2021 में 30 आरोपी सैनिकों के ख़िलाफ़ दर्ज़ की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) को सुप्रीम कोर्ट ने 17 सितंबर को रद्द कर दिया। इन सैन्य कर्मियों पर नागालैंड में निर्दोष नागरिकों की हत्या करने का आरोप था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले को इस आधार पर उचित ठहराया कि नागालैंड में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम, 1958 (आफ्स्पा) लागू है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के अनुसार, अधिनियम की धारा 6 में कहा गया है कि सशस्त्र बलों के सैनिकों पर “सक्षम प्राधिकारी” की मंजूरी के बिना मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता। “सक्षम प्राधिकारी” से उनका मतलब केंद्रीय गृह मंत्रालय से है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के कारण आरोपियों के खि़लाफ़ सभी एफआईआर रद्द कर दी गई हैं।
4 दिसंबर, 2021 की शाम को सेना की काउंटर इंसर्जेंसी यूनिट, 21 पैरा स्पेशल फोर्सेज़ की एक टुकड़ी ने छः नागरिकों की हत्या कर दी थी और दो अन्य को घायल कर दिया था। ये लोग कोयले की खदान में काम करने के बाद पिक-अप वैन में घर लौट रहे थे। ये सभी म्यांमार की सीमा से लगे राज्य के मोन जिले के ओटिंग गांव के निवासी थे। सेना की दीमापुर स्थित 3 कोर्प्स द्वारा जारी एक बयान के अनुसार, एनएससीएन (खापलांग) से संबंधित लड़ाकों की संभावित गतिविधि की सूचना मिलने के बाद, काउंटर इंसर्जेंसी यूनिट इस इलाके में अभियान पर थी। सुरक्षा बलों ने माना था कि उन्होंने ‘ग़लती से’ बेकसूर मज़दूरों को लड़ाका समझ लिया था।
इस निर्मम हत्या की घटना ने मोन जिले में व्यापक आक्रोश पैदा कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप ओटिंग गांव के निवासियों और अर्धसैनिक बलों के बीच कई दिनों तक हिंसक झड़पें होती रहीं। अपने साथी ग्रामीणों की हत्या के ख़िलाफ़ लोगों के विरोध प्रदर्शन के दौरान, सेना द्वारा सात अन्य नागरिक मारे गये।
स्थानीय पुलिस ने खदान मज़दूरों की हत्या पर एक एफआईआर दर्ज़ की, जिसके बाद नागालैंड सरकार ने हिंसा की जांच के लिए पांच सदस्यीय विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया। नागालैंड सरकार द्वारा गठित एसआईटी ने अकाट्य सबूतों के आधार पर 21 पैरा के 30 सैनिकों के नाम से आरोप पत्र दायर किया।
लेकिन, 28 फरवरी, 2023 के एक आदेश द्वारा, गृह मंत्रालय ने दोषी सैनिकों पर मुक़दमा चलाने की मंजूरी देने से इनकार कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट के 17 सितंबर के फ़ैसले पर नागालैंड के कई संगठनों ने असंतोष जताया है जिसमें सेना के 30 सैनिकों के ख़िलाफ़ आपराधिक कार्यवाही बंद करने का आदेश दिया गया है। इन संगठनों में ओटिंग स्टूडेंट्स यूनियन (ओएसयू), नागा स्टूडेंट्स फेडरेशन (एनएसएफ), एनएससीएन (आई-एम) और नागा होहो शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले की निंदा की जानी चाहिए, क्योंकि यह नागालैंड के लोगों के मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन है। आफ्स्पा के तहत आने वाले राज्यों के लोगों का अनुभव यह है कि केंद्र सरकार जो कि “सक्षम प्राधिकारी” है, सशस्त्र कर्मियों के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाने की कभी भी अनुमति नहीं देगी, भले ही वे किसी जघन्य अपराध के लिए निश्चित रूप से दोषी पाए गए हों। इस बार भी केंद्र सरकार ने आरोपियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की अनुमति देने से इनकार किया। इसके खि़लाफ़ की गई अपील के जवाब में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आफ्स्पा के नियम 6 के अनुसार चलना, न्याय का मजाक उड़ाना है।
केवल केंद्र सरकार के पास ही देश के किसी भी हिस्से से आफ्स्पा को हटाने या बढ़ाने का अधिकार है। वह पिछले 6 दशकों से, इस अधिनियम को लागू करने को उचित ठहराने के लिए कुछ जिलों और पुलिस क्षेत्रों को ”अशांत“ घोषित कर रही है। हाल ही में 26 सितंबर, 2024 को जारी एक अधिसूचना के ज़रिये नागालैंड में आफ्स्पा को 1 अक्तूबर, 2024 से अगले छः महीने के लिए बढ़ा दिया गया है।
बिना किसी कार्यवाही और सज़ा के एफआईआर रद्द करने का निर्णय नागा लोगों के साथ हुए घोर अन्याय को और बढ़ाता है। 27 सितंबर को गृहमंत्री अमित शाह को लिखे गये एक पत्र में, नागा स्टूडेंट्स फेडरेशन ने मांग की कि सैनिकों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की मंजूरी दें और विवादास्पद आफ्स्पा को “नागा मातृभूमि और पूर्वोत्तर” से हटा लें।
पत्र में लिखा है, “ओटिंग की घटना केवल हिंसा का एक अलग-थलग कृत्य नहीं है, बल्कि कठोर आफ्स्पा के तहत जारी व्यवस्थागत अन्याय का प्रतिबिंब है।”
यह एक तथ्य है कि 65 से अधिक वर्षों से, उत्तर पूर्वी राज्यों में राजकीय आतंकवाद को क़ायम रखने के लिए आफ्स्पा का इस्तेमाल किया जाता रहा है। आफ्स्पा सशस्त्र बलों को कहीं भी, किसी भी समय तलाशी अभियान चलाने और बिना किसी वारंट के लोगों को गिरफ़्तार करने की पूरी शक्ति देता है। आफ्स्पा ‘देखते ही गोली मारने’ और केवल शक के आधार पर निर्दोष, निहत्थे लोगों को मारने, फ़र्ज़ी “मुठभेड़”, यातना, बलात्कार और विनाश को अंजाम देने का अधिकार सशस्त्र बलों को देता है। यह सशस्त्र बलों को क़ानून की अदालती कार्यवाही से पूरी छूट प्रदान करता है।
अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मिज़ोरम, मेघालय और नागालैंड के लोगों ने आफ्स्पा के तहत अपने जीवन और आवागमन के अधिकार का उल्लंघन देखा है। यह अधिनियम शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिये नहीं है। यह लोगों में आतंक फैलाने के लिए है। जब लोग अपने हक़ मांगते हैं तब उन्हें दबाने के लिए इसे इस्तेमाल किया जाता रहा है। सशस्त्र बल लोगों के ख़िलाफ़ बेझिझक अपराध करते हैं, क्योंकि उन्हें इन अपराधों के लिए किसी भी सज़ा से छूट दी गई है। इन राज्यों के लोग लंबे समय से अपने राज्यों से आफ्स्पा को हटाने की मांग कर रहे हैं। यह एक उचित मांग है जिसका हिन्दोस्तान के सभी न्यायप्रिय लोगों का समर्थन प्राप्त है।