासन सिर्फ बड़े पूंजीपतियों के अजेंडे को लागू करे। बड़े पूंजीपति चाहते हैं कि देश के सभी संसाधनों के दोहन को तेज़ किया जा सके, ताकि उनका मुनाफ़ा तेज़ी से बढ़ सके।

लद्दाख के लोगों का आंदोलन देश में एक मूलभूत परिवर्तन लाने के लिये आंदोलन का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य लोगों की ज़िन्दगी से जुड़े सभी फै़सलों में लोगों की भागीदारी को बढ़ाना है। उनका संघर्ष सभी मेहनतकश लोगों के समर्थन का पात्र है।

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