संपादक महोदय,
हिन्दोस्तान की आज़ादी की 76वीं वर्षगांठ के अवसर पर मज़दूर एकता लहर में प्रकाशित लेख – शोषण, उत्पीड़न और भेदभाव से मुक्ति के बिना आज़ादी अधूरी है – को पढ़ा। लेख काफ़ी अच्छा है। यह लेख देश की मौजूदा हालत के बारे में बयान करता है।
लेख में आए, जातिगत आधार पर भेदभाव पर पाठकों का ध्यान केन्द्रित करना चाहता हूं।
आज़ादी के 76 साल के बाद भी देश में जाति के आधार पर भेदभाव और उत्पीड़न जारी है। सभ्य और आधुनिक समाज में यह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। अपने देश में राज्य ने जातिवाद का उन्मूलन नहीं किया बल्कि जातिवाद को समाज में और गहरा कर दिया है। राज्य जातीय पहचान को मजबूत कर रहा है। इसका असर समाज में यह पड़ रहा है कि लोग अब अपने वाहनों के पीछे जातिसूचक शब्द लिखने या जाति के प्रतीक चिन्ह छापने में गर्व महसूस करते हैं। एक ही गांव में मुहल्लों के नाम जातिगत आधार पर रखना आज भी जारी है। कुछ कालोनियों के नाम, मुहल्लों के नाम या चैराहों के नाम ‘जाति’ विशेष के नाम पर रखने की होड़ देखी जा रही है। हालांकि ऐसा आज़ादी से पहले भी था, लेकिन अब इसको और मजबूत किया जा रहा है।
राज्य सबको रोज़गार का समान अधिकार नहीं देता है। समान रूप से शिक्षा पाने का अधिकार नहीं देता है। ऐसे में, जाति विशेष के लोगों को सरकारी नौकरी में या शिक्षा में कुछ सीट या केन्द्र व राज्य सरकार की विभिन्न प्रकार की योजनाओं में जाति विशेष के आधार पर रियायत को पाने के लिए होड़ करवायी जाती है। नौकरी या शिक्षा की ‘सीट’ या ‘रियायत’ पाने के लिए लोग अपनी जाति विशेष की पहचान को आगे रखने को बाध्य होते हैं। ऐसा लगता है कि राज्य की नीतियों का असली इरादा है कि लोग अपनी जाति से चिपके रहें तथा जाति की पहचान बनी रहे।
इसके अलावा, जाति की पहचान को बनाए रखने के लिए, तथाकथित जाति विशेष का कल्याण के लिए रियायती दरों पर सरकारी ज़मीन तथा उस पर निर्माण कराने के लिए राज्य द्वारा वित्त मुहैया कराया जाता है। हिन्दोस्तान में ऐसी कई धर्मशालायें मिल जाएंगी, जो जाति विशेष के नाम पर हैं। इनमें अधिकांश को सरकार की ओर से रियायती ज़मीन दी गई है।
इस तरह से आरक्षण या रियायत देने के पीछे यह धारणा बतायी जाती है कि इससे समाज में वंचित लोगों का कुछ भला किया जा रहा है। सामाजिक न्याय किया जा रहा है। परंतु हक़ीक़त यह है कि हिन्दोस्तानी समाज में जाति पर आधारित भेदभाव और उत्पीड़न को जारी रखा गया है। जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न से सिर्फ़ हम मज़दूरों और किसानों का नुक़सान होता है। हमारी एकता भंग होती है। हम कमज़ोर हो जाते हैं। हमारी इस कमजोरी का पूरा फ़ायदा पूंजीपति वर्ग और उसकी राजनीतिक पार्टियों को होता है, जैसे कि आज़ादी से पहले अंग्रेज हुक्मरानों को होता था।
पूंजीपति वर्ग की राजनीतिक पार्टियां, इस या उस जाति के लोगों को यह कहकर अपने पीछे लामबंध करती हैं, कि अगर हमारी पार्टी को वोट देकर जिताओगे, तो इस जाति को शिक्षा के सीटों या नौकरियों के कुछ अवसरों को पाने के लिये आरक्षित सूची में शामिल कर दिया जायेगा।
अंत में कहना चाहता हूं कि अंग्रेजों ने अपनी हुकूमत को बरकरार रखने के लिये ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को लागू किया था। आज़ादी के बाद से आज तक हिन्दोस्तान का हुक्मरान पूंजीपति वर्ग उसी नीति पर चल रहा है, अपनी हुकूमत को बरकरार रखने के लिये। मज़दूरों, किसानों, महिलाओं और नौजवानों को जातिगत आधार पर आपस में लड़वाना या एक जाति को दूसरी जाति के दुश्मन के रूप में चित्रित करना, यह हमारे हुक्मरान पूंजीपति वर्ग का काम है। हुक्मरान ऐसा करके असली दुश्मन, हुक्मरान पूंजीपति वर्ग की लूट और शोषण पर पर्दा डालता है। हमारे देश के मज़दूरों, किसानों, महिलाओं और नौजवानों को इससे होशियार रहना होगा।
रविन्द्र, दिल्ली