पैरिस कम्यून की सालगिरह:
श्रमजीवी लोकतंत्र ही असली लोकतंत्र है

इस महीने में एक ऐसी घटना की 153वीं सालगिरह है, जिसमें मज़दूर वर्ग ने पहली बार शोषक वर्गों की हुकूमत के खि़लाफ़ उठ खड़ा होकर, अपनी खुद की, पूरी तरह से नई, राज्य सत्ता स्थापित की थी। पैरिस कम्यून के नाम से मशहूर, 1871 में फ्रांस में मज़दूर वर्ग की इस उपलब्धि की दुनियाभर में सराहना की जाती है, क्योंकि इसने मानव जाति के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत की थी।

सदियों से, मेहनतकश लोग अपने उत्पीड़कों और शोषकों के खि़लाफ़ अनगिनत लड़ाइयां लड़ते आये हैं। मार्च 1871 में, पैरिस का मज़दूर वर्ग भी एडोल्फ थियर्स की सरमायदारी सरकार के खि़लाफ़ उठ खड़ा हुआ था। सरकार पैरिस के लोगों को पड़ोसी राज्य प्रशिया (आज के जर्मनी का हिस्सा) की बढ़ती सेना का सामना करने के लिए छोड़कर राजधानी से भाग गई थी। फ्रांसीसी सरमायदारों ने लोगों की पीठ के पीछे, एक विश्वासघातक आत्मसमर्पण का सौदा करने की कोशिश की थी। इन परिस्थितियों में पैरिस में मज़दूरों ने नेशनल गार्ड के सैनिकों के साथ मिलकर राज्य सत्ता अपने हाथों में ले ली थी। 26 मार्च को उन्होंने पैरिस कम्यून नामक एक नई प्रतिनिधि सभा चुनी थी।

National Guards of Paris behind the Barricades
बैरिकेड के पीछे तैनात नेशनल गार्ड

पैरिस कम्यून इस विषय में बेमिसाल थी कि इसके सदस्यों ने शुरू से ही समझ लिया था कि वे मौजूदा राज्य मशीनरी – सेना, पुलिस, अदालतें, जेल, क़ानूनी व्यवस्था, अफ़सरशाही, विधायिका, आदि – को उसी रूप में अपने हाथों में लेकर, उनका इस्तेमाल नहीं कर सकते थे। सरमायदारी राज्य के इन संस्थानों को सदियों से मेहनतकश लोगों पर अत्याचार करने और शोषकों के हितों की रक्षा करने के लिए विकसित किया गया था। कम्युनार्डों (पैरिस कम्यून के योद्धाओं) ने समझा था कि सरमायदार राज्य और उसकी सभी संस्थाओं को उनकी नींव से उखाड़ फेंकना होगा। उनके स्थान पर पूरी तरह से नए संस्थान बनाने होंगे, जो मज़दूर वर्ग और लोगों के हितों की सेवा करेंगे।

आज, सबसे अधिक भ्रम उन लोगों द्वारा पैदा किया जाता है जो दावा करते हैं कि सरमायदार वर्ग की हुकूमत को क़ायम रखने वाले राज्य का ही उपयोग मज़दूर वर्ग और अन्य शोषित लोगों के हितों की सेवा के लिए किया जा सकता है। लोगों को बताया जाता है कि अगर इस राज्य का संचालन करने वाला कोई नया नेता हो या कोई दूसरी पार्टी हो, तो हालतें बेहतर हो सकती हैं।

हमारे देश में, मज़दूर वर्ग और लोग चुनावों के अनंत चक्र में फंसे हुए हैं, जिसकी वजह से अलग-अलग नामों वाली अलग-अलग सरकारें सत्ता में लाई गयी हैं। लेकिन हमारे बहुसंख्यक लोगों की हालत वैसी ही बनी हुई है या और बदतर हो गई है। हिन्दोस्तानी और विदेशी शोषकों का एक छोटा-सा अल्पसंख्यक तबका हमारे श्रम का फल हड़प कर अमीर बन रहा है। इन हालतों को बदलने के लिए, मज़दूर वर्ग और मेहनतकश लोगों को उठना होगा और राज्य सत्ता को अपने हाथों में लेना होगा। उन्हें मौजूदा राज्य तंत्र को पूरी तरह से नष्ट करना होगा और राज्य सत्ता की अपनी नयी संस्थाएं स्थापित करनी होंगी, जो मज़दूर-मेहनतकश के हितों की सेवा करेंगी न कि शोषक वर्गों की। 150 से अधिक साल पहले पैरिस कम्यून ने यही दिखाया था।

श्रमजीवी लोकतंत्र को अमल में लाया गया

पैरिस कम्यून सिर्फ़ दो महीने तक क़ायम रहा, जिसके बाद प्रशिया और फ्रांसीसी सरमायदारों की संयुक्त सेना ने इसे बेरहमी से कुचल दिया था। लेकिन उन दो शानदार महीनों में, इसने दिखा दिया था कि जब मज़दूर वर्ग हुक्मरान शक्ति के रूप में संगठित होता है तो वह क्या कुछ कर सकता है।

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प्लेस वैंडोम में कम्युनार्डों ने नेपोलियन के बुत को गिरा दिया

अपनी स्थापना के कुछ ही दिनों के अन्दर, कम्यून ने उस पुरानी स्थायी सेना को ख़त्म कर दिया, जो सरमायदारी राज्य का सबसे बड़ा सहारा हुआ करती थी। पुरानी स्थायी सेना की जगह पर, सभी सक्षम लोग सशस्त्र होकर, अंदरूनी व बाहरी दुश्मनों से नई राज्य सत्ता की हिफ़ाज़त करने के लिए तैयार खड़े हो गए। उसके बाद उठाये गए क्रांतिकारी क़दमों के लिए यह एक शर्त थी।

पैरिस कम्यून द्वारा स्थापित राजनीतिक व्यवस्था सरमायदारी लोकतंत्र के विपरीत, श्रमजीवी  लोकतंत्र की व्यवस्था थी। कम्यून को, उस समय के सरमायदारी लोकतंत्रों में लिंग, संपत्ति या शैक्षिक योग्यता पर प्रचलित भेदभाव के बिना, सार्वभौमिक प्रौढ़ मताधिकार के आधार पर चुना गया था।

कम्यून एक विधायी और कार्यकारी निकाय, दोनों था। दूसरे शब्दों में, जन प्रतिनिधियों पर न केवल क़ानून बनाने का दायित्व था बल्कि उन्हें लागू करने का दायित्व भी था। इसकी वजह से कम्यून संसदीय लोकतंत्रों में विधायिकाओं की तरह सिर्फ़ बड़ी-बड़ी बातें करने वाला सदन नहीं बना। कम्यून के सदस्य सीधे तौर पर लोगों के प्रति जवाबदेह थे और उन्हें किसी भी समय वापस बुलाया जा सकता था। यह सरमायदारी लोकतंत्रों की स्थिति से बहुत अलग है, जिनमें लोग चुने गए प्रतिनिधियों को, उनके कार्यकाल की अवधि के दौरान, सभी शक्तियां सौंप देते हैं, और उनके पद पर बने रहने के दौरान उन पर कोई अंकुश लगाने में असमर्थ होते हैं।

कम्यून के सदस्यों और सभी पदाधिकारियों को सिर्फ़ मज़दूरों के समान वेतन मिलते थे, जिससे सरमायदारी हुकूमत में राज्य के संसाधनों को खर्च करने वाली महंगी और परजीवी अफ़सरशाही को ख़त्म कर दिया गया। श्रमजीवी वर्ग की हुकूमत ने राज्य के कामकाज पर उस समय तक डाले गए रहस्य के परदे को हटा दिया और सरल, सस्ती व प्रभावी सरकार दिलाई।

नई राज्य सत्ता से लैस होकर, कम्यून ने मेहनतकश लोगों को बांधकर रखने वाली अनेक जंजीरों से उन्हें रिहा करने के लिए ठोस क़दम उठाये। जो फैक्ट्रियां बंद हो गयी थीं, उन्हें मज़दूरों को स्वयं चलाने के लिए सौंप दिया गया। फैक्ट्री मालिकों द्वारा मज़दूरों पर अनेक जुर्माने लगाने की घिनावनी प्रणाली को समाप्त कर दिया गया। जिन घरों के मालिक छोड़कर भाग गए थे और जो घर खाली पड़े थे, उन्हें बेघरों को रहने के लिए दे दिया गया। किराये का भुगतान निलंबित कर दिया गया। गिरवी रखने वाली दुकानें जो कई मेहनतकश लोगों की बर्बादी की वजह थीं, उन्हें बंद कर दिया गया।

कम्यून ने कई महत्वपूर्ण प्रगतिशील सामाजिक क़दम उठाए, जिनमें कई क़दम सीधे तौर पर महिलाओं के हित में थे। विवाहित और अविवाहित माताओं के बच्चों के साथ समान व्यवहार किया जाने लगा और अविवाहित माताओं के बच्चों पर अवैधता का कलंक हटा दिया गया। रजिस्ट्री विवाह और तलाक के अधिकार को मान्यता दी गई। राज्य पर से चर्च का प्रभाव हटा दिया गया और धर्म निजी ज़मीर का मामला बन गया। ये सभी क़दम कम्यून की छोटी अवधि के दौरान और प्रशिया व फ्रांसीसी सामायदारों की संयुक्त ताक़तों के खि़लाफ़, घेराबंदी और युद्ध की हालतों में उठाए गए थे।

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बैरिकेड के रक्षा के लिये तैनात पैरिस के मज़दूर

पैरिस कम्यून की उपलब्धियों की सराहना करते हुए, मार्क्स और एंगेल्स ने बताया कि कम्यून ने उस राजनीतिक व्यवस्था के रूप को खोज लिया था जिसके तहत श्रमजीवी वर्ग सभी प्रकार के शोषण से मुक्ति प्राप्त कर सकता था। उन्होंने यह महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाला कि श्रमजीवी वर्ग सरमायदारों द्वारा तैयार की गयी राज्य की मशीनरी पर सिर्फ़ क़ब्ज़ा करके उसका इस्तेमाल नहीं कर सकता है। उसे सरमायदारी राज्य को नष्ट करना होगा और अपनी राज्य सत्ता स्थापित करनी होगी, जो पराजित शोषक वर्गों पर श्रमजीवी वर्ग के अधिनायकत्व का साधन होगा।

माक्र्स और एंगेल्स ने मज़दूर वर्ग की अनुभवहीनता के कारण उत्पन्न, पैरिस कम्यून की कमियों की ओर भी इशारा किया। उन्होंने बताया कि कम्यून कुछ निर्णायक क़दम उठाने में झिझक रहा था, जैसे कि बैंक ऑफ फ्रांस की संपत्तियों को ज़ब्त करना, जो सरमायदारी ताक़तों के लिए एक बड़ा झटका होता। सरमायदार पैरिस के मज़दूर वर्ग को ग्रामीण इलाकों के किसानों से अलग करने में भी सफल रहे, जिससे मज़दूर वर्ग को कुचलना आसान हो गया। इन कमियों से माक्र्स और एंगेल्स ने यह अनमोल निष्कर्ष निकाला कि सरमायदारों के खि़लाफ़ अपनी लड़ाई में, मज़दूर वर्ग को मेहनतकश किसानों के साथ अटूट एकता बनानी होगी। श्रमजीवी वर्ग को सरमायदारों के खि़लाफ़ अपने जीवन-मौत के संघर्ष में, अपने दुश्मनों के प्रति कोई नरमी नहीं दिखानी चाहिए।

पैरिस कम्यून के नक्शेक़दम पर चलते हुए और उसके अनुभव से सबक लेकर, वीआई लेनिन की अगुवाई वाली कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में, रूस के श्रमजीवी वर्ग ने 1917 में अक्तूबर क्रांति को अंजाम दिया था और वहां श्रमजीवी वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित किया। लेनिन ने द स्टेट एंड रिवोल्यूशन (राज्य और क्रांति) नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में राज्य और श्रमजीवी  वर्ग के कार्यों पर माक्र्स और एंगेल्स की शिक्षाओं की हिफ़ाज़त और विस्तार किया, जिन्हें कम्युनिस्ट आंदोलन के अन्दर तरह-तरह के मौकापरस्तों ने विकृत कर रखा था।

आज, पैरिस कम्यून के 153 साल बाद, दुनियाभर के देशों में मज़दूर वर्ग सरमायदारों की हुकूमत को समाप्त करने और उसके स्थान पर श्रमजीवी और अन्य मेहनतकश लोगों की हुकूमत को स्थापित करने के लिए ऐतिहासिक संघर्ष कर रहा है। इस संघर्ष में, पैरिस कम्यून द्वारा दिखाया गया रास्ता हमें प्रेरित और मार्गदर्शित करता रहता है।

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