तमिलनाडु के कपड़ा मज़दूर द्वारा लगातार चलाये जा रहे संघर्ष के कारण राज्य सरकार कपड़ा मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी को संशोधित करने का प्रस्ताव कर रही है। इस क्षेत्र में पूंजीपतियों ने अपने मुनाफे़ को बचाने के लिए मज़दूरों पर हमले तेज़ कर दिए हैं। वे अनुभवी कर्मचारियों की जबरन छंटनी कर रहे हैं। गारमेंट्स एंड फैशन वर्कर्स यूनियन (जी.ए. एफ.डब्ल्यू.यू.) इन हमलों के ख़िलाफ़ लड़ रही है।
जाना जाता है कि तमिलनाडु के कपड़ा और गारमेंट तथा उससे संबंधित उद्योगों में 6,00,000 से अधिक मज़दूर काम करते हैं। जिनमें बड़ी संख्या महिला मज़दूरों की है। इन महिला मज़दूरों को ज्यादातर आसपास के गांवों से भर्ती किया जाता है। उन्हें हर दिन गाड़ी के ज़रिये कार्यस्थलों पर लाया जाता है। इन कपड़ा कारखानों में अत्याधिक उत्पीड़न और असंभव लक्ष्यों की मांग के कारण यहां का माहौल और मज़दूरों के ख़िलाफ़ और बहुत की बेरहती भरा होता है। मज़दूरों और विशेषकर महिला मज़दूरों के साथ बहुत ही अमानवीय व्यवहार किया जाता है। महिलाओं को बहुत ही कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और उनके वेतन में अवैध कटौती भी कर ली जाती है। इन कारखानों के स्थानीय मालिक, विदेशी ब्रांड भारी मुनाफ़ा कमाते हैं।
न्यूनतम वेतन अधिनियम यह निर्धारित करता है कि न्यूनतम वेतन को हर 5 साल में कम से कम एक बार संशोधित किया जाना चाहिए। इन कपड़ा मज़दूरों के वेतन को आखि़री बार 2014 में संशोधित किया गया था। विभिन्न बहाने को देकर पिछले 10 वर्षों से उनके न्यूनतम वेतन को संशोधित नहीं किया गया है। परिणामस्वरूप, आवश्यक वस्तुओं की लगातार बढ़ती क़ीमतों के कारण इन मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी साल-दर-साल कम होती जा रही है।
गारमेंट एंड फैशन वर्कर्स यूनियन ने कई बार इस मुद्दे को श्रम विभाग, सरकारी अधिकारियों और अदालत के सामने भी उठाया है। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को तमिलनाडु के श्रम विभाग के अधिकारियों को न्यूनतम मज़दूरी को तुरंत संशोधित करने का निर्देश देना पड़ा। नतीजतन, तमिलनाडु सरकार ने नवंबर में एक मसौदा आदेश जारी किया था कि जनवरी, 2024 तक बढ़ी हुई मज़दूरी के बारे में निर्णय लिया जाना चाहिए।
कपड़ा उद्योग के पूंजीपति पूरी कोशिश में लगे हुये हैं कि मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी में कोई भी संशोधन न हो सके। अपने मुनाफे़ को सुरक्षित रखने और बढ़ाने के लिए वे विभिन्न तरीक़ों से इस प्रक्रिया में देरी करने की कोशिश कर रहे हैं। वे सरकारी अधिकारियों को वेतन में वृद्धि का आदेश न देने के लिए मनाने की कोशिश कर रहे हैं।
ये कपड़ा कंपनियां नई न्यूनतम मज़दूरी लागू होने से पहले अनुभवी मज़दूरों, विशेषकर 45 वर्ष से अधिक की उम्र के लोगों की सेवाओं को समाप्त करने की कोशिश कर रही हैं। इनमें से कई कर्मचारी ट्रेड यूनियन के कार्यकर्ता हैं, जो मज़दूरों के अधिकारों के लिए लड़ते हैं। इसके अलावा ये पुराने मज़दूर अधिक वर्षों तक काम करने के कारण अधिकतम वेतन के साथ-साथ अन्य लाभों के भी पात्र हैं। इन अनुभवी मज़दूरों को नौकरी से निकालकर उनकी जगह युवा मज़दूरों को काम पर रखकर पूंजीपति अपना मुनाफ़ा बढ़ाते हैं।
पूंजीपति मालिक मज़दूरों का एक नया ग्रेड, अर्थात् ग्रेड-3, पेश करने की अपनी योजना में सफल हो गए हैं। जबकि ग्रेड 1 और 2 अब तक प्रत्येक स्तर पर मौजूद थे। वे ग्रेड-3 के कर्मचारियों का वेतन ग्रेड-2 के कर्मचारियों से लगभग 10 प्रतिशत कम तय करने की योजना बना रहे हैं। दावा किया जा रहा है कि कम वेतन वाले, इस नए शुरू किए गए ग्रेड-3 में केवल उन नए कर्मचारियों को ही लिया जाएगा जिनकी नई कंपनी में भर्ती की जायेगी। लेकिन मौजूदा और अनुभवी कर्मचारियों को भी ग्रेड-3 में धकेला जा सकता है।
कंपनियां अब अनुभवी कर्मचारियों को तथाकथित “स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना” को स्वीकार करने के लिए दबाव और धमकी देकर, एक से तीन महीने का वेतन देकर हटा रही है। घोषित की गई ये वी.आर.एस. योजनाएं निर्धारित किए गए किसी भी नियम या विनियम का पालन नहीं करती हैं। उनका उपयोग अनुभवी मज़दूरों और विशेष रूप से ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं को मनमाने ढंग से और अवैध रूप से लक्षित करने के लिए किया गया है।
जिस भी कंपनी में उन्होंने वी.आर.एस. योजना की घोषणा की है, वहां कर्मचारियों के बीच इस योजना को लेने वाला कोई नहीं है। ऐसे में कंपनियां 45 साल से अधिक उम्र के कर्मचारियों की सूची बना रही हैं और उन पर वी.आर.एस. फॉर्म पर तुरंत हस्ताक्षर करने के लिए विभिन्न माध्यमों से दबाव बना रही हैं।
गारमेंट एंड फैशन वर्कर्स यूनियन कपड़ा कंपनियों के इन क्रूर हमलों का विरोध कर रही है और मांग कर रही है कि अवैध तरीके से नौकरी से निकाले जाने को प्रबंधन तुरंत रोके।
कपड़ा कंपनियों के मालिकों ने 2013 में इसी तरह की रणनीति अपनाई थी, जब न्यूनतम मज़दूरी को 10 साल बाद संशोधित किया गया था। उस समय 2014 में संशोधित न्यूनतम वेतन लागू होने के बाद कंपनियों ने उस समय तक मज़दूरों को मुफ्त में दी जा रही परिवहन सेवाएं समाप्त कर दीं। इसके बाद, मज़दूरों को परिवहन सेवाओं के लिए भुगतान करना पड़ा। परिणामस्वरूप, न्यूनतम वेतन में संशोधन के माध्यम से उन्हें वेतन में की गई छोटी वृद्धि की राशि भी परिवहन शुल्क के नाम पर छीन ली गई।
कपड़ा फैक्ट्रियों के मालिक ऐसी ही कोशिश अब वी.आर.एस. की आड़ में कर रहे हैं।
रोज़मर्रा की वस्तुओं की क़ीमतें लगातार बढ़ने के बावजूद न्यूनतम मज़दूरी में नियमित रूप से संशोधन न करके मज़दूरों को लगातार लूटा जा रहा है। न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम के तहत, उस अवधि के लिए, जिसमें न्यूनतम मज़दूरी संशोधित नहीं की गई थी, उसकी बकाया राशि का दावा करने का कोई प्रावधान नहीं है। अधिकारियों की मिलीभगत से न्यूनतम मज़दूरी में संशोधन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने से पूंजीपतियों को फ़ायदा होता है।
कपड़ा मज़दूर, पूंजीपतियों द्वारा किये जा रहे इन हमलों की निंदा कर रहे हैं। मज़दूर इन हमलों के विरोध में बैठकें कर रहे हैं और वे इन हमलों का जवाब देने के लिए दृढ़ हैं।