केंद्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) ने 2 जून को ओडिशा के बालासोर में तीन रेलगाड़ियों की टक्कर के मामले में दो वरिष्ठ सेक्शन अभियंताओं (सिग्नल) और एक तकनीशियन को 7 जुलाई को गिरफ़्तार किया। उन पर गैर-इरादतन हत्या और सबूत मिटाने का आरोप लगाया गया है।
दुर्घटना के लिए दोषी ठहराए गए तीनों रेल कर्मचारियों की गिरफ़्तारी को कई तथ्यों की रोशनी में देखा जाना चाहिए, जो बताते हैं कि सुरक्षा मानकों की उपेक्षा, गहरी जड़ वाली व्यवस्थागत समस्या है।
रेलवे के अधिकारियों ने पटरियों के रखरखाव की उपेक्षा की है तथा पटरियों के निरीक्षण के प्रोटोकॉल का उल्लंघन किया है। ट्रैकमैन को अधिकतम जोखिम वाली परिस्थितियों में अपने कार्यों को पूरा करने के लिए मजबूर किया जाता है। रेल चालकों से ज्यादा से ज्यादा काम लिया जाता है। सिग्नलिंग सिस्टम में आई दिक्कतों को दूर नहीं किया जाता है। सिग्नल और पटरियों के निरीक्षण जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों सहित विभिन्न विभागों में प्रशिक्षित मज़दूरों की जगह पर मज़दूरों को अनुबंध पर रखा जाता है। ज़रूरी पुर्जां की आपूर्ति के लिए निजी कंपनियों को आउटसोर्स किया जाता है। इन सबके परिणामस्वरूप भारतीय रेल में दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं।
भारतीय रेल में लगभग 3,12,000 पद खाली पड़े हैं। वास्तविक कर्मचारियों की कमी और भी ज्यादा है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में बढ़ते यातायात के बावजूद, अधिकारियों ने बहुत बड़ी संख्या में पदों को सरेंडर कर दिया है।
पटरियों का रखरखाव करने वालों के काम की स्थितियां इतनी असुरक्षित हैं कि उनमें से हर दिन लगभग 2-3 लोग काम करते समय मर जाते हैं! वे रेलगाड़ी के नीचे आकर कुचले जाते हैं क्योंकि आने वाली रलेगाड़ियों के बारे में चेतावनी देने वाला कोई भी सुरक्षा उपकरण उनके पास नहीं होता है।
रेल चालकों को आधिकारिक तौर पर प्रतिदिन 9 घंटे काम करना होता है। हालांकि, बड़ी संख्या में खाली पड़े पदों के कारण, उन्हें दिन में 14-16 घंटे भी बिना आराम किये काम करना पड़ता है। रेल चालकों को लगातार रात की ड्यूटी करनी पड़ती है। अक्सर उन्हें छुट्टी नहीं मिलती और यहां तक कि पर्याप्त साप्ताहिक आराम भी नहीं दिया जाता।
1980 के दशक में एक नए रेल चालक को डीजल इंजन पर 10 महीने तक प्रशिक्षित किया जाता था। अब अलग-अलग इंजनों की संख्या बहुत अधिक है और नए व्यक्ति को केवल तीन महीने में डीजल और इलेक्ट्रिक, दोनों इंजनों को चलाने के लिए प्रशिक्षित कर दिया जाता है!
अधिकारियों का ध्यान रेलगाड़ियों की गति बढ़ाने पर रहा है न कि सुरक्षा बढ़ाने पर।
सभी श्रेणियों के रेलकर्मी रेलवे अधिकारियों द्वारा सुरक्षा की अनदेखी पर अपनी चिंता जताते रहे हैं। उन्होंने खाली पदों को न भरने, रेल चालकों से अधिक काम लेने और प्रशिक्षित पूर्णकालिक कर्मचारियों के स्थान पर अनुबंध पर रखे गये मज़दूरों के उपयोग के ख़िलाफ़ बार-बार आवाज़ उठाई है।
रेलवे सुरक्षा पर काकोडकर कमेटी ने 2012 में ही बताया था कि रेलवे सुरक्षा में सुधार के लिए अगले कुछ वर्षों में कम से कम 1 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की ज़रूरत है। उस कमेटी की सिफ़ारिश को पूरी तरह से नज़रंदाज कर दिया गया है।
भारतीय रेल के दिशा-निर्देशों के अनुसार, देश में 1,14,907 किलोमीटर की कुल लंबाई वाली पटरियों में से 4,500 किलोमीटर का हर साल नवीनीकरण किया जाना चाहिए। पिछले कई दशकों से, हर साल पटरियों का वास्तविक नवीनीकरण अधिकतम 2,000 किमी के आसपास होता है। इस प्रकार, असुरक्षित पटरियों की लंबाई हर साल बढ़ रही है और वर्तमान में कुल मिलाकर यह लंबाई 15,000 किलोमीटर है।
नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सी.ए.जी.) की 2020-21 की ऑडिट रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि पटरियों का ख़राब रखरखाव गाड़ियों के पटरी से उतरने का प्रमुख कारण था, जो रेल दुर्घटनाओं के सबसे आम रूपों में से एक था। रेलवे की पटरियों के निरीक्षण में 30 से 100 प्रतिशत तक की कमी थी। पटरियों के नवीकरण के लिए धन का आवंटन 2018-19 में 9607.65 करोड़ रुपये से घटकर 2019-20 में 7417 करोड़ रुपये हो गया। 2020-2021 के लिए आवंटित धनराशि का भी पूरा उपयोग नहीं किया गया है।
मार्च 2023 को समाप्त हुये वित्त वर्ष में सिग्नल की ख़राबी की 50,000 से अधिक सूचनायें मिली हैं। सिग्नल की ख़राबी के परिणामस्वरूप रेलगाड़ियों को गलत पटरी पर मोड़ने के कई मामले सामने आए हैं। ज्यादातर मामलों में, इसका संबंध सिग्नल प्रणाली की ख़राबी से है और इस मुद्दे को अधिकारियों के समक्ष उठाया गया है। इसी अवधि में ओवरहेड उपकरणों की विफलताएं 590 से बढ़कर 636 हो गई हैं और ट्रेन पार्टिंग की विफलताएं 144 से बढ़कर 253 हो गई हैं। ट्रेन पार्टिंग एक ट्रेन को दो या दो से अधिक भागों में विभाजित करना है, जब ट्रेन चल रही हो या बस चलने वाली हो। इन गंभीर समस्याओं को दूर करने के लिए रेलवे अधिकारियों द्वारा कोई क़दम नहीं उठाया गया है।
पिछले कुछ वर्षों में, रेलवे की विभिन्न कार्यशालाएं बंद कर दी गई हैं तथा कई पुर्जां और उप-असेंबली की आपूर्ति के लिये निजी कंपनियां आउटसोर्स कर दी गई हैं। इसकी वजह से आपूर्ति किए गए पुर्जों की गुणवत्ता में गिरावट आई है।
कुशल तकनीकी कार्यों के लिए भी संविदा मज़दूरों को काम पर रखा जाता है। वे अप्रशिक्षित होते हैं और उन्हें रखरखाव के लिए आवश्यक प्रासंगिक मापदंडों के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है।
आउटसोर्सिंग और ठेकेदारी प्रथा दोनों ने सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया है।
एक के बाद एक आने वाली सरकारों ने व्यवस्थागत विफलताओं की रिपोर्टों और सुधारात्मक उपायों के लिये की गई सिफ़ारिशों को नजरंदाज़ किया है। इन पर तुरंत ध्यान देने के बजाय दुर्घटनाओं को होने दिया है, जिनमें सैकड़ों लोगों की जानें चली गईं हैं। ऐसी दुर्घटनाएं हो जाने के बाद उन मज़दूरों को दोषी ठहराया जाता है, जो सबसे असुरक्षित परिस्थितियों में काम कर रहे हैं।
हाल ही में हुई भयानक दुर्घटना के लिए कुछ कर्मचारियों को दोषी ठहराना और गिरफ़्तार करना, देश में रेल यात्रा की सुरक्षा के गिरते स्तर के वास्तविक कारण पर पर्दा डालने की कोशिश के अलावा और कुछ नहीं है।
भारतीय रेल का बिगड़ता सुरक्षा रिकॉर्ड आउटसोर्सिंग, निजीकरण और लागत में कटौती के उपायों का परिणाम है, जिसका उद्देश्य पूंजीवादी मुनाफ़े को अधिकतम करना है।
समस्याओं के समाधान के लिए निजीकरण कार्यक्रम को तत्काल रोकने की आवश्यकता है। इसके लिए कामकाजी आबादी के लिए सुरक्षित और सस्ती यात्रा और रेल मज़दूरों के लिए काम की सुरक्षित परिस्थितियों को सुनिश्चित करने की दिशा में भारतीय रेल को पुनः स्थापित करने की ज़रूरत है।