कार्ल मार्क्स एक महानतम क्रांतिकारी विचारक व मज़दूर वर्ग के महान नेता थे। उनका जन्म 5 मई, 1818 को हुआ था। उनके जीवन का लक्ष्य था पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने और मज़दूर वर्ग तथा पूरे समाज को सभी प्रकार के शोषण से मुक्त कराने में अपना योगदान देना।
मार्क्स ने अपना काम ऐसे समय में किया था, जब 19वीं शताब्दी में औद्योगिक पूंजीपति वर्ग के विकास के साथ–साथ श्रमजीवी वर्ग का भी विकास हुआ था – उन लोगों का वर्ग, जो उत्पादन के किसी भी साधन के मालिक नहीं थे और जिनके पास अपनी श्रमशक्ति के अलावा, बेचने के लिए और कुछ भी नहीं था। यह वह समय था जब कई देशों में मज़दूर वर्ग के संगठन उभर रहे थे। कम्युनिस्ट लीग की स्थापना श्रमजीवी वर्ग के एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन के रूप में की गई थी।
मार्क्स और उनके साथी फ्रेडरिक एंगेल्स का सैद्धांतिक कार्य मज़दूर वर्ग के संघर्ष के साथ नज़दीकी के सम्बन्ध में विकसित हुआ। मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट लीग के नियमों का मसौदा तैयार किया था, जिसे दिसंबर 1847 में, उसके दूसरे महाअधिवेशन में अपनाया गया था।
एंगेल्स के साथ मिलकर, उन्होंने 1848 में कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र प्रकाशित किया था। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में कम्युनिस्टों का कार्य निर्धारित किया गया – यानी, मज़दूर वर्ग को शासक वर्ग बनने के लिए आवश्यक चेतना दिलाना व संगठित करना और उत्पादन के साधनों को निजी मालिकी से सामाजिक मालिकी में बदलना। उन्होंने यह महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला कि पूंजीपति वर्ग का पतन और मज़दूर वर्ग की जीत अनिवार्य है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र के अंत में यह ऐलान किया गया कि:
“हुक्मरान वर्गों को कम्युनिस्ट क्रांति के डर से कांपने दो। मज़दूरों के पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा और कुछ नहीं है। उनके पास जीतने के लिए पूरी दुनिया है। सभी देशों के मज़दूरों, एक हो!”
उस समय से लेकर आज तक कम्युनिस्ट घोषणापत्र दुनिया का सबसे प्रभावशाली राजनीतिक दस्तावेज़ रहा है।
मार्क्स फर्स्ट इंटरनेशनल वर्किंगमेन्स एसोसिएशन के एक अग्रणी नेता थे। उन्होंने विश्व श्रमजीवी वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका के प्रति अपने दृढ़ विश्वास के आधार पर काम किया। मार्क्सवाद – माक्र्स द्वारा विस्तृत किया गया सिद्धांत – यह वर्ग संघर्ष के बीच में ही पैदा हुआ था। यह सिद्धांत श्रमजीवी वर्ग के लक्ष्य – खुद को और पूरे समाज को शोषण और वर्ग विभाजन से मुक्त कराने के लिए पूंजीपति वर्ग के शासन को उखाड़ फेंकने के लक्ष्य – को हासिल करने के लिए श्रमजीवी वर्ग के वैचारिक हथियार के रूप में उभरा। वह विचार किसी इंसान के दिमाग में जादू से नहीं पैदा हुआ था।
कॉमरेड लेनिन के शब्दों में, माक्र्सवाद “उन्नीसवीं शताब्दी में इंसान द्वारा उत्पादित सर्वश्रेष्ठ विचारों – जो जर्मन दर्शनशास्त्र, अंग्रेज़ राजनीतिक अर्थशास्त्र और फ्रांसीसी समाजवाद में पाए जाते हैं – का जायज़ उत्तराधिकारी है।”
दर्शनशास्त्र
18वीं सदी के अंत में फ्रांस में हुई सरमायदारी–लोकतांत्रिक क्रांति ने हर तरह के अंधविश्वास और मध्ययुगीन सोच के खि़लाफ़ विद्रोह करते हुए, भौतिकवाद के दर्शनशास्त्र को जन्म दिया था। मार्क्स और एंगेल्स ने सभी प्रकार के आदर्शवादी विचारों – जैसा कि सोचा जाता था कि यह भौतिक संसार एक भव्य विचार, एक अलौकिक शक्ति का उत्पाद है – इनका विरोध करते हुए, भौतिकवादी दर्शनशास्त्र की हिफ़ाज़त की और पूर्ण विकास किया। उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दार्शनिक दृष्टिकोण और कार्यपद्धति को जन्म दिया।
द्वंद्ववाद का मानना है कि अंदरूनी अंतर्विरोध सभी वस्तुओं और घटनाओं में अंतर्निहित हैं। उन सभी के अन्दर नकारात्मक और सकारात्मक पक्ष हैं, एक अतीत और एक भविष्य, कुछ मरता हुआ तो कुछ पैदा होता हुआ। इन विपरीतों के बीच संघर्ष – पुराने और नए के बीच, मरते हुए और नए पैदा होते हुए के बीच, ग़ायब हो रहे और उदयमान के बीच – यह ही विकास की प्रक्रिया का अंदरूनी सार है। प्रकृति और समाज को समझने की द्वंद्वात्मक पद्धति का मानना है कि सब कुछ निरंतर गतिशील है, जो विरोधी ताक़तों के बीच लगातार क्रिया–प्रतिक्रिया से प्रेरित है। विकास छोटे–छोटे परिवर्तनों के परिणामस्वरूप अन्ततः एक गुणात्मक छलांग के रूप में होता है।
मार्क्स और एंगेल्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांतों को मानव समाज के इतिहास को समझने के लिए इस्तेमाल किया और इसके आधार पर वर्ग–विभाजित समाज की गति के सामान्य नियम को समझाया। एक के बाद एक क्रांतियों के माध्यम से समाज के विकास का ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण, जिसके द्वारा समाज की आदिम–वर्गहीन अवस्था से लेकर वर्ग–विभाजित समाज के विभिन्न रूपों और चरणों से गुजरते हुए, पूंजीवाद के वर्तमान चरण तक पहुंचने की प्रक्रिया को भली–भांति समझा जा सकता है, उसे कम्युनिस्ट घोषणापत्र में प्रस्तुत किया गया था। इस विश्लेषण के आधार पर, घोषणापत्र ने यह निष्कर्ष निकाला था कि पूंजीवाद भी एक अस्थायी व्यवस्था ही है जो एक दिन समाप्त हो जाएगी और उसका स्थान कम्युनिज्म़ की बेहतर व्यवस्था ले लेगी, जिसका प्रारंभिक चरण समाजवाद होगा।
राजनीतिक अर्थशास्त्र
मार्क्स से पूर्व, कई वैज्ञानिक चिंतकों ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में विक्रय वस्तुओं के विनिमय को निर्धारित करने वाले मूल्य के नियम का आविष्कार किया था। उन्होंने यह आविष्कार किया था कि किसी भी विक्रय वस्तु का मूल्य उसमें निहित मानव श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है। परंतु वे चिंतक पूंजीवादी मुनाफ़े के स्रोत को नहीं समझ पा रहे थे। अगर औसतन तौर पर बाज़ार में समान मूल्य की वस्तुओं का विनिमय होता है, तो यह कैसे होता है कि एक वर्ग के लोग लगातार मुनाफ़ा कमाते रहते हैं और अपनी निजी दौलत को बढ़ाते रहते हैं? पूंजीपति जितना खर्च करते हैं, उससे ज्यादा बार–बार कैसे वसूल लेते हैं? जब तक कार्ल मार्क्स ने अपने बेशी मूल्य के सिद्धांत को प्रस्तुत नहीं किया था, तब तक किसी भी चिंतक के पास इस सवाल का स्पष्ट उत्तर नहीं था।
मार्क्स ने यह पहचाना कि पूंजीवादी मुनाफे़ का स्रोत मज़दूरों के श्रम के शोषण में है। मुनाफ़ा, ब्याज और किराये की आमदनी और कुछ नहीं बल्कि पूंजीवादी मालिकों द्वारा अपने मज़दूरों के शोषण से निचोड़े गए बेशी मूल्य के हिस्से हैं। एक वेतन–भोगी मज़दूर वास्तव में हर दिन काम के पहले के कुछ घंटों में अपने वेतन को कमाने के लिए काम करता है और बाकी घंटों में वह पूंजीवादी मालिकों के लिए बेशी मूल्य पैदा करता है।
19वीं सदी के यूरोप में, पूंजीवाद बार–बार उतार और चढ़ाव के चक्र से गुज़र रहा था, जिसके परिणामस्वरूप हर दशक में लगभग एक बार अति–उत्पादन का संकट पैदा हो रहा था। राजनीतिक अर्थशास्त्र के विद्वान यह नहीं बता सके कि उत्पादन प्रणाली बार–बार संकट में क्यों पड़ रही थी। मार्क्स ने समझाया कि उत्पादन के सामाजिक चरित्र और उत्पादन के साधनों की मालिकी के निजी चरित्र के बीच, पूंजीवाद के इस बुनियादी अंतर्विरोध में ऐसे बार–बार आने वाले संकटों का स्रोत है। अधिकतम मुनाफे़ कमाने के इरादे से आपस में प्रतिस्पर्धा करते हुए, पूंजीपति वर्ग मज़दूरों और अन्य शोषित तबकों की ख़रीदारी करने की शक्ति को निचोड़ लेते हैं, जिससे विक्रय वस्तुओं के लिए बाज़ार में मांग की कमी हो जाती है। यही कारण है कि सभी पूंजीवादी समाजों में बार–बार “अति–उत्पादन” का संकट पैदा होता है, यानी जनता की क्रय शक्ति के घट जाने के कारण उत्पादन की वृद्धि में रुकावट आ जाती है।
मार्क्स की खोजों से यह निष्कर्ष निकला कि समाज को वर्ग–विभाजन से मुक्त और बार–बार आने वाले आर्थिक संकटों से मुक्त, अपने अगले उच्च चरण तक आगे ले जाने के लिए, पूंजीवाद के इस मूलभूत अंतर्विरोध को हल करना अत्यंत ज़रूरी है। इसका यह मतलब है कि सामाजिक उत्पादन के साधनों को निजी संपत्ति से सामाजिक संपत्ति में बदलना होगा। इससे उत्पादन प्रक्रिया के लिए पूंजीवादी लालच को पूरा करने के बजाय समाज की ज़रूरतों को पूरा करना संभव हो सकेगा।
वैज्ञानिक समाजवाद
यूरोप में सरमायदारी–लोकतांत्रिक क्रांतियों ने पुरानी सामंती व्यवस्था को उखाड़ फेंका था, लेकिन मेहनतकश बहुसंख्यक जनता पूंजीवाद की नई सामाजिक व्यवस्था के तहत शोषित और उत्पीड़ित बनी रही। मेहनतकश लोगों की अधूरी आकांक्षाओं की वजह से समाजवाद के विचार और दृष्टिकोण का जन्म हुआ, समाज की एक बेहतर व्यवस्था के रूप में, जो पूंजीवाद की बुराइयों से मुक्त होगी। परन्तु समाजवाद के शुरुआती विचार काल्पनिक थे। यूटोपियन (कल्पना पर आधारित) समाजवादियों ने पूंजीवादी समाज की आलोचना तो की लेकिन वे यह नहीं बता सके कि कौन–सी सामाजिक शक्ति उस नये समाज का निर्माता बनने के क़ाबिल है।
मार्क्सवाद ने समाजवाद को वैज्ञानिक आधार दिया। मार्क्सवाद ने श्रमजीवी वर्ग – वह वर्ग जिसके पास अपनी श्रम शक्ति के अलावा कोई संपत्ति नहीं है – को उस एकमात्र वर्ग के रूप में पहचाना, जिसमें पूंजीवाद से कम्युनिज़्म तक क्रांतिकारी परिवर्तन को पूरा करने की रुचि है और क्षमता भी।
मार्क्स से पहले के विद्वानों ने यह पता लगाया था कि परस्पर विरोधी हितों वाले वर्गों के बीच संघर्ष के ज़रिये, समाज का विकास एक चरण से दूसरे चरण तक हुआ है। माक्र्स ने इस सिद्धांत को इसके तर्कसंगत निष्कर्ष तक विकसित किया – कि वर्ग संघर्ष अनिवार्यतः श्रमजीवी वर्ग के अधिनायकत्व को अंजाम देता है, जो वर्ग विभाजन के अंत और वर्गहीन कम्युनिस्ट समाज के उद्भव की शुरुआत है।
निष्कर्ष
पिछले 175 वर्षों से भी अधिक समय में विश्व में जो भी विकास हुए हैं वे मार्क्सवाद की वैज्ञानिक वैधता की पुष्टि करते हैं। आज हम प्रत्येक पूंजीवादी देश की अर्थव्यवस्था में जो तीव्र अंतर्विरोध देखते हैं, उससे स्पष्ट पता चलता है कि यह एक सड़ी–गली व्यवस्था है। यह बढ़ती ग़रीबी, बेरोज़गारी और एक ध्रुव पर बहुत अमीर अल्पसंख्यक व दूसरे ध्रुव पर विशाल शोषित बहुसंख्यक के बीच बढ़ती खाई का समाधान प्रदान करने में असमर्थ है।
समाधान वही है जो कार्ल मार्क्स ने बताया था – श्रमजीवी क्रांति, जो पूंजीवाद की क़ब्र खोदेगी और समाजवाद तथा वर्गहीन कम्युनिस्ट समाज का रास्ता खोलेगी।