हिन्दोस्तान की आज़ादी की 76वीं वर्षगांठ पर :
शोषण, उत्पीड़न और भेदभाव से मुक्ति के बिना आज़ादी अधूरी है

1947 में जब ब्रिटिश उपनिवेशवादी हुकूमत समाप्त हुयी थी, तो हिन्दोस्तान के लोगों को जातिवादी भेदभाव, महिलाओं के उत्पीड़न और सांप्रदायिक उत्पीड़न सहित, सभी प्रकार के शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति मिलने की उम्मीद थी। नए हुक्मरानों ने हमारे देश के लंबे समय से पीड़ित लोगों के आंसू पोंछने का वादा किया था। लोगों को उम्मीद थी कि आज़ाद हिन्दोस्तान का राज्य समाज के सभी सदस्यों के साथ इंसान जैसे बर्ताव करेगा और सबके साथ समान अधिकारों वाले नागरिकों के रूप में व्यवहार करेगा। लेकिन, आज़ादी के 76 साल बाद भी ये उम्मीदें और अपेक्षाएं अधूरी हैं।

मणिपुर और हरियाणा की हालिया घटनाएं देश की भयावह स्थिति का प्रत्यक्ष सबूत हैं। लोग अपनी धार्मिक, जातिवादी, नस्लवादी या आदिवासी पहचान के आधार पर हिंसक हमलों का निशाना बनाए जाते रहते हैं। लोगों को मार दिया जाता है, बेघर कर दिया जाता है, महिलाओं का बलात्कार किया जाता है या उन्हें निर्वस्त्र घुमाया जाता है, और इन सब हमलों के होते हुए, सुरक्षा बलों से लोगों को कोई सुरक्षा नहीं मिलती है।

उपनिवेशवादी हुकूमत से मुक्ति के साथ-साथ, आर्थिक शोषण, ग़रीबी और भूख से मुक्ति नहीं मिली है। पूंजीवाद के विकास की वजह से एक ध्रुव पर अत्यधिक अमीर अरबपतियों का विकास हुआ है जबकि दूसरे ध्रुव पर व्यापक ग़रीबी और बेरोज़गारी फैली हुयी है।

शहीद भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी शहीदों ने कहा था कि :

“हमारा संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक मुट्ठीभर लोग, चाहे वे विदेशी हों या देशी, या दोनों एक-दूसरे के सहयोग से, हमारे लोगों के श्रम और संसाधनों का शोषण करते रहेंगे।“

कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि सरमायदार वर्ग की अगुवाई करने वाले कुछ मुट्ठीभर इजारेदार पूंजीपति हमारे लोगों के श्रम का शोषण करके तथा प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर, बहुत बड़ी मात्रा में दौलत संचित कर रहे हैं।

1857 के ग़दर के वीरों ने दावा किया था कि हम लोगों को हिन्दोस्तान पर राज करने का अधिकार है। उन्होंने नारा बुलंद किया था कि “हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा!“ विदेशी हुकूमत की समाप्ति के 76 साल बाद, आज स्थिति यह है कि हमारे जीवन को प्रभावित करने वाली नीतियों और क़ानूनों को निर्धारित करने में हमारी कोई भूमिका नहीं है।

एक के बाद एक, सभी सरकारों ने मेहनतकश जनता की क़ीमत पर, सरमायदारों के संकीर्ण हितों की सेवा की है। अति अमीर पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफ़ों की लालच को पूरा करने के लिए सभी क़ानूनों और नीतियों को बनाया जाता रहा है। जो लोग सरकार की आलोचना करते हैं, उन्हें किसी न किसी कठोर क़ानून के तहत जेल में डाल दिया जाता है।

संसद में होने वाली भद्दी बहसें साफ़-साफ़ दर्शाती हैं कि तथाकथित जन प्रतिनिधियों को लोगों की भलाई की कोई परवाह नहीं है। वे सिर्फ अपने राजनीतिक प्रतिस्पर्धियों का अपमान करने और अपनी चुनावी संभावनाओं को बेहतर बनाने के लिये चिंतित हैं।

समस्या सिर्फ एक या कुछेक राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ नहीं है। समस्या पूरी राजनीतिक व्यवस्था और उसके द्वारा संचालित आर्थिक व्यवस्था में है।

समस्या की जड़ इस हक़ीक़त में निहित है कि 1947 में राजनीतिक सत्ता लोगों के हाथों में नहीं आई थी। ब्रिटिश हुक्मरानों ने सांप्रदायिक आधार पर देश के बंटवारे को आयोजित  किया था और सांप्रदायिक जनसंहार के बीच में, अपने भरोसेमंद सहयोगियों के हाथों में सत्ता दे दी थी।

सत्ता बड़े पूंजीपतियों और बड़े जमींदारों के राजनीतिक प्रतिनिधियों के हाथों में आ गई, जिन्होंने लोगों के सांप्रदायिक और जातिवादी बंटवारे के आधार पर हुकूमत चलाने के उपनिवेशवादी तौर-तरीक़ों को बरकरार रखने का फ़ैसला किया। राज्य की सारी संस्थाओं और संविधान सहित सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था पूंजीवादी शोषण और हिन्दोस्तानी सरमायादारों की हुकूमत को बनाए रखने का काम करती है।

सार्वभौमिक प्रौढ़ मताधिकार की लोकप्रिय मांग को स्वीकार करते हुए, संविधान सभा ने उस राजनीतिक व्यवस्था को क़ायम रखने का फ़ैसला किया था, जिसे ब्रिटिश हुक्मरानों ने हिन्दोस्तानी लोगों को गुलाम बनाने के लिए स्थापित किया था। राजनीतिक प्रक्रिया ने लोगों को चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन करने, निर्वाचित प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराने या उन्हें किसी भी समय वापस बुलाने के अधिकार से वंचित करना जारी रखा है।

ब्रिटिश राज की केंद्रीकृत अफ़सरशाही और सशस्त्र बलों, क़ानूनों, अदालतों और जेलों का प्रयोग बीते 76 वर्षों से, हिन्दोस्तानी सरमायदारों की हुकूमत को बरकरार रखने के लिए किया जा रहा है। ‘फूट डालो और राज करो’ – यह आज़ाद हिन्दोस्तान के हुक्मरानों का मार्गदर्शक सिद्धांत बना हुआ है। राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा हुकूमत का एक पसंदीदा तरीक़ा बना हुआ है।

बीते 76 वर्षों में, पूंजी के बढ़ते संकेन्द्रण के साथ-साथ, राजनीतिक शक्ति का भी संकेन्द्रण बढ़ा है। उपनिवेशवादी काल से विरासत में मिले राज्य का प्रयोग करते हुए, बड़े पूंजीपतियों ने पूंजीवाद विकसित किया है, अपने हाथों में बेशुमार धन केंद्रित किया है और अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को हासिल करने की कोशिश में लगे हुए इजारेदार पूंजीपति बन गए हैं। उन्होंने अब तक उदारीकरण और निजीकरण के साम्राज्यवादी नुस्खों को पूरी तरह अपना लिया है।

हुक्मरान सरमायदार अपने बेहद संकीर्ण हितों और साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, देश को बहुत ही ख़तरनाक रास्ते पर ले जा रहे हैं। मज़दूरों का शोषण और किसानों की लूट असहनीय स्तर पर पहुंच रही है। विरोध करने वालों को क्रूर दमन का सामना करना पड़ता है।

हिन्दोस्तान के लोगों को पूंजीवादी शोषण और साम्राज्यवादी लूट के साथ-साथ, जातिवादी भेदभाव, महिलाओं के उत्पीड़न और राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा से मुक्ति पाने की ज़रूरत है। मज़दूर वर्ग को किसानों और अन्य सभी मेहनतकशों व उत्पीड़ित लोगों के साथ मिलकर, मुक्ति के लिए संघर्ष की अगुवाई करनी होगी।

आज हिन्दोस्तान का नवनिर्माण वक्त की मांग है। उपनिवेशवादी विरासत से 1947 में जो नाता नहीं तोड़ा गया था, आज उस नाते को तोड़ने की ज़रूरत है। हमें एक ऐसी नई राजनीतिक व्यवस्था की ज़रूरत है, जिसमें संप्रभुता लोगों में निहित हो और संविधान लोकतांत्रिक अधिकारों व मानवाधिकारों की अलंघनीयता की गारंटी देता हो। राजनीतिक प्रक्रिया को बदलना होगा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि मेहनतकश जनता फ़ैसले लेने की शक्ति का इस्तेमाल करने में सक्षम हो।

राजनीतिक सत्ता को अपने हाथ में लेकर, मज़दूर वर्ग और उसके मित्र अर्थव्यवस्था को नई दिशा देंगे। सामाजिक उत्पादन की दिशा पूंजीपतियों की लालच को पूरा करने की नहीं, बल्कि संपूर्ण जनता की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में बदल दी जायेगी। ऐसा होने पर ही बहुसंख्यक हिन्दोस्तानी लोग दिल से देश की आज़ादी का जश्न मना सकेंगे।

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