इज़रायल और फ़िलिस्तीनी लोगों के विषय पर मीटिंग

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के सदस्यों और समर्थकों ने फ़िलिस्तीनी लोगों और इज़रायली राज्य के बीच के विवाद की राजनीति पर चर्चा करने के लिए 22 अक्तूबर को दिल्ली में एक मीटिंग का आयोजन किया।

मीटिंग के आरम्भ में, 1917 की बाल्फोर घोषणा के बाद से पिछले 106 वर्षों में इस विवाद के इतिहास पर विस्तृत प्रस्तुति पेश की गयी। इसके बाद जोश भरी चर्चा हुई। मीटिंग की अध्यक्षता पार्टी के प्रवक्ता कामरेड प्रकाश राव ने की।

2 नवंबर, 1917 को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, ब्रिटिश विदेश सचिव बाल्फोर ने घोषणा की थी कि ब्रिटेन, युद्ध के बाद फ़िलिस्तीन में “यहूदियों का आवासीय राष्ट्र” बनाने के लिए काम करेगा। यह घोषणा अमरीका और फ्रांस की रजामंदी से की गई थी। प्रथम विश्व युद्ध के अंत में ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन, जो इससे पहले तुर्की साम्राज्य के अधीन था, पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन में यूरोप से आने वाले यहूदियों के प्रवास को बढ़ावा देना शुरू कर दिया।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1947 में फ़िलिस्तीन को दो राज्यों – इज़रायली राज्य और फ़िलिस्तीनी राज्य – में बांटने की योजना बनाई। मई 1948 में इज़रायल राज्य बनाया गया। इज़रायल ने अपने क्षेत्र का विस्तार करने के लिए फ़िलिस्तीनी लोगों के ख़िलाफ़ युद्ध शुरू कर दिया, जिसके कारण फ़िलिस्तीनियों को अपनी मातृभूमि से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा।

चर्चा के दौरान, यह स्पष्ट किया गया कि 1948 में इज़रायली राज्य के निर्माण का वास्तविक उद्देश्य उत्पीड़ित यहूदियों को राष्ट्र प्रदान करना नहीं था। वह झूठी धारणा बरतानवी-अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा फैलायी गयी थी। उनका असली मक़सद पश्चिम एशिया में साम्राज्यवाद के हितों को आगे बढ़ाना था। उसका किसी भी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं था।

ऐसे समय में, जब पुरानी उपनिवेशवादी व्यवस्था समाप्त हो रही थी, तब बरतानवी-अमरीकी साम्राज्यवादी पश्चिम एशिया के उस तेल समृद्ध और रणनीतिक महत्व वाली जगह पर स्थित क्षेत्र, जिसे वे “मध्य पूर्व” कहते थे, पर अपना नियंत्रण बनाए रखना व मज़बूत करना चाहते थे। उन्होंने अरब देशों और लोगों को बांटने तथा अपने अधीन रखने की योजना बनाई और लागू की। फ़िलिस्तीन में इज़रायल नामक एक अत्यधिक हथियारों से लैस राज्य का निर्माण करना, इस योजना का एक केंद्रीय हिस्सा था।

चर्चा के दौरान, इस बात पर बार-बार जोर दिया गया कि फ़िलिस्तीनी लोगों का अपनी मातृभूमि के लिए किया जा रहा संघर्ष, साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ उत्पीड़ित लोगों का एक जायज़ संघर्ष है। यह दो धर्मों के बीच का संघर्ष नहीं है। इसीलिए इसे अमरीका, ब्रिटेन और सभी देशों के साम्राज्यवाद-विरोधी, लोकतांत्रिक सोच वाले लोगों का समर्थन प्राप्त है। पिछले दो हफ़्तों में, लाखों लोग इज़रायल द्वारा गाज़ा पर बमबारी और घेराबंदी के विरोध में तथा संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के अनुसार फ़िलिस्तीन के निर्माण की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आए हैं। वे फ़िलिस्तीनी लोगों के जनसंहार को बल देने में अमरीका की भूमिका की निंदा कर रहे हैं। गौरतलब है कि अमरीका और दुनिया के कई देशों के यहूदी लोग इन्हीं मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे हैं। इज़रायल के अदंर भी लोग अपने शासकों द्वारा अपनाए गए रास्ते पर सवाल उठा रहे हैं।

चर्चा में इज़रायल और फ़िलिस्तीनी लोगों के बीच विवाद के “दो-राज्य समाधान” के औचित्य को भी समझाया गया। शुरू में कई अरब राज्यों ने इज़रायल राज्य को मान्यता देने से इनकार कर दिया था, क्योंकि इज़रायल की स्थापना फ़िलिस्तीनी लोगों के अपनी मातृभूमि पर अधिकार को नकार कर की गयी थी। लेकिन जो यहूदी लोग इज़रायल जाकर बसे थे, उन्होंने दुनिया के किसी और भाग में उन पर हो रहे उत्पीड़न से बचने के लिए ऐसा किया था। वे खुद पीड़ित थे, जिनके पास जाने के लिए और कोई जगह नहीं थी।

1967 और 1973 में अरब-इज़रायल युद्धों के बाद, जिनमें इज़रायल ने पूरे फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा कर लिया था, अरब राज्य इस विचार पर एकमत हुए कि फ़िलिस्तीनी लोगों की समस्या का समाधान इज़रायली राज्य के साथ-साथ, फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना करना था। 1974 में, “फ़िलिस्तीन के मुद्दे के शांतिपूर्ण समाधान” पर संयुक्त राष्ट्र संघ के एक प्रस्ताव में दो राज्यों, इज़रायल और फ़िलिस्तीन, को सुरक्षित और मान्यता प्राप्त सीमाओं के अंदर एक साथ रहने का आह्वान किया गया था। उस प्रस्ताव में यह निर्धारित किया गया था कि फ़िलिस्तीनी राज्य की सीमाएं 1967 से पूर्व, यानी इज़रायल द्वारा अतिरिक्त फ़िलिस्तीनी भूमि पर जबरन क़ब्ज़ा करने से पूर्व, की स्थिति पर आधारित होंगी।

1988 में, फ़िलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पी.एल.ओ.) ने इज़रायल के अस्तित्व के अधिकार को मान्यता दी। परन्तु, पिछले 35 वर्षों में, इज़रायल ने फ़िलिस्तीनियों के अपने राज्य को स्थापित करने के अधिकार को मान्यता नहीं दी है। इसके विपरीत, इज़रायल ने 1967 के युद्ध के बाद फ़िलिस्तीनी भूमि पर बस्तियां स्थापित करके, अपने कब्जे वाले क्षेत्रों पर आक्रामक रूप से अपने उपनिवेशवादी नियंत्रण को मज़बूत करने की प्रक्रिया जारी रखी है। इज़रायल ने फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित सभी प्रस्तावों का खुलेआम उल्लंघन किया है।

चर्चा के दौरान यह बार-बार स्पष्ट किया गया कि संयुक्त राज्य अमरीका और उसकी नीति इस मुद्दे के शांतिपूर्ण समाधान में सबसे बड़ी बाधा रही है और अभी भी ऐसा ही है। अमरीका ने लगातार इज़रायली राज्य की आक्रामक और नस्लवादी नीतियों का समर्थन किया है। अमरीका ने इसके शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में प्रस्तुत किए गए हर प्रस्ताव को वीटो कर दिया है।

सभा में कुछ प्रतिभागियों ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि इस क्षेत्र में इस हिंसापूर्ण विवाद को लंबा खींचना न केवल अमरीकी साम्राज्यवाद के भू-राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा करता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के आर्थिक हितों को भी पूरा करता है। यह अमरीकी सैन्य-औद्योगिक परिसर की इजारेदार कंपनियों के हितों की सेवा करता है, जो सामूहिक विनाश के हथियारों के उत्पादन और बिक्री से भारी मुनाफ़ा कमाते हैं।

इस स्थिति में हम क्या कर सकते हैं, इस सवाल का जवाब देते हुए, कामरेड प्रकाश राव ने बताया कि लोगों के सामने सच्चाई को स्पष्ट करना तथा पश्चिमी साम्राज्यवादी मीडिया व हिन्दोस्तानी मीडिया के कई चैनलों द्वारा फैलाए जा रहे झूठे प्रचार का मुकाबला करना महत्वपूर्ण है। फ़िलिस्तीनी लोगों के वीरतापूर्ण मुक्ति संघर्ष को आतंकवाद के रूप में दर्शाया जा रहा है, जबकि इज़रायल राज्य के आतंकवादी कारनामों को ”आत्मरक्षा“ बताया जा रहा है। उन्होंने आतंकवाद से लड़ने के नाम पर इज़रायली राज्य द्वारा किए जा रहे जनसंहार के ख़िलाफ़, फ़िलिस्तीनियों के अपनी मातृभूमि को स्थापित करने के अधिकार के समर्थन में, बड़े पैमाने पर दुनिया भर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों को मज़बूत करने के महत्व पर जोर दिया।

मीटिंग के अंत में प्रतिभागियों ने यह संकल्प प्रकट किया कि हमें सभी प्रगतिशील और लोकतांत्रिक ताक़तों के साथ एकजुट होकर, अमरीका की अगुवाई में इज़रायल और उसके समर्थकों को रोकने के लिए संघर्ष करना होगा।

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