प्रधानमंत्री मोदी की अमरीका यात्रा

21-23 सितंबर, 2024 के बीच, प्रधानमंत्री मोदी अमरीका की तीन दिवसीय यात्रा पर गए। यह यात्रा, जून में उनकी पिछली यात्रा से कुछ अलग थी। यह द्विपक्षीय राजकीय यात्रा नहीं थी। इस यात्रा के दो मुख्य कार्यक्रम थे। पहले दिन क्वाड समूह (अमरीका, जापान, हिन्दोस्तान और ऑस्ट्रेलिया) की शिखर बैठक हुई। और यात्रा के तीसरे दिन “भविष्य का शिखर सम्मेलन” (संयुक्त राष्ट्र महासभा के 79वें वार्षिक सत्र के एक हिस्से के रूप में आयोजित) नामक विश्व नेताओं की बैठक में मोदी ने भाषण दिया।

इन दो कार्यक्रमों के बीच, मोदी ने अन्य देशों के विभिन्न शीर्ष नेताओं के साथ और अमरीका में निवासी हिन्दोस्तानियों तथा अमरीकी उद्योगपतियों से भी मुलाक़ात की।

इस बार क्वाड शिखर सम्मेलन हिन्दोस्तान में होना था। लेकिन अमरीका के अनुरोध पर इसे वहां पर किया गया। ऐसा शायद इसलिए किया गया क्योंकि अगले अमरीकी आम चुनाव से पहले क्वाड की अध्यक्षता करने का यह अमरीकी राष्ट्रपति बाइडन का आखि़री मौका था।

“इंडो-पैसिफिक” क्षेत्र (हिन्द-प्रशांत महासागर क्षेत्र) के चार देशों (अमरीका, जापान, हिन्दोस्तान और ऑस्ट्रेलिया) के क्वाड समूह की स्थापना, स्पष्ट रूप से, ख़ासकर समुद्री क्षेत्र में चीन को सीमाबद्ध करने के मक़सद से की गई थी। पिछले शिखर सम्मेलनों की तरह, इस शिखर सम्मेलन के अंत में जारी संयुक्त बयान में भी, साफ़-साफ़ चीन का नाम नहीं लिया गया। लेकिन, इस बयान के शब्दों से यह स्पष्ट था कि चीन को “स्वतंत्र, खुले, समावेशी और समृद्ध इंडो-पैसिफिक” के लिए मुख्य रोड़े के रूप में पेश किया जा रहा था। “दक्षिण चीन सागर में जबरदस्ती और डराने-धमकाने वाली गतिविधियां“, “तटरक्षक और समुद्री फ़ौजी जहाजों का ख़तरनाक इस्तेमाल व ख़तरनाक युद्धाभ्यासों का बढ़ता इस्तेमाल”, और “अन्य देशों द्वारा समुद्र में संसाधनों की खोज की गतिविधियों को बाधित करने के प्रयास”- ये सभी बयान साफ़-साफ़ चीन की ओर इशारा कर रहे थे।

साथ ही, क्वाड सरकारें इस हक़ीक़त से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के सभी देशों के चीन के साथ बहुत व्यापक आर्थिक और अन्य नजदीकी के संबंध हैं। सिर्फ़ इस तरह चीन के खि़लाफ़ बयानों से उन देशों के साथ ज्यादा नज़दीकी के सम्बन्ध नहीं बनाये जा सकते हैं। इसलिए, क्वाड के शिखर सम्मेलनों में, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य “गैर-सामरिक” विषयों पर, इस क्षेत्र में मिलकर काम करने से होने वाले फ़ायदों के बारे में चर्चा करने की कोशिश की जा रही है। इस बार, “कैंसर मूनशॉट” के नाम से, उन्होंने इस पूरे क्षेत्र में उन देशों को उपयुक्त टीके देने का वादा किया, जहां कैंसर और विशेष रूप से गर्भाशय का कैंसर व्यापक रूप से फैला हुआ है। मोदी ने, इस मक़सद को हासिल करने के लिए, हिन्दोस्तान से टीके की आपूर्ति करने का वादा किया।

इस शिखर सम्मेलन की एक ख़ास बात यह रही कि इसमें सदस्य देशों की अपनी-अपनी सेनाओं, सैन्य/नागरिक ढांचे और खुफ़िया तंत्र के बीच तालमेल और बढ़ाने की योजनाएं सामने रखी गईं। इन्हें “क्वाड-एट-सी शिप ऑब्जर्वर मिशन”, “इंडो-पैसिफिक लॉजिस्टिक्स नेटवर्क” पायलट प्रोजेक्ट और “क्वाड पोर्ट्स ऑफ द फ्यूचर पार्टनरशिप” जैसी योजनाओं के नाम से पेश किया गया। इस क्षेत्र में चीन के दबदबे को ध्यान में रखते हुए “सेमीकंडक्टर सप्लाई चेन्स कंटिनजेंसी नेटवर्क मेमोरेंडम ऑफ कोऑपरेशन” नाम के एक सहयोग समझौते पर भी हस्ताक्षर किया गया।

विलमिंगटन, डेलावेयर, जहां पर क्वाड शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था, वहां से मोदी न्यू यॉर्क के लिए रवाना हुए। अमरीका में निवासी हिन्दोस्तानियों की एक रैली में, उन्होंने अपने नेतृत्व में हिन्दोस्तान की तथाकथित उपलब्धियों की शेखी बघारी। अन्य बातों के अलावा, उन्होंने दावा किया कि उनकी सरकार के  चलते, 25 करोड़ लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाला गया है! मोदी ने, अमरीका में सिख-समुदाय के कुछ सदस्यों से भी मुलाक़ात की, जिन्होंने सिख समुदाय के लिए मोदी द्वारा किये गए कामों पर उनकी प्रशंसा की। यह मीटिंग इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अमरीका, मोदी सरकार पर, अमरीका में रहने वाले एक सिख नेता की हत्या की साज़िश रचने का आरोप लगाकर दबाव डाल रहा है। मोदी की इस यात्रा से कुछ दिन पहले ही, एक अमरीकी अदालत ने, इस साज़िश में शामिल माने जाने वाले हिन्दोस्तानी अधिकारियों को एक सम्मन जारी किया है, जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भी शामिल हैं, जो अमरीका की इस यात्रा में स्पष्ट रूप से अनुपस्थित थे।

न्यूयॉर्क में, अमरीका में तकनीकी- उद्योग से जुड़े कुछ प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक में, मोदी ने इसी बात पर ज़ोर दिया कि कैसे हिन्दोस्तान एआई, क्वांटम कंप्यूटिंग, सेमीकंडक्टर-तकनीक आदि जैसी “अत्याधुनिक” तकनीकों में निवेश के लिए बेहतरीन मौके प्रदान करने वाले एक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है।

अपनी यात्रा के अंतिम दिन, संयुक्त राष्ट्र के “भविष्य के शिखर सम्मेलन” में दिये गए अपने भाषण में, मोदी ने खुद को “मानवता के एक-छठे हिस्से” यानी हिन्दोस्तान के लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले के रूप में पेश करने की कोशिश की। जबकि उन्होंने मानवता के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए वैश्विक सहयोग की आवश्यकता के बारे में कई तरह की बातें कीं, उनके भाषण का एक मुख्य मुद्दा, अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार की आवश्यकता था, ताकि इन संस्थानों को वर्तमान की नई भू-राजनीतिक हक़ीक़तों के अनुसार बनाया जा सके। यह वास्तव में हिन्दोस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक स्थायी सदस्य बनाने की मांग थी, जो कि हुक्मरान हिन्दोस्तानी पूंजीपति वर्ग की लंबे समय से तमन्ना रही है।

न्यूयॉर्क में, नेपाल, वियतनाम और आर्मेनिया के नेताओं सहित कई अन्य देशों के नेताओं और मोदी के बीच, द्विपक्षीय बैठकें आयोजित की गईं। पिछले कुछ महीनों में यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ उनकी यह तीसरी मुलाक़ात और फ़िलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास के साथ विचार-विमर्श, विशेष रूप से महत्वपूर्ण थी। जेलेंस्की के साथ बैठक ने ऐसी अटकलों को हवा दी कि मोदी रूस और यूक्रेन के बीच एक मध्यस्थ बनने की कोशिश कर रहे हैं। महमूद अब्बास से मिलकर और फ़िलिस्तीनी लोगों के साथ एकजुटता व्यक्त करके, मोदी इस हक़ीक़त से ध्यान हटाने की कोशिश कर रहे थे कि उनकी सरकार ने फ़िलिस्तीनी लोगों के खि़लाफ़ इज़रायल के नरसंहार पर बहुत कमज़ोर और अनैतिक रुख़ अपनाया है, ऐसे समय में, जब दुनिया के अधिकांश लोगों और सरकारों ने इज़रायल के अपराधों की खुलकर निंदा की है। यह भी एक विडंबना है कि दो दिन पहले ही उनकी सरकार ने फ्रांस और जापान जैसे देशों सहित संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक बड़े बहुमत से पारित प्रस्ताव के पक्ष में वोट देने से इनकार कर दिया था। इस प्रस्ताव में, इज़रायल से फ़िलिस्तीनी लोगों पर नरसंहारक युद्ध को समाप्त करने और फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों पर अपने क़ब्ज़े को रोकने का निर्देश दिया गया था।

यह स्पष्ट है कि इस यात्रा का एक प्रमुख उद्देश्य, मोदी को हिन्दोस्तानी बड़े पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि बतौर, विश्व मंच पर एक महान राजनेता के रूप में पेश करना था, जो अमरीका और उसके सहयोगियों के साथ घूमता-फिरता है। साथ-साथ, वह “ग्लोबल साउथ” के देशों, जो दुनिया के बहुसंख्यक लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और अमरीका के प्रतिद्वंद्वियों के साथ “समान निकटता” (मोदी के शब्दों में) का दावा भी करता है। हिन्दोस्तानी राज्य, इसे अपनी “रणनीतिक स्वायत्तता” का इस्तेमाल करने का फ़ैसला कह रहा है, जिसमें वह केवल हिन्दोस्तान के “राष्ट्रीय हितों” के आधार पर ही निर्णय लेगा। परन्तु, दुनिया भर में तेज़ी से बढ़ते तनाव और संघर्ष, जो मुख्य रूप से अमरीकी साम्राज्यवाद के कारण पैदा हुए हैं, इस “रणनीतिक स्वायत्तता” के लिए गुंजाइश को कम कर रहे हैं। हिन्दोस्तानी राज्य, अमरीका के जितना क़रीब आएगा, उस पर वैश्विक मामलों में, अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व का अनुसरण करने का उतना ही अधिक दबाव होगा। सैन्य और खुफ़िया सहित कई क्षेत्रों में, हिन्दोस्तानी राज्य की अमरीका के साथ बढ़ती निकटता, हिन्दोस्तानी लोगों, हमारी स्वतंत्रता और सुरक्षा और अन्य देशों के लोगों के साथ हमारे संबंधों के लिए, एक बहुत बड़ा ख़तरा बन रहा है।

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