कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, दिल्ली और पंजाब के वरिष्ठ मंत्रियों सहित कई राज्य सरकारों के प्रमुख प्रतिनिधियों ने 7 और 8 फरवरी को नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर आयोजित एक विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया। वे केंद्र सरकार द्वारा की गई उन विभिन्न कार्रवाइयों का विरोध कर रहे थे, जिनकी वजह से राज्य सरकारों के अधिकारों में कटौती हुई है और उनकी वित्तीय समस्याएं और भी गंभीर हो गई हैं।
इस टकराव का एक प्रमुख कारण है केंद्र सरकार द्वारा उपकर (सेस) और अधिभार (सरचार्ज) में बढ़ोत्तरी, जिनके ज़रिये इकट्ठा किये गये राजस्व को राज्यों के साथ बांटा नहीं जाता है। कुल केंद्रीय कर-संग्रह (टैक्स कलेक्शन) में, इस तरह के शुल्कों की हिस्सेदारी 2014-15 के 12.4 प्रतिशत से बढ़कर 2022-23 में 20 प्रतिशत से अधिक हो गई है।
राज्य सरकारों की वित्तीय समस्याओं का एक अन्य प्रमुख कारण, 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) का शुरू होना है। जीएसटी के शुरू होने से पहले, राज्य सरकारें अपने क्षेत्र में बेची जाने वाली वस्तुओं पर बिक्री कर (सेल्स टैक्स) की दरें तय करती थीं। अब बिक्री कर की जगह जीएसटी ने ले ली है, जिसकी दरें जीएसटी परिषद (जीएसटी काउंसिल) तय करती है, जिसकी अध्यक्षता देश के वित्त मंत्री करते हैं। कर-दरों पर निर्णय लेने की राज्य सरकार की ताक़त अब बहुत कम वस्तुओं तक ही सीमित है, उनमें से प्रमुख, शराब, पेट्रोल और डीजल जैसे पेट्रोलियम उत्पाद हैं।
जब जीएसटी लागू किया गया था तो उस समय एक समझौता हुआ था कि केंद्र सरकार एक निश्चित नियम के तहत, पांच साल की अवधि के लिए, राज्य सरकारों के राजस्व के किसी भी नुक़सान की भरपाई करेगी। केंद्र सरकार ने एक विशेष मुआवज़ा-उपकर लगाया, जिसके ज़रिये राज्यों को उनके मुआवजे़ के भुगतान के वित्तपोषण की उम्मीद थी। लेकिन क्योंकि 2020 और 2021 में लॉकडाउन से कुल कर संग्रह पर नकारात्मक प्रभाव हुआ, इसलिए राज्यों के राजस्व की कमी, अपेक्षा से और भी अधिक गंभीर हो गई। विशेष-उपकर से प्राप्त राजस्व, वादे के अनुसार मुआवजे़ के वित्तपोषण के लिए पर्याप्त नहीं है।
वित्त आयोग और केंद्र व राज्य के वित्त हिन्दोस्तान का संविधान, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच में कर लगाने के अधिकारों और व्यय की ज़िम्मेदारियों का एक निश्चित विभाजन निर्धारित करता है। यह प्रमुख टैक्स इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी केंद्र को सौंपता है, जबकि राज्यों को सिंचाई, स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं सहित प्रमुख व्यय की ज़िम्मेदारियां सौंपी जाती हैं। उदाहरण के लिए 2021-22 में राज्य सरकारों ने केंद्र और राज्यों द्वारा इकट्ठा किये गए संयुक्त राजस्व का 37 प्रतिशत एकत्र किया था, जबकि उन्होंने संयुक्त व्यय का 62 प्रतिशत खर्च किया था। राज्य स्तर पर राजस्व और व्यय के बीच असंतुलन को दूर करने के लिए, संविधान में वित्त आयोग (फाइनेंस कमीशन) नामक एक तंत्र का प्रावधान है, जिसे हर पांच साल में एक बार स्थापित किया जाता है। वित्त आयोग सिफ़ारिश करता है कि केंद्र सरकार को अगले पांच वर्षों के लिए केंद्रीय कर राजस्व में राज्यों को उनके हिस्से के रूप में कितना और अनुदान के रूप में कितना, हस्तांतरित करना चाहिए। एक बार वित्त आयोग की सिफ़ारिशों को स्वीकार कर लिया जाता है, उसके बाद केंद्र सरकार के लिए, राजस्व में राज्य सरकारों के हिस्से और अनुदान को लागू करना वैधानिक या अनिवार्य हो जाता है। गौर करने की ज़रूरत है कि यह उन सभी विभिन्न केंद्रीय और केंद्र प्रायोजित योजनाओं (जैसे मनरेगा) के तहत धन के हस्तांतरण के अलग है, क्योंकि इन विशेष योजनाओं के लिए, राज्य सरकारों को कितना धन दिया जायेगा, यह केंद्र सरकार की मर्ज़ी पर निर्भर करता है। समय के साथ, लगातार वित्त आयोगों ने राज्यों को हस्तांतरित किए जाने वाले, विभाज्य-करों की हिस्सेदारी में बढ़ोतरी की सिफ़ारिश की है। शुरू में, केवल कुछ विशिष्ट करों, जैसे व्यक्तिगत-आयकर और केंद्रीय उत्पाद शुल्क, से राजस्व साझा किया गया था। 11वें वित्त आयोग ने 2000-05 के दौरान सभी केंद्रीय करों को शामिल करने के लिए साझा करने योग्य राजस्व को बढ़ाया। इसने राज्यों की हिस्सेदारी 29.5 प्रतिशत तय की, जिसे 2005-10 के लिए 30.5 प्रतिशत और 2010-15 के लिए 32 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया। 14वें वित्त आयोग (2015-20 की अवधि के लिए) ने केंद्रीय कर संग्रह में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाकर 42 प्रतिशत कर दी। |