कोलियरी मज़दूर सभा ऑफ़ इंडिया (सी.एम.एस.आई.) ने हाल ही में पश्चिम बंगाल के आसनसोल में निजीकरण विरोधी सम्मेलन आयोजित किया। सम्मेलन में कोयला खनन उद्योग के विभिन्न कार्यों का निजीकरण करने की केंद्र सरकार की कोशिशों पर ध्यान आकर्षित किया गया। इस मीटिंग में इस बात का पर्दाफ़ाश किया गया कि निजी कंपनियों को मुनाफ़ा दिलाने के लिये कैसे सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को बर्बाद किया जा रहा है। केंद्र सरकार पहले ही सार्वजनिक क्षेत्र की कोल इंडिया लिमिटेड (सी.आई.एल.) के 37 फीसदी शेयर बेच चुकी है।
आज कोयला उत्पादन तेज़ी से निजी कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। माइन रेवेन्यू शेयरिंग पोलिसी (ख़दान राजस्व सांझाकरण नीति) के तहत केंद्र सरकार सक्रिय कोलियरियों को निजी कंपनियों को सौंप रही है। सरकार इसे जायज़ ठहराने के लिए कह रही है कि कोयला उत्पादन कर रही ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (ई.सी.एल.) जैसी कई सरकारी कंपनियां घाटे में चल रही हैं और “राजस्व-सांझाकरण मॉडल” के ज़रिये निजी कंपनियों को शामिल करने से इनकी वित्तीय स्थिति सुधर जायेगी। यह दावा खोखला है, क्योंकि इस तरह के क़दमों से सरकारी कंपनियों के लाभदायक व्यवसायों को निजी कंपनियों को हस्तांतरित किया जा रहा है, जबकि घाटे में चल रहे व्यवसाय सरकारी कंपनियों के पास रहेंगे। नतीजन, सरकारी कोयला उत्पादक कंपनियों की वित्तीय स्थिति और भी बिगड़ जायेगी।
सम्मेलन में मज़दूर नेताओं ने बताया कि 36 कोयला खदानों पर राजस्व-सांझाकरण मॉडल लागू हो रहा है। इसके तहत (सांझेदार) निजी कंपनी द्वारा अपने मुनाफ़े का केवल 4 प्रतिशत शुल्क का भुगतान करना पड़ता है और यह भुगतान करने के बाद कंपनी को खनन करने की पूरी इजाज़त मिल जाती है। इस प्रकार, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों द्वारा, सार्वजनिक धन का उपयोग करके, खदानों को विकसित करने के बाद, निजी कंपनियों द्वारा बुनियादी ढांचे के विकास पर निवेश किये बिना ही, उन्हें मुनाफ़ा कमाने की इजाज़त मिल जाती है।
सम्मेलन में वक्ताओं ने बताया कि कैसे इस क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों ने देश की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए, कोयले की बढ़ती आवश्यकता को पूरा करने के लिए, तेज़ी से कोयले का उत्पादन बढ़ाया है। उन्होंने बताया कि 1971 और 1973 के बीच कोयला उत्पादन का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था क्योंकि इससे पहले कोयला उत्पादन करने वाली निजी कंपनियां बिजली क्षेत्र और धातु उद्योग की कोयले की मांग को पूरा करने में असमर्थ थीं। राष्ट्रीयकरण के समय कोयला उत्पादन केवल 6.9 करोड़ टन था, जो अब बढ़कर 78 करोड़ टन हो गया है।
उत्पादन में दस गुने से अधिक की वृद्धि के बावजूद, ई.सी.एल. का प्रबंधन स्थायी मज़दूरों की संख्या में कटौती करता आया है। विभिन्न योजनाओं के ज़रिये ठेकेदारों के प्रबंधन में, प्रवासी मज़दूरों द्वारा खनन कार्य करवाया जा रहा है। 1990 के दशक में अकेले ई.सी.एल. में 1,82,000 स्थायी मज़दूर कार्यरत थे, जो अब घटकर केवल 52,000 रह गये हैं। उत्पादन की क्षमता को बनाए रखने के लिए, ई.सी.एल. को उत्पादन “सांझेदार कंपनियों” को आउटसोर्स करना पड़ता है, जिन्हें यह काम ठेका मज़दूरों से करवाने की छूट दी जाती है। इन कंपनियों में मज़दूरों से, पर्याप्त सुरक्षा सावधानियों के बिना और बिना भत्तों के बहुत कम वेतन पर 12 घंटे काम करवाया जाता है। ई.सी.एल. ने अभी तक 33 परियोजनाओं को आउटसोर्स कर दिया है।
कोयला क्षेत्र में सार्वजनिक उद्योगों की वित्तीय बीमारी के लिए केंद्र सरकार ज़िम्मेदार है। काफी लंबे समय से पुरानी भूमिगत खदानों के रख-रखाव पर ध्यान नहीं दिया गया है। इस उपेक्षा के कारण कई भूमिगत खदानें अनुपयोगी हो गई हैं।
कोयला क्षेत्र के घाटे में चलने का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह है कि सरकारी कोयला कंपनियों का प्रबंधन करने वाले अफ़सरशाहों ने इनके वित्तीय संसाधनों को नष्ट कर दिया है। विदेशी सहयोग और सलाहकारों को भारी शुल्क और रॉयल्टी का भुगतान किया गया है। मज़दूर नेताओं ने बताया है कि इनमें से कई विदेशी सलाहकारों को हिन्दोस्तान की ज़मीनी हक़ीक़त की जानकारी नहीं होती है। इसकी वजह से, जो महंगे आयातित उपकरण ख़रीदे गये थे और खनन कार्यों में जो बदलाव किये गये थे, उन्हें थोड़े ही वक़्त में छोड़ना पड़ा है। हालांकि ये परियोजनाएं अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाईं, फिर भी उनको हजारों करोड़ों रुपयों का भुगतान किया गया। ऐसे सलाहकारों की कुछ सिफ़ारिशों को लागू करने पर दुर्घटनाएं भी हुईं, जिनके परिणामस्वरूप जीवन और राजस्व की हानि हुई, फिर भी इन सलाहकारों को कभी भी जवाबदेह नहीं ठहराया गया है।
1990 के दशक से कोयला खनन को निजी कंपनियों के लिए खोला गया है। कोयले के बड़े उपयोगकर्ताओं को कोयला खनन की इजाज़त दी गयी। 1992 में केंद्र सरकार ने बिजली उत्पादन की निजी कंपनियों को अपने उत्पादन के लिए खदानें (कैप्टिव माइन्स) देने का निर्णय लिया था। 1973 के राष्ट्रीयकरण अधिनियम में संशोधन किया गया ताकि सरकार अपनी इच्छानुसार निजी कंपनियों को कैप्टिव माइंस दे सके। सीमेंट की निजी कंपनियों को 1996 में इस सूची में जोड़ा गया था। बिजली, इस्पात, सीमेंट और अन्य ऊर्जा-गहन क्षेत्रों में निजी कंपनियों को अपनी खदानें देने की वजह से सार्वजनिक उद्योगों को अधिक लाभदायक खदानों से वंचित कर दिया गया है। सिर्फ़ निष्क्रिय और कम लाभदायक भूमिगत कोयला खदानें सार्वजनिक कंपनियों के पास रह गयी हैं, जबकि खुली कोयला खदानें, जिनमें से बहुत कम लागत पर कोयला निकाला जा सकता है, उन्हें निजी कंपनियों को सौंपा जा रहा है।
सरकार की समाज-विरोधी और मज़दूर-विरोधी निजीकरण की कोशिशों के खि़लाफ़ कोयला मज़दूरों का आंदोलन न्यायोचित है।