ऑपरेशन ब्लूस्टार की 40वीं बरसी :
राजकीय आतंकवाद का घिनावना कांड जिसे न भुलाया जा सकता, न माफ़ किया जा सकता

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केंद्रीय समिति का बयान, 2 जून, 2024

6 जून, 2024 को हिन्दोस्तानी सेना द्वारा अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर किये गए हमले की 40वीं बरसी है। ऑपरेशन ब्लूस्टार नामक उस हमले में सैकड़ों बेक़सूर पुरुष, महिलायें और बच्चे मारे गए थे।

वर्तमान पीढ़ी के लिए यह जानना आवश्यक है कि उस कांड में वास्तव में क्या हुआ था और क्यों हुआ था। यह आवश्यक है क्योंकि हम आज भी राजकीय आतंकवाद और सांप्रदायिक हिंसा के ख़तरे से जूझ रहे हैं। धर्म के आधार पर उत्पीड़ित किये गए लोगों को आज भी गुनहगार माना जाता है और जेलों में भर दिया जाता है, जैसा कि फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुयी सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में किया गया है।

स्वर्ण मंदिर पर हमला ऐसे समय पर हुआ था जब गुरु अर्जुन देव की शहादत के अवसर पर हजारों श्रद्धालू वहां इकट्ठा हुए थे। पूरे छह दिनों तक सेना स्वर्ण मंदिर परिसर पर गोलीबारी करती रही। पवित्र अकाल तख़्त पर बमबारी करने के लिए टैंकों और सशस्त्र वाहनों का इस्तेमाल किया गया था। अंत में, स्वर्ण मंदिर को तथाकथित आतंकवादियों से मुक्त कराने के नाम पर, सेना ने स्वर्ण मंदिर परिसर में प्रवेश किया था।

इस हमले की ख़बर सुनकर, जैसे ही हजारों किसानों ने अपने पवित्र इबादत स्थान की रक्षा के लिए अमृतसर के पास अपने गांवों से स्वर्ण मंदिर की तरफ प्रस्थान किया, तो सेना ने उन पर हमला किया। इसके बाद पूरे पंजाब में गुरुद्वारों पर हमले किये गए।

स्वर्ण मंदिर पर हथियारबंद हमला एक धर्म स्थल पर राज्य द्वारा खुलेआम हमले का कांड था। जबकि राज्य का फ़र्ज़ है लोगों के जीवन और हर प्रकार की इबादत करने के अधिकार की हिफ़ाज़त करना, तो उस राज्य ने एक धर्म स्थल पर हमला किया और वहां एकत्रित हुए बहुत सारे लोगों को जान से मार डाला।

तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दावा किया था कि उनकी सरकार के पास “कोई और चारा नहीं था”, क्योंकि उन्हें तथाकथित गुप्त सूचना मिली थी कि स्वर्ण मंदिर के अंदर इकट्ठे हुए आतंकवादी पूरे देश में हिन्दुओं के जनसंहार की योजना बना रहे थे। यह सरकारी दावा अब तक झूठा साबित हो चुका है। बीते 40 सालों में ऐसी किसी साज़िश के बारे में कोई सबूत नहीं पेश नहीं गया है।

इस बात के पुख़्ता सबूत सामने आ चुके हैं कि सेना की ख़ास कमांडो इकाइयां जून 1984 से पहले ही, कई महीनों से चकराता आर्मी कैंप में स्वर्ण मंदिर के नमूने के साथ इस ऑपरेशन के लिए प्रशिक्षण ले रही थीं। इस बात के भी सबूत सामने आए हैं कि स्वर्ण मंदिर पर हमले की योजना के शुरुआती चरण में हिन्दोस्तानी सरकार ने ब्रिटेन की मार्गरेट थैचर सरकार से सहायता का अनुरोध किया था और उसे सहायता मिली भी थी।

अब तक इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि 1980 के दशक में पंजाब में सक्रिय कई आतंकवादी गिरोहों को केंद्रीय खुफ़िया एजेंसियों ने ही गुप्त रूप से प्रायोजित और धन से समर्थित किया था। पंजाब पुलिस के वरिष्ठ प्रभारी अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि बसों और बाज़ारों में समय-समय पर हिन्दुओं की हत्याएं आयोजित करने और इसका दोष सिख आतंकवादियों पर डालने के लिए विशेष “आतंकवाद-विरोधी” इकाइयों का इस्तेमाल किया गया था। लोगों की भावनाओं को भड़काने के लिए ऐसी आतंकवादी हरक़तों का इस्तेमाल करते हुए, सत्तारूढ़ ताक़तों ने खूब प्रचार किया था कि पंजाब में लोगों के संघर्ष “सिख कट्टरवाद“ से प्रेरित थे। इसके ज़रिये, पूरे देश में संघर्ष कर रहे पंजाबी तथा अन्य लोगों पर हमले किये गए, उन्हें बांटा गया और उन्हें गुमराह किया गया।

राजनीतिक संदर्भ

यह वह समय था जब देश के अंदर बड़े पैमाने पर असंतोष फैला हुआ था। आवश्यक सार्वजनिक सेवाओं के कर्मचारी हड़ताल के अधिकार के लिए लड़ रहे थे। देश के कई हिस्सों में किसानों की अपनी उपज के लिए स्थिर और लाभकारी मूल्य की मांग ज़ोर पकड़ रही थी। पंजाब, असम और अन्य लोगों के राष्ट्रीय अधिकारों को पूरा करने की मांग उठाई जा रही थी।

इजारेदार पूंजीवादी घराने राज्य सत्ता पर अपना नियंत्रण मजबूत करना चाहते थे और अपने वैश्विक साम्राज्य-निर्माण के लक्ष्यों के खि़लाफ़ हर प्रकार के प्रतिरोध को कुचलना चाहते थे। व्यापक राजकीय आतंकवाद को उचित ठहराने के लिए “सिख आतंकवाद” का हव्वा खड़ा करना, यह इस इरादे को हासिल करने का पसंदीदा तरीक़ा बन गया। सिखों को देश के दुश्मन बताकर और उनके खि़लाफ़ हिंसा फैलाकर, मज़दूरों और किसानों के अधिकारों के संघर्ष को बांटा गया और भटकाया गया। इसने देश के विभिन्न हिस्सों में क्षेत्रीय संपत्तिवान हितों के संघर्ष और राष्ट्रीय अधिकारों के लिए आंदोलनों को दबाने का भी काम किया।

किसी विशेष धर्म के लोगों को निशाना बनाकर उन पर हिंसा फैलाना, यह हुक्मरान वर्ग का अपने राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक पसंदीदा तरीक़ा बन गया है।

महत्वपूर्ण सबक

पिछले 40 वर्षों के अनुभव से एक महत्वपूर्ण सबक यह है कि सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा का स्रोत लोगों की धार्मिक आस्थाओं में नहीं है। इस समस्या का स्रोत अल्पसंख्यक अति-अमीर इजारेदार पूंजीपतियों के हाथों में आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के बढ़ते संकेन्द्रण में है। यह हिन्दोस्तानी राज्य की सांप्रदायिक बुनियादों में निहित है।

ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने हिन्दोस्तान के उपमहाद्वीप पर अपनी हुकूमत स्थापित करने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ का तरीक़ा अपनाया था। उन्होंने ऐसे क़ानून, राज्य संस्थान और राजनीतिक प्रक्रिया स्थापित की थी, जिनके अनुसार देश की आबादी को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों में विभाजित कर दिया गया था। 1947 के बाद से, हिन्दोस्तानी पूंजीपति वर्ग ने राज्य को एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया, परन्तु उन्हीं सांप्रदायिक क़ानूनों, संस्थानों और हुकूमत के तौर-तरीक़ों को संरक्षित व बेहतर बनाया है।

यह नहीं भुलाया जा सकता है कि 1947 में उपनिवेशवादी हुकूमत के ख़त्म होने के बाद,  हिन्दोस्तानी राज्य की स्थापना ही देश के बंटवारे के साथ-साथ, बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा के बीच हुई थी। 1980 के दशक से उदारीकरण और निजीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के जन-विरोधी एजेंडा के खि़लाफ़ सभी जन-विरोध को भटकाने, बांटने और कुचलने के लिए, हुक्मरान पूंजीपति वर्ग सिखों, मुसलमानों और अन्य लोगों को निशाना बनाकर सांप्रदायिक हिंसा का इस्तेमाल करता रहा है।

हमें इस धारणा को दृढ़ता से ख़ारिज करना और इसका विरोध करना चाहिए, कि हिन्दोस्तानी राज्य धर्मनिरपेक्ष है जबकि कुछ धार्मिक कट्टरपंथी समस्या का कारण हैं। 1980 के दशक में, कम्युनिस्ट आंदोलन में कुछ लोग “सिख कट्टरवाद” को समस्या का कारण बताने वाले राज्य के प्रचार से सहमत हो गए थे। वह एक गंभीर ग़लती थी। उसकी वजह से, राजकीय आतंकवाद और इजारेदार पूंजीवादी घरानों की हुक्मशाही के खि़लाफ़ राजनीतिक एकता बनाने का संघर्ष कमज़ोर हो गया था।

आज, राज्य का प्रचार “इस्लामी कट्टरवाद” को मुख्य समस्या के रूप में प्रस्तुत करता है। यह कम्युनिस्टों की बहुत बड़ी ग़लती होगी अगर वे राज्य के इस प्रचार के विरोध में “हिन्दू कट्टरवाद” को समस्या बताएं और हिन्दोस्तानी राज्य की “धर्मनिरपेक्ष बुनियाद” के बारे में भ्रम पैदा करते रहें। मज़दूर वर्ग और कम्युनिस्ट आंदोलन के संघर्ष को राज्य और इजारेदार पूंजीपतियों की हुक्मशाही के खि़लाफ़ निर्देशित किया जाना चाहिए। तभी हम अपने समाज को उलझाने वाली समस्याओं के समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।

आगे बढ़ने का रास्ता

हर इंसान के अलंघनीय अधिकार बतौर, ज़मीर के अधिकार की हिफ़ाज़त करने के संघर्ष में हमें मज़दूर वर्ग को अगुवाई देनी होगी। ज़मीर का अधिकार न केवल धार्मिक आस्थाओं पर बल्कि राजनीतिक विचारों पर भी लागू होता है। हम यह स्वीकार नहीं कर सकते हैं और हमें यह स्वीकार नहीं करना चाहिए कि राज्य कुछ लोगों को उनके ज़मीर के अधिकार से वंचित कर सकता है क्योंकि वे ऐसी राय प्रकट करते हैं जो सत्ता में बैठे लोगों को पसंद नहीं है।

हमें राज्य के हर उस क़दम का विरोध करना चाहिए जो किसी के ज़मीर के अधिकार का हनन करता है। एक पर हमला सब पर हमला है! यह हमारे संघर्ष के लिए एक अनिवार्य मार्गदर्शक है।

हमें सरमायदारों के मौजूदा सांप्रदायिक और आतंकवादी राज्य की जगह पर मज़दूरों और किसानों का राज्य स्थापित करने के उद्देश्य के साथ संघर्ष करना होगा। हमें स्वेच्छा पर आधारित, एक ऐसा हिन्दोस्तानी संघ बनाना होगा, जो बिना किसी अपवाद के सभी के मानव अधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध होगा।

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