1857 का महान ग़दर – सदैव प्रेरणा का स्रोत रहेगा

1857 का ग़दर हमारे इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। जिसने एक नई राजनीतिक सत्ता के विचार और नज़रिये को जन्म दिया एक ऐसा हिन्दोस्तान जिसके मालिक इस देश में रहने वाले लोग हैं। जिसने एक ऐसे नज़रिये को और मंजिल को लोगों के सामने पेश किया, जिसके द्वारा इस उपमहाद्वीप में रहने वाली विभिन्न राष्ट्रीयताओं और विभिन्न भाषाओं, जातियों, जनजातियों और धार्मिक मान्यताओं के लोगों को अपने हाथों में सत्ता हासिल करने के संघर्ष के लिए प्रेरणा मिली।

हमारे देश पर जो पूंजीपति वर्ग शासन कर रहा है, वह हर उस क़दम के खि़लाफ़ है जो 1857 के महान ग़दर के संघर्ष का प्रतीक है। हिन्दोस्तान के लोगों पर अपने शोषणकारी और दमनकारी शासन को क़ायम रखने के लिए वह फूट डालो और राज करो की अपनी पसंदीदा नीति लागू कर रहा है। यह रणनीति लोगों को धर्म, राष्ट्रीयता, जाति और आदिवासी संबद्धता के आधार पर एकदूसरे के खि़लाफ़ लड़ाने की नीति है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि हमारे देश के लोग उस विचार और नज़रिये के लिए एक साथ मिलकर संघर्ष न करें, जिसने महान ग़दर को प्रेरित किया था इस आत्मविश्वास के साथ कि हिन्दोस्तान उसके अपने लोगों का है और लोगों को देश का मालिक बनना चाहिए।

महान ग़दर की 167वीं वर्षगांठ के अवसर पर, हम इस ऐतिहासिक घटना की 160वीं वर्षगांठ के अवसर पर हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के केन्द्रीय समिति के आह्वान को दोबारा छाप रहे हैं। इसके साथसाथ हम महान ग़दर का झंडागीत भी प्रकाशित कर रहे हैं।

लोगों के हाथों में संप्रभुता सौंपने के संघर्ष को आगे बढ़ायें!

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का आह्वान, 10 मई, 2017

आज 1857 के महान ग़दर की 160वीं वर्षगांठ है, जिसे हिन्दोस्तान की आज़ादी की पहली लड़ाई के नाम से भी जाना जाता है। इसी दिन 10 मई को बर्तानवी हिन्दोस्तानी सेना की मेरठ की टुकड़ी के जवानों ने बग़ावत कर दी थी और दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने के लिए कूच कर दिया था। पूरे उपमहाद्वीप में बर्तानवी हुकूमत के खि़लाफ़ बग़ावत के लिए यह एक संकेत था।

लड़ाई का भौगोलिक विस्तार और उसमें शामिल लोगों की संख्या को यदि देखा जाये, तो 1857 का ग़दर 19वीं शताब्दी की सबसे बड़ी लड़ाई थी। बर्तानवी हिन्दोस्तानी सेना के सैनिकों से लेकर देशभक्त राजाओं व रानियों, जनजातियों के लोगों, किसानों और कारीगरों, सभी ने इस हथियारबंद बग़ावत में हिस्सा लिया। बाग़ियों को कई व्यापारियों, बुद्धिजीवियों तथा तमाम तरह के धार्मिक गुरुओं और नेताओं का भी सक्रिय समर्थन प्राप्त था। वे सब एक मक़सद और कार्यक्रम के लिए एकजुट हुए थे बस्तीवादी लूट को ख़त्म करना, किसानों, कारीगरों और उन सभी लोगों की ज़रूरतों को पूरा करना जो हिन्दोस्तान की संपत्ति पैदा करते हैं।

मेरठ से निकले जिन बाग़ी सैनिकों ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा किया, ईस्ट इंडिया कंपनी की दमनकारी और विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंका और बहादुर शाह ज़फ़र को नई राजनीतिक सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली के तख़्त पर बैठाया। दिल्ली में शासन का एक दरबार (कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन) स्थापित किया गया, जिसमें आम जनता और सैनिक दोनों शामिल थे और राजा दरबार के फै़सले को मानने के लिए बाध्य था।

बहादुर शाह ज़फ़र ने यह खुलेआम ऐलान किया कि उन्हें इस तख़्त पर लोगों ने बैठाया है और वे लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए वचनबद्ध हैं। उन्होंने इस तर्क को पेश किया कि बर्तानवी हुकूमत नाजायज़ है और उसे पूरी तरह से ख़त्म कर देना चाहिए और कहा कि “भविष्य में क्या होगा, इसका फै़सला हिन्दोस्तान के लोग करेंगे”।

12 मई, 1857 को बहादुर शाह ज़फ़र ने यह शाही फरमान जारी किया:

हिन्दोस्तान के सभी हिन्दुओं और मुसलमानों, सभी लोगों के प्रति अपने फ़र्ज़ को मद्देनज़र रखते हुए, मैंने यह फै़सला किया है कि मैं अपने लोगों के साथ खड़ा रहूंगा। इस नाजुक घड़ी में जो कोई क़ायरता दिखाएगा या फिर अपने भोलेपन में धूर्त अंग्रेजों की मदद करेगा, उनके वादों पर विश्वास करेगा, उसका भ्रम जल्दी ही टूट जायेगा। उनको याद रखना चाहिए कि अंग्रेज उनकी वफ़ादारी के साथ उसी तरह विश्वासघात करेंगे, जैसे उन्होंने अवध के शासक के साथ किया था। सभी हिन्दुओं और मुसलमानों का यह परम कर्तव्य है कि वे अंग्रेजों के खि़लाफ़ इस बग़ावत में शामिल हों। उन्हें अपने शहर और इलाके के नेताओं से निर्देश लेते हुए, उनकी अगुवाई में देश में क़ानून और व्यवस्था बहाल करने के लिए क़दम उठाने चाहिए। यह सभी लोगों का परम कर्तव्य है कि वे इस फरमान की प्रतियां बनाएं और जहां तक हो सके शहर के हर महत्वपूर्ण जगह पर प्रदर्शित करें। लेकिन इसके पहले वे खुद को हथियारबंद करें और अंग्रेजों के खि़लाफ़ जंग छेड़ दें”।

इसके अलावा उन्होंने एक और फरमान जारी किया जिसमें लोगों को ख़बरदार किया गया था:

अंग्रेज, हिन्दुओं को मुसलमानों के खि़लाफ़ और मुसलमानों को हिन्दुओं के खि़लाफ़ भड़काने की कोशिश करेंगे। उनकी बातों की ओर ध्यान मत दो और उनको देश से खदेड़ दो”।

सर्वोच्च सत्ता, जिसके प्रति लोगों के दिलों में बेहद सम्मान था, इसके द्वारा जारी किये गए इन फरमानों से क्रांतिकारी बग़ावत को गति मिली और यह बर्तानवी हिन्दोस्तान में चारों ओर तेज़ी से फैल गयी। मई और जून के दौरान बंबई और मद्रास में बर्तानवी सेना के केन्द्रों में पर्चे निकाले गए, जिनमें बहादुर शाह ज़फ़र को “हिन्दोस्तान का सम्राट” घोषित करते हुए बर्तानवी हुकूमत के ख़त्म हो जाने की बात कही गई थी।

दो वर्षों तक चली इस प्रचंड लड़ाई के अंत में बर्तानवी बस्तीवादियों की जीत हुई। उन्होंने कुछ गद्दार राजाओं और राजकुमारों, बड़े जमींदारों और पूंजीपति व्यापारियों की मदद से इस क्रांति को सबसे बड़े क्रूर क़त्लेआम के समंदर में डुबो दिया।

1857 का ग़दर हमारे इतिहास की धारा को तय करने वाला एक महत्वपूर्ण क्षण था। इस ग़दर ने एक नई राजनीतिक सत्ता के विचार और नज़रिए को जन्म दिया यह नई राजनीतिक सत्ता एक ऐसा हिन्दोस्तान है, जहां इस देश के लोग उसके मालिक हैं। इस नए विचार ने एक ऐसे हिन्दोस्तान का नज़रिया पेश किया, जिसने इस महाद्वीप के हर एक हिस्से में बसे अलगअलग राष्ट्रीयताओं, भाषाओं, जातियों, जनजातियों और धर्मों में आस्था रखने वाले सभी लोगों को लामबंध किया।

हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा!” ग़दर के बागियों का यह नारा लोगों के हाथों में संप्रभुता सौंपने की लड़ाई का एक शक्तिशाली बिगुल बन गया।

जबकि इस क्रांतिकारी बग़ावत को अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया, लेकिन इससे निकली विचारसामग्री और नज़रिया लोगों की अंतरआत्मा से न मिटाया जा सका। हम, लोग हिन्दोस्तान के मालिक हैं, यह मांग 20वीं सदी में आने वाली क्रांतिकारियों की तमाम पीढ़ियों को प्रेरित करती रही और आज भी करती है।

आज हमारे समाज में पनप रही हर समस्या का स्रोत इस हक़ीक़त में है कि 1857 में ग़दरियों के उद्देश्यों को 1947 में पूरा नहीं किया गया। 1947 में संप्रभुता को लंदन से दिल्ली में हस्तांतरित कर दिया गया, लेकिन वह लोगों के हाथों में नहीं आई। आज हिन्दोस्तान के लोग, हिन्दोस्तान के मालिक नहीं हैं। समाज और उसके विकास की दिशा तय करने में बहुसंख्यक लोगों की कोई भूमिका नहीं है। हिन्दोस्तान का भविष्य तय करने वाले फै़सले लेने की सर्वोच्च ताक़त चंद मुट्ठीभर शोषकों के हाथों में है, जिनकी अगुवाई हिन्दोस्तान के 150 इजारेदार पूंजीपति घराने करते हैं। परस्पर विरोधी राजनीतिक पार्टियां इन इजारेदार पूंजीपति घरानों का प्रतिनिधित्व करती हैं और बारीबारी से इनके राज्य को चलाने का काम करती हैं, जबकि लोग शोषण की इस व्यवस्था में मात्र शक्तिहीन शिकार और वोट देने वाली भेड़बकरी बनकर रह जाते हैं।

लोगों के हाथों में संप्रभुता सौंपना, समाज को इस संकट के दलदल से निकालने और समाज के सबतरफा विकास के रास्ते को खोलने की चाबी है। समाज को तमाम तरह के शोषण, दमन, भेदभाव और गुलामी से पूरी तरह से मुक्त करने के लिए यह सबसे महत्वपूर्ण कार्य है।

हिन्दोस्तानी समाज को इस रास्ते पर जाने से वे लोग रोक रहे हैं, जो देश के अधिकांश लोगों को सत्ताहीन बनाये रखना चाहते हैं। ऐसे लोग देश और विदेश दोनों जगह बैठे हुए हैं। ये ताक़तें मौजूदा राज्य और उसके राजनीतिक सिद्धांत की हिफ़ाज़त करती हैं, जो राजनीतिक सिद्धांत यह मानता है कि हिन्दोस्तान के लोग खुद अपनी हुकूमत चलाने के क़ाबिल नहीं हैं।

1858 में महारानी विक्टोरिया के फरमान से शुरू होकर, जिसके तहत हिन्दोस्तान की संप्रभुता बर्तानवी ताज के पास चली गयी थी और ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता ख़त्म हो गई थी। इस विशाल उपमहाद्वीप के लोगों को बांटकर, उनपर अपनी हुकूमत स्थापित करने के लिए बर्तानवी हिन्दोस्तान की राज्य मशीनरी का सुनियोजित तरीके से निर्माण किया गया। बस्तीवादी लूट और लोगों की गुलामी को बनाये रखने के लिये, “कानून का शासन” लागू करने के लिए तमाम संस्थाएं और तंत्र बनाये गए। जिन पूंजीपति और जमींदार गद्दारों ने अंग्रेजों का साथ दिया उन्हें ईनाम दिया गया और उनको इस बस्तीवादी लूट से बड़ा फ़ायदा मिला। अंग्रेजों ने एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया बनाई जिसमें इन गद्दार वर्गों के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया, जबकि बहुसंख्य जनसमुदाय को सत्ता से बाहर रखा गया।

अंग्रेजों द्वारा निर्मित यह राज्य इस सिद्धांत पर आधारित है कि हिन्दोस्तान के लोग परस्परविरोधी और दुश्मनीपूर्ण धार्मिक समुदायों में बंटे हुए हैं और वे खुद अपनी हुकूमत चलाने के क़ाबिल नहीं हैं। तथाकथित तौर से उनपर अपनी हुकूमत चलाना “श्वेत व्यक्ति का बोझ” है ताकि हिन्दोस्तानियों को एक दूसरे का क़त्ल करने से रोका जा सके।

बड़े पूंजीपति और बड़े जमींदारों के प्रतिनिधियों से भरी हुई और अंग्रेजों द्वारा सांप्रदायिक आधार पर बनायी गयी संविधान सभा ने 1950 में आज़ाद हिन्दोस्तान का संविधान स्वीकार किया। इस संविधान सभा ने बर्तानवी बस्तीवादी राज्य के मूल ढांचे और उसके सिद्धांत को बरकरार रखा, जिसके मुताबिक हिन्दोस्तानी लोग खुद अपनी हुकूमत चलाने के क़ाबिल नहीं हैं। केवल संसद और राज्य विधानसभाओं को क़ानून बनाने का अधिकार है और इन संस्थाओं के भीतर केवल सत्ताधारी गुट को ही नीति निर्धारित करने का अधिकार है। मेहनतकश बहुसंख्यक आबादी को केवल वोट डालने का अधिकार है, जिसके द्वारा वह सारी सत्ता चुने गए “लोगों के प्रतिनिधियों” के हाथों में सौंप देती है। चुनाव से पहले न तो उनको उम्मीदवार का चयन करने का अधिकार है और न ही चुने गए प्रतिनिधियों से काम का हिसाब मांगने का अधिकार है तथा न ही कोई क़ानून प्रस्तावित करने का अधिकार है। इस बात से यह एकदम साफ़ है कि यह संविधान लोगों के हाथों में संप्रभुता नहीं देता है।

आज दो खेमों के बीच कभी न मिट सकने वाला संघर्ष चल रहा है। एक खेमा उन लोगों का है, जो संप्रभुता को लोगों के हाथों के सौंपना चाहते हैं। और दूसरा खेमा उन लोगों का है, जो इस राज्य और उसके संविधान की हिफ़ाज़त कर रहे हैं। यह टकराव 1857 की बग़ावत के सार और महत्व के मूल्यांकन में भी साफ झलकता है। इन दोनों खेमों के मूल्यांकन में जमीन आसमान का अंतर है।

बर्तानवी बस्तीवादियों ने यह झूठ फैलाया कि 1857 का ग़दर “मुसलमानों की बग़ावत” थी। इस प्रचार का उन्होंने मुसलमानों के क़त्लेआम को जायज़ ठहराने के लिए इस्तेमाल किया, जिसे उन्होंने पटियाला, जींद और फरीदकोट के गद्दार राजाओं के साथ मिलकर अंजाम दिया। उन्होंने यह झूठ फैलाया कि सिख लोगों ने 1857 की बग़ावत में हिस्सा नहीं लिया। उन्होंने इस ग़दर को “सैनिकों की बग़ावत” का नाम दिया, ताकि वे इस बात को छुपा सकें कि इसमें समाज के सभी तबकों के लोगों ने हिस्सा लिया था।

1857 के बारे में इस दुष्प्रचार को आज भी लगातार फैलाया जा रहा है। जो लोग मौजूदा राज्य और उसके संविधान को बरकरार रखना चाहते हैं, वे 1857 की छवि को तोड़मरोड़कर पेश करते हैं। वे इस बात से इंकार करते हैं कि 1857 का ग़दर, हिन्दोस्तान के लोगों की इस चाहत को दर्शाता है कि उन्हें खुद समाज का मालिक बनना होगा। झूठ का दुष्प्रचार फैलाने वाले नहीं चाहते हैं कि हिन्दोस्तान के लोग अपनी क्रांतिकारी परंपरा से प्रेरणा लें। खुद को अपनी किस्मत का मालिक बनने की लोगों की बरसों पुरानी तमन्ना को वे हमेशा के लिए दफ़न कर देना चाहते हैं।

ऐसे भी कई इतिहासकार और बुद्धिजीवी हैं, जो यह दावा करते हैं कि 1857 का ग़दर सामंती और पिछड़ी ताक़तों की बग़ावत थी, जो तथाकथित तौर से समाज को बस्तीवादपूर्व के काल में वापस ले जाना चाहती थी। दूसरे शब्दों में, बर्तानवी बस्तीवादी राज्य और उसका “क़ानून का राज” नए समाज का प्रतिनिधित्व करता था, जबकि 1857 की बग़ावत पुराने समाज की झलक थी। इस तरह वे, सच्चाई को एकदम उल्टा करके पेश करते हैं।

1857 के ग़दर के दौरान, बहादुर शाह ज़फ़र यह नहीं तय कर रहे थे कि लोगों को किस बात के लिए लड़ना है, बल्कि इसके ठीक विपरीत जनसमुदाय की क्रांतिकारी बग़ावत ने राजा को लोगों के साथ खड़ा होने के लिए बाध्य कर दिया था। लोगों की परिषद का बनाया जाना, जिसका फै़सला राजा के लिए मानना ज़रूरी था, यह पूर्णतया एक नयी चीज उभर कर आई थी। यह पूरी तरह से जनतांत्रिक और गहरी क्रांतिकारी सोच थी। इसके ठीक विपरीत “श्वेत पुरुष का बोझ” के सिद्धांत पर आधारित बर्तानवी राज्य पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी था जो कि बस्तीवाद पूर्व के समाज की हर एक पिछड़ी चीजों, परंपराओं और रीतियों को बरकरार रखने पर आधारित था, ताकि लोगों को हमेशा के लिए बांटकर, गुलाम बनाकर रखा जा सके।

हमारे देश के मज़दूर वर्ग, किसानों और सभी मेहनतकशों तथा देशभक्तों के लिए 1857 का ग़दर और उसका नारा “हम हैं इसके मालिक!” एक नए हिन्दोस्तान का सिद्धांत और नज़रिया पेश करता है, जो जन्म लेने के लिए तड़प रहा है। आओ, हम सब पूरे दिल से हिन्दोस्तान के नवनिर्माण के कार्य में जुट जायें एक नए राज्य और राजनीतिक प्रक्रिया के लिए काम करें, जो इस उसूल पर आधारित होगी कि संप्रभुता लोगों के हाथों में निहित होनी चाहिए और सभी के लिए सुख, समृद्धि और सुरक्षा सुनिश्चित करना राज्य का फ़र्ज़ है।

हम हैं इसके मालिकहम हैं हिन्दोस्तान!
मज़दूर, किसान, औरत और जवान

ग़दर जारी है!

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