वन, प्राकृतिक पर्यावरण का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। वे लकड़ी सहित, विभिन्न प्रकार के वन उत्पादों के रूप में, देश की कुल संपत्ति के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। वे कार्बन डाइऑक्साइड को सोखकर और ऑक्सीजन की सप्लाई करके, पर्यावरण की सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, जो इंसान को ज़िन्दा रखने के लिए बहुत आवश्यक है। वन, भूस्खलन और बाढ़ को रोकने में मदद करते हैं। वे मिट्टी के कटाव को रोकने और पौधों तथा फ़सलों को उगाने के लिए आवश्यक समृद्ध ऊपरी मिट्टी को तैयार करने में मदद करते हैं। वन, वर्षा के पानी को ले लेने और जलवाष्प के निस्तारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे प्रदूषण और हानिकारक रसायनों को छानते हैं, जिससे मानव उपयोग के लिए उपलब्ध पानी की गुणवत्ता में सुधार होता है।
जंगलों के संरक्षण के लिए किया जा रहा संघर्ष, पूंजीवादी व्यवस्था के विनाशकारी प्रभावों से मानव और प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा के लिए मज़दूर वर्ग और जनता के संघर्ष का हिस्सा है।
जंगल करोड़ों वनवासियों के लिए उनका घर होने के साथ-साथ, उनकी आजीविका के साधन भी हैं। हमारे देश के आदिवासी लोगों ने और अन्य वनवासियों ने सदैव वनों को पतन और विनाश से बचाया है। दूसरी ओर, पूंजीपति वर्ग और उस वर्ग की सेवा करने वाली सरकारें, हालांकि कहने के लिए बहुत कुछ अच्छे-अच्छे शब्द कहने के बावजूद, प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण की कोई परवाह नहीं करते हैं। इस हक़ीक़त की पुष्टि वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 से होती है, जिसके तहत वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में कई संशोधन किये गए हैं।
परामर्श करने का स्वांग रचा गया
वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक, 2023 को 1 अगस्त को राज्यसभा में पारित कर दिया गया। इसे संसद के दोनों सदनों में बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया गया। पहले इस विधेयक को 29 मार्च को लोकसभा में पेश किया गया था और उसी दिन संयुक्त संसदीय समिति (जे.पी.सी.) को भेजा दिया गया था।
विभिन्न प्रस्तावित संशोधनों पर अलग-अलग संगठनों और लोगों से 1,300 से अधिक आपत्तियां प्राप्त हुईं। इनमें से कई आपत्तियां, आदिवासी लोगों और वनवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठनों की ओर से आईं। प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा से संबंधित लोगों और संगठनों की ओर से भी कई आपत्तियां पेश की गयीं। लोगों की किसी भी आपत्ति को स्वीकार नहीं किया गया। जे.पी.सी. ने 20 जुलाई, 2023 को अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी थी। प्रस्तुत विधेयक में जे.पी.सी. द्वारा सरकार ने इतनी आपत्तियों के पेश किये जाने के बाद भी कोई बदलाव करने की ज़रूरत महसूस नहीं की और वही बिल पेश किया, जिसे मार्च में लोकसभा में पेश किया गया था। बताया जाता है कि विपक्षी पार्टियों से जुड़े जे.पी.सी. के छः सदस्यों ने अपनी असहमति जताने वाले नोट पेश किए हैं।
स्पष्ट है कि लोगों और उनके संगठनों के साथ परामर्श की पूरी प्रक्रिया एक दिखावे के अलावा और कुछ नहीं थी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1980 के वन संरक्षण अधिनियम में किए जा रहे संशोधनों को, 43 साल पहले उस क़ानून के लागू होने से पहले और बाद में, वनों से संबंधित विभिन्न प्रकार की घटनाओं और हालतों में हुये बदलावों के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए।
हमारे देश में अधिकांश वन, आदिवासी आबादी वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। यदि ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो आदिवासी लोगों ने ही जंगलों की रक्षा की है, जो उनका घर होने के साथ-साथ उनकी आजीविका का स्रोत भी रहे हैं।
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने 1927 में भारतीय वन अधिनियम (इंडियन फारेस्ट एक्ट) लागू किया था। उस अधिनियम ने हिन्दोस्तान के सभी जंगलों को, उपनिवेशवादी राज्य की संपत्ति के रूप में घोषित कर दिया था। इस तरह, उस क़ानून के तहत, आदिवासियों और अन्य वनवासियों को उनकी अपनी ही भूमि पर बिना किसी अधिकार के रहने वाला माना जाने लगा। भारतीय वन अधिनियम 1927 का उद्देश्य था, लकड़ी और अन्य वन उत्पादों पर लगान सुनिश्चित करना।
स्वतंत्रता के बाद, देश में पूंजीवादी विकास के परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर वनों की कटाई के कारण, हिन्दोस्तान की सरकार ने वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 को पारित किया था। यह अनुमान लगाया गया है कि 1951 से 1975 तक, लगभग 40 लाख हेक्टेयर वन भूमि को विभिन्न गैर जंगल संबंधी इस्तेमाल के लिए स्थानांतरित कर दिया गया था।
वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 (एफ.सी.ए.-1980) ने वन भूमि को गैर-वन भूमि में बदलने पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध लगा दिये। एफ.सी.ए.-1980 की घोषणा के बाद, पिछले 43 वर्षों में आधिकारिक तौर पर, गैर-वन उद्देश्यों के लिए स्थानांतरित की गई वन-भूमि लगभग 10 लाख हेक्टेयर होने का अनुमान है। इससे पता चलता है कि वन क्षेत्र के नष्ट होने की दर में कुछ गिरावट आई है। 2023 के संशोधन के ज़रिये विभिन्न प्रतिबंधों को हटाना इजारेदार पूंजीपतियों के इरादों की सेवा में लाये गए क़ानून की दिशा को दर्शाता है। ताकि खनन, जल विद्युत परियोजनाओं, तेल और गैस की खोज, लकड़ी और साथ ही रियल एस्टेट विकास के लिए वन भूमि के दोहन को बढ़ाया जा सके।
वन संरक्षण अधिनियम-1980 का दृष्टिकोण पारंपरिक वनवासियों के प्रति ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से भिन्न नहीं था। इसमें इस हक़ीक़त पर विचार नहीं किया गया कि पारंपरिक वनवासियों का जंगल पर जन्मसिद्ध अधिकार है। इस क़ानून ने भी ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की तरह ही वनों को हिन्दोस्तानी राज्य की संपत्ति माना था।
हमारे देश के आदिवासी और अन्य वनवासी लोग अपनी आजीविका और अधिकारों के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें वन उपज पर उनके मूलभूत अधिकार भी शामिल हैं। इस संघर्ष को हमारे देश की प्रगतिशील ताक़तों का समर्थन भी मिला है। इस संघर्ष का एक नतीजा था – दिसंबर 2006 के वन अधिकार अधिनियम का अधिनियमन।
वन अधिकार अधिनियम 2006, ने औपचारिक रूप से पारंपरिक वनवासियों को उनके जंगल को, उनका घर और आजीविका का स्रोत होने के दावे को मान्यता दी। वन अधिकार अधिनियम के अनुसार, गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि के किसी भी परिवर्तन के लिए, स्थानीय-समुदाय की मंजूरी होनी चाहिए।
2023 में प्रमुख संशोधन
वन संरक्षण अधिनियम का नाम बदलकर वन (संरक्षण एवं संवर्धन) अधिनियम कर दिया गया है, जो सिर्फ अंग्रेजी नाम का हिन्दी में अनुवाद है।
हालांकि हक़ीक़त में तो इन संशोधनों के ज़रिये वनों की सुरक्षा और विकास के बजाय, इसका उल्टा होना सुनिश्चित किया जा रहा है। जैसा कि इसमें साफ़ दिखता है कि इन संशोधनों के द्वारा उन क्षेत्रों को, जहां पर एफ.सी.ए.-1980 लागू है, उसे घटाकर बहुत कम कर दिया गया है।
यह जानना भी ज़रूरी है कि 12 दिसंबर, 1996 को सुप्रीम कोर्ट ने एक फ़ैसला सुनाया था, जिसने 1980 के क़ानून के दायरे को काफी बढ़ा दिया था। उस फ़ैसले के अनुसार, सभी जंगल चाहे निजी लोगों की मलिकी में हों या सरकार की मालिकी में, जिन्हें किसी भी सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में मान्यता प्राप्त थी, वे सब 1980 के अधिनियम के तहत आएंगे – वहां पर यह क़ानून लागू होगा। सुप्रीम कोर्ट ने आगे फ़ैसला सुनाया जिसके तहत, 1980 का अधिनियम लागू होने के बाद और 12 दिसंबर, 1996 से पहले जो भी वन भूमि का गैर-वन भूमी के रूप में उपयोग के लिये बदली गयी है, उसको अवैध माना जाएगा। जब तक कि इसे केंद्र सरकार द्वारा अधिकृत नहीं किया गया हो। राज्य सरकारों या राज्य के अधीन अन्य निकायों द्वारा गैर-वन उपयोग के आदेश क़ानूनी नहीं माने जाएंगे।
अब, 2023 के संशोधनों के बाद, एफ.सी.ए.-1980 के अधिनियम के लागू होने के बाद और 12 दिसंबर, 1996 से पहले किसी भी सरकारी विभाग द्वारा वन उपयोग से गैर-वन उपयोग में परिवर्तित भूमि पर, एफ.सी.ए. लागू नहीं होगा।
इस तरह एफ.सी.ए.-1980 में किया गया 2023 का संशोधन, अब राज्य सरकारों या राज्य सरकारों के अधीन अन्य निकायों द्वारा 12 दिसंबर, 1996 से पहले किए गए वन भूमि के इन रूपांतरणों को वैध बनाता है। ऐसे कई रूपांतरण राज्य सरकारों द्वारा किए गए हैं, जिन्होंने पनबिजली परियोजनाओं, खनन, पेड़ों को काटना, आदि के लिए जंगलों के विशाल भूभाग को पूंजीपतियों को सौंप दिया है।
2023 का अधिनियम, निजी स्वामित्व वाले वनों और उन सभी अन्य वनों को भी, यह संशोधन 1980 के अधिनियम के संचालन क्षेत्र से हटा देता है, जो भारतीय वन अधिनियम 1927 या एफ.सी.ए.-1980 के तहत अधिसूचित नहीं किये गए हैं।
2023 का एक अन्य प्रमुख संशोधन यह सुनिश्चित करता है कि हिन्दोस्तान की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से 100 किलोमीटर की दूरी के भीतर आने वाली वन भूमि, एफ.सी.ए. के दायरे से बाहर है। ऐसा रणनीतिक (यानी रक्षा संबंधी) उद्देश्यों के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों में सड़क और रेल नेटवर्क विकसित करने की आवश्यकता का हवाला देते हुए किया गया है। यह संशोधन हमारे देश के घने जंगलों का एक बड़े हिस्से को वन अधिकार के दायरे से बाहर कर देगा, जो कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, मणिपुर और मिजोरम के सीमावर्ती राज्यों में हैं। इसके अलावा, इसका असर पश्चिम बंगाल के सुंदरबन पर भी पड़ेगा, जिसकी सीमा बांग्लादेश से जुड़ी हुई है।
2023 के अन्य संशोधन सरकार को जंगलों से गुजरने वाले राजमार्गों और रेलवे के किनारे की भूमि को अधिनियम के दायरे से हटाने की अनुमति देते हैं। जंगल के नीचे खनिज, तेल और गैस की मौजूदगी की खोज करने की अनुमति होगी। इको-टूरिज्म के नाम पर जंगलों को व्यावसायिक गतिविधियों के लिए खोल दिया जाएगा। सुरक्षा बल ”वामपंथी उग्रवाद“ से निपटने के नाम पर, जंगलों के क्षेत्रों को साफ़ कर सकते हैं और वहां पर अपने शिविर स्थापित कर सकते हैं। जिसका इस्तेमाल, वनवासियों की आजीविका पर हमलों के ख़िलाफ़ और उनके पारंपरिक अधिकारों के लिए संघर्ष को दबाने के लिए किया जाएगा।
वन संरक्षण अधिनियम-1980 में 2023 के संशोधन, वनवासियों के जंगलों पर उनके अधिकारों की पूरी तरह से अनदेखी करता है। इसने केंद्र सरकार को रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, पर्यावरण पर्यटन, खनिज संसाधनों की खोज आदि के नाम पर उनकी ज़मीनों पर कब़्जा करने की ताक़त दे दी है।
पहाड़ी राज्यों उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में, प्राकृतिक पर्यावरण के विनाश के ख़िलाफ़, लंबे समय से लोगों के आंदोलन चल रहे हैं। लोग बड़े पैमाने पर जल विद्युत परियोजनाओं और राजमार्ग परियोजनाओं के साथ-साथ लकड़ी के लिए वनों की कटाई का भी विरोध कर रहे हैं। इन परियोजनाओं ने भूस्खलन और भारी बाढ़ सहित कई आपदाओं को लाने और लोगों पर उसका कुप्रभाव डालने में सीधे तौर पर योगदान दिया है। इस वर्ष आई बाढ़ ने इन राज्यों के साथ-साथ पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश जैसे निचले राज्यों को भी तबाह कर दिया है, जो पूंजीपतियों द्वारा वनों और प्राकृतिक पर्यावरण के विनाश का प्रत्यक्ष परिणाम है।
संक्षेप में, एफ.सी.ए. में संशोधन वनवासियों और लोगों की आजीविका की रक्षा और प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण के संघर्ष की पूरी तरह से उपेक्षा है। ये संशोधन पूंजीपतियों द्वारा जंगलों और जंगलों के नीचे की भूमि के तीव्र शोषण की सेवा में किये गए हैं।
हिन्दोस्तान के वन
(नोट : उत्तर पूर्व में ऐसे जिले शामिल हैं जो पहाड़ी जिले के साथ-साथ आदिवासी जिले भी हैं)। |
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