नाइंसाफ़ी का विरोध करने के अधिकार का खुलेआम हनन

हाल के महीनों में हरियाणा में लिंचिंग की घटनाएं बढ़ी हैं। हथियारबंद गिरोहों ने मवेशी तस्करी के शक के आधार पर लोगों की हत्यायें कर दी हैं। यह जानी-मानी बात है कि इन हमलों के लिए ज़िम्मेदार विभिन्न गिरोहों को सत्ता में बैठे लोगों का समर्थन और प्रोत्साहन प्राप्त है। ऐसे घिनावने कार्यों के प्रति हमारे लोगों की चिंता और विरोध को प्रकट करने के लिए, 6 राजनीतिक पार्टियों – भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिनवादी), हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक और रेवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया – ने 7 सितंबर को नई दिल्ली में दूरदर्शन भवन से कुछ सौ मीटर दूर, हरियाणा भवन तक एक विरोध मार्च करने की योजना बनाई थी। दिल्ली पुलिस, जो केंद्र सरकार के अधीन काम करती है, ने दूरदर्शन भवन पर प्रदर्शनकारियों के इकट्ठे होते ही, उन्हें उठा लिया, पुलिस की बसों में ठूंस दिया और उन्हें शहर के दूर-दराज़ के इलाकों में ले जाकर, शाम तक ही रिहा किया।

इससे दो दिन पहले, 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के अवसर पर, राजधानी दिल्ली में शिक्षक संगठनों ने मंडी हाउस से जंतर-मंतर तक विरोध मार्च की योजना बनाई थी। वे शिक्षा के निजीकरण के खि़लाफ़ अपना विरोध जताना चाहते थे। वे इस बात को उठाना चाहते थे कि राज्य सभी के लिए समान, अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा सुनिश्चित करने के अपने कर्तव्य को पूरा नहीं कर रहा है। प्रदर्शनकारी शिक्षकों को जबरन पुलिस बसों में भरकर ले जाया गया और मार्च को रोका गया।

फ़िलिस्तीनी लोगों के खि़लाफ़ इज़रायल के नरसंहारक युद्ध को समाप्त करने की मांग करने वाले सभी विरोध प्रदर्शनों को अपराध घोषित कर दिया गया है। इस मुद्दे पर एक भी विरोध प्रदर्शन करने की इजाज़त नहीं दी गई है।

दिल्ली में महिला संगठनों ने 8 मार्च, 2024 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर एक संयुक्त प्रदर्शन की योजना बनाई थी। जब महिलाएं कार्यक्रम के लिए इकट्ठा हुईं, तब उन पर बेरहमी से हमला किया गया और उन्हें पुलिस स्टेशन ले जाया गया।

लोगों के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने और नाइंसाफ़ी का विरोध करने के अधिकार के इस प्रकार के घोर उल्लंघन के लिए केंद्र की भाजपा सरकार की निंदा की जानी चाहिए। हालात इतने ख़राब हैं कि लोगों और उनके संगठनों को बंद मीटिंग हॉल में भी विभिन्न मुद्दों पर बैठकें आयोजित करने की इजाज़त नहीं दी जा रही है। जब विभिन्न संगठनों ने 6 दिसंबर, 2023 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस की बरसी के अवसर पर एक बैठक आयोजित करने की कोशिश की थी, तब कुछ ऐसा ही हुआ था। केंद्र सरकार ने निजी हॉलों और सभागारों के प्रबंधन को धमकी दी है कि ऐसी बैठकों को इजाज़त देने पर उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। इसी तरह, राज्य ने सार्वजनिक हॉलों और सभागारों के प्रबंधनों को चेतावनी दी है कि उन बैठकों की इजाज़त न दी जाये, जिनमें पूर्वोत्तर दिल्ली में 2020 में सांप्रदायिक दंगे आयोजित करने और राज्य का तख़्तापलट करने के झूठे आरोपों पर पिछले चार वर्षों से अधिक समय से जेलों में बंद बेकसूर नौजवानों की दुर्दशा पर चर्चा की जायेगी।

समस्या सिर्फ केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारों से नहीं है। देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में, चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो, सरकार शोषण और नाइंसाफ़ी के खि़लाफ़ विरोध करने के अधिकार से लोगों को वंचित करने के लिए पुलिस बल का उपयोग कर रही है। समस्या की जड़ें राज्य और उसके संविधान के चरित्र में ही हैं।

हिन्दोस्तान के संविधान के अनुच्छेद 19 के आरम्भ में यह घोषणा की गयी है कि:

(1) सभी नागरिकों को अधिकार होगा – (अ) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतायें; (ब) शांतिपूर्ण ढंग से और बिना हथियारों के इकट्ठा होना।

उपरोक्त को पढ़ने से ऐसा लगता है कि हिन्दोस्तान के लोगों को शांतिपूर्वक इकट्ठा होने और नाइंसाफ़ी के खि़लाफ़ विरोध करने का लोकतांत्रिक अधिकार प्राप्त है।

पर हक़ीक़त तो इससे बहुत दूर है। हिन्दोस्तान के संविधान का वही अनुच्छेद 19 राज्य को इन अधिकारों के प्रयोग पर “उचित प्रतिबंध” लगाने की शक्ति देने के नाम पर, इन दोनों अधिकारों को नकारता है।

भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से, हिन्दोस्तान की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखने, राज्य की सुरक्षा बनाये रखने, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, या अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिए, उकसाने के नाम पर इनकार किया जा सकता है।

इसी तरह, हिन्दोस्तान की संप्रभुता और अखंडता या सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखने के नाम पर, बिना हथियारों के शांतिपूर्वक इकट्ठा होने के अधिकार का हनन किया जा सकता है।

किस कल्पना से, लिंचिंग के विरोध में शांतिपूर्ण मार्च को हिन्दोस्तान की संप्रभुता और अखंडता या सार्वजनिक व्यवस्था के लिए ख़तरा माना जा सकता है?

सच तो यह है कि हिन्दोस्तान का संविधान भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार, या शांतिपूर्ण सभा की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी नहीं देता है। यह राज्य को तरह-तरह के बहानों के आधार पर, किसी भी तबके के लोगों को इन अधिकारों से वंचित करने की इजाज़त देता है। हिन्दोस्तान के संविधान का अनुच्छेद 19 मज़दूरों, किसानों, महिलाओं, युवाओं और दूसरे मेहनतकश लोगों को इन अधिकारों से वंचित करने के लिए मौजूदा क़ानूनों का उपयोग करने, या नए क़ानून बनाने की राज्य को शक्ति देता है।

मौजूदा क़ानूनों में से एक है सीआरपीसी (आपराधिक प्रक्रिया संहिता) 1973 में धारा 144, जिसका मेहनतकशों के विरोध को कुचलने के लिए सबसे अधिक उपयोग किया जाता है। यह क़ानून राज्य को किसी इलाके में पांच या उससे अधिक लोगों की सभा पर प्रतिबंध लगाने की इजाज़त देता है।

सीआरपीसी की धारा 144 अंग्रेजों द्वारा अधिनियमित उपनिवेशवादी सीआरपीसी 1882 का हिस्सा था। सीआरपीसी का उद्देश्य, उपनिवेशवादी हुकूमत के खि़लाफ़ विद्रोह को कुचलना था। इसका उपयोग हुकूमत से असहमति और किसी भी प्रकार के राजनीतिक विरोध को दबाने के लिए किया जाता था। इसका यह इरादा निवारक गिरफ़्तारी और सार्वजनिक सभाओं पर रोक लगाने के इस कोड के प्रावधानों में स्पष्ट था। हिन्दोस्तानी राज्य ने सीआरपीसी 1973 में इस प्रावधान को बरकरार रखा। पचास साल बाद, भाजपा सरकार यह ढिंढोरा पीट रही है कि उसने सीआरपीसी को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) में बदलकर उपनिवेशवादी क़ानूनों से छुटकारा पा लिया है। पर सच्चाई इसके विपरीत है। बीएनएसएस में उपनिवेशवादी युग की धारा 144 को बरकरार रखा गया है, केवल उसका नंबर बदल दिया है – अब यह धारा 148 बन गई है। इसका उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था और राज्य के खि़लाफ़ हमारे देश के मज़दूर वर्ग और लोगों के सभी प्रकार के विरोध को कुचलना है।

हिन्दोस्तानी गणतंत्र और 1950 में अपनाया गया हिन्दोस्तान का संविधान उपनिवेशवादी राज्य की निरंतरता है, जो क्रूर दमन तथा लोगों के सांप्रदायिक और जाति-आधारित बंटवारे की नींव पर बनाया गया था। संविधान में मौलिक अधिकारों के अध्याय में वादा किया गया प्रत्येक अधिकार अगले ही खंड में नामंजूर कर दिया जाता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि मज़दूरों, किसानों, महिलाओं, युवाओं और मेहनतकश जनता के लिए लोकतांत्रिक अधिकार महज एक भ्रम बनकर रह जायेंगे।

पिछले 77 वर्षों में सत्तारूढ़ पूंजीपति वर्ग की ओर से कार्यपालिका की कमान संभालने वाली प्रत्येक राजनीतिक पार्टी ने नाइंसाफ़ी और राजकीय आतंक के खि़लाफ़ विरोध करने के लोगों के अधिकार पर हमला करने के लिए पुलिस बल का इस्तेमाल किया है। यह न केवल भाजपा, बल्कि कांग्रेस पार्टी और पूंजीपति वर्ग की अन्य राजनीतिक पार्टियों के लिए भी सच है।

मौजूदा व्यवस्था, जिसे “दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला लोकतंत्र” कहा जाता है, वास्तव में पूंजीपति वर्ग की क्रूर हुक्मशाही है। सत्तारूढ़ पूंजीपति वर्ग ने लोगों के मानवीय और लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला करने, हमारे देश के लोगों की एकता और एकजुटता को तोड़ने की शक्ति खुद को दे दी है। इसने मज़दूरों और किसानों के अधिकारों पर बेरहमी से हमला किया है और बार-बार सांप्रदायिक और जातीय हिंसा फैलाई है। साथ ही, इसने हमारे लोगों को अपनी हालतों को बदलने के लिए संघर्ष करने के अधिकार से लगातार वंचित किया है।

मज़दूर वर्ग और उत्पीड़ित लोगों को वर्तमान सरमायदारी हुकूमत की जगह पर एक नए राज्य, मज़दूरों और किसानों की हुकूमत के राज्य, की स्थापना करने के नज़रिए के साथ इंसाफ़ और अधिकारों के लिए अपना संघर्ष आगे बढ़ाना होगा।

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