समान नागरिक संहिता पर बहस :
प्रगतिशील सुधार की आड़ में लोगों को बांटने का अभियान

14 जून को, हिन्दोस्तान के 22वें विधि आयोग ने एक सार्वजनिक नोटिस जारी करके, समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड – यू.सी.सी.) के बारे में राय और विचार मांगे। आयोग ने ऐसे विचार प्रस्तुत करने के लिए 30 दिनों की समय सीमा जारी की। नागरिक संहिता विवाह, तलाक, भरण-पोषण, विरासत व बच्चा गोद लेने जैसे सामाजिक अथवा पारिवारिक मामलों को नियंत्रित करने वाले क़ानूनों को परिभाषित करती है।

कुछ दिनों बाद, मध्य प्रदेश में बूथ-स्तरीय भाजपा कार्यकर्ताओं से बात करते हुए, प्रधानमंत्री मोदी ने यू.सी.सी. का आह्वान किया। विभिन्न धार्मिक समुदायों के अलग-अलग क़ानूनों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने पूछा कि देश “दोहरी व्यवस्था“ के साथ कैसे चल सकता है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री हिंदू और मुस्लिम समुदायों के अलग-अलग पारिवारिक क़ानूनों की तरफ़ इशारा कर रहे थे।

एक समान क़ानून की ज़रूरत पर बहस शुरू कर दी गई है, बिना यह बताए कि वह क़ानून क्या होना चाहिए। प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का कोई मसौदा प्रस्तुत नहीं किया गया है, जिस पर विचार-विमर्श किया जा सके।

वर्तमान में, हमारे देश के लोगों के सामाजिक संबंध विभिन्न धर्मों और पारंपरिक रीति-रिवाजों पर आधारित कई अलग-अलग, सामाजिक मामलों से संबंधित क़ानूनों के तहत, नियंत्रित होते हैं। जबकि प्रधानमंत्री ने “दोहरी व्यवस्था“ की बात की, तो ज़मीनी तौर पर सामाजिक मामलों से संबंधित क़ानूनों की दो से अधिक, कई अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, कई आदिवासी लोगों आदि पर अलग-अलग क़ानून लागू होते हैं। कुछ आदिवासी लोग संपत्ति विरासत के लिए मातृसत्तात्मक व्यवस्था का पालन करते हैं। कुछ सामान्य क़ानून भी हैं, जैसे कि विशेष विवाह अधिनियम, 1954, जो कोई धार्मिक समारोह न चाहने वालों को विवाह का क़ानूनी तरीक़ा दिलाता है।

धर्म पर आधारित सभी सामाजिक मामलों से संबंधित क़ानून पुरुष-प्रधानता के पुराने विचारों पर आधारित हैं। ये महिलाओं के खि़लाफ़ भेदभाव करते हैं। ये क़ानून पुरुषों और महिलाओं को तलाक, बच्चा गोद लेने, भरण-पोषण, संतान की अभिभावकता और संपत्ति की विरासत के मामलों में समान अधिकारों के साथ, समान भागीदार के रूप में मान्यता नहीं देते हैं। कुछ सामान्य क़ानूनों में भी समस्याएं हैं। मिसाल के तौर पर, विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत विवाह की सूचना देने के बाद 30 दिन की बाध्यकारी नोटिस अवधि, दम्पति के परिवार के सदस्यों को हस्तक्षेप करने और विवाह को रोकने की संभावना देती है।

सभी धार्मिक विचारों और देश के सभी इलाकों की महिलाएं अपने खि़लाफ़ हो रहे भेदभाव को समाप्त करने के लिए सामाजिक मामलों से संबंधित क़ानूनों में सुधार के लिए लंबा संघर्ष करती रही हैं। महिलाएं यह मांग करती रही हैं कि क़ानून को उन सारे अधिकारों को मान्यता देनी चाहिए व उनकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए, जो मनुष्य होने और विवाह व परिवार में बराबर के भागीदार होने के नाते, महिलाओं को मिलने चाहियें। इस संघर्ष का सभी प्रगतिशील ताक़तों ने समर्थन किया है। इस संघर्ष ने सभी मौजूदा सामाजिक मामलों से संबंधित क़ानूनों – धर्म पर आधारित क़ानूनों तथा सामान्य क़ानूनों – में तरह-तरह के सुधारों की ज़रूरत पर रोशनी डाली है।

जिन हालतों में यू.सी.सी. पर मौजूदा बहस शुरू की गई है, उससे पता चलता है कि इसका मक़सद महिलाओं के खि़लाफ़ भेदभाव की समस्या को दूर करना नहीं है।

सबसे पहले, केंद्र सरकार 21वें विधि आयोग की सिफ़ारिशों का कोई ज़िक्र नहीं कर रही है। 2018 में 21वें विधि आयोग द्वारा प्रस्तुत एक पेपर में कहा गया है कि, “इस आयोग का मानना है कि ग़ैर-बराबरी की जड़ भेदभाव है, न कि भिन्नता। इस ग़ैर-बराबरी को दूर करने के लिए, आयोग ने मौजूदा पारिवारिक क़ानूनों में कई तरह के संशोधनों का सुझाव दिया है… इसलिए इस आयोग ने समान नागरिक संहिता पेश करने के बजाय, ऐसे क़ानूनों पर विचार किया है जो भेदभावपूर्ण हैं। समान नागरिक संहिता इस समय नहीं चाहिए, न ही इसकी ज़रूरत है।” केंद्र सरकार ने इसके बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है कि उसने 21वें विधि आयोग के इन निष्कर्षों की उपेक्षा क्यों की है।

दूसरे, यू.सी.सी. के पक्ष में मौजूदा आह्वान और अभियान 21वें विधि आयोग की सिफ़ारिश के बिल्कुल विपरीत दिशा में एक क़दम है। भाजपा नेता यू.सी.सी. की वकालत करते हुए महिलाओं के खि़लाफ़ भेदभाव के बजाय, भिन्नता को मुख्य मुद्दा बना रहे हैं।

तीसरा, 22वां विधि आयोग, जिसे 21 फरवरी, 2020 को अधिसूचित किया गया था, अपने तीन साल के कार्यकाल के दौरान अधिकांश समय बिना किसी सदस्य के रहा। इसके अध्यक्ष ने 9 नवंबर, 2022 को ही पदभार ग्रहण किया था और इसका कार्यकाल अगस्त 2024 तक बढ़ा दिया गया है। ऐसे लगता है कि इस निकाय द्वारा यू.सी.सी. पर शुरू की गयी बहस का उद्देश्य 2024 के लोकसभा चुनावों को प्रभावित करना है।

चौथा, जब पूर्वोत्तर राज्यों के जनजातीय लोगों के कई संगठनों ने यू.सी.सी. पर आपत्तियां उठाई थीं, तो संबंधित केंद्रीय मंत्री ने यह जवाब दिया कि इन लोगों को यू.सी.सी. से बाहर रखा जा सकता है।

इन सारे तथ्यों को मिलाकर देखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि यू.सी.सी. को लेकर वर्तमान अभियान का निशाना ख़ास तौर पर मुस्लिम सामाजिक मामलों से संबंधित क़ानून हैं, जिन्हें पिछड़े और प्रतिक्रियावादी रंगों में चित्रित किया जा रहा है।

हमारे देश में धर्म पर आधारित भेदभावपूर्ण सामाजिक मामलों से संबंधित क़ानूनों के खि़लाफ़ संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है। ब्रिटिश हुक्मरानों ने ही अलग-अलग धर्म-आधारित पारिवारिक/सामाजिक क़ानूनों को लिखित रूप में संहिताबद्ध किया था। उन्होंने हिन्दोस्तानियों को सांप्रदायिक आधार पर बांटने तथा पिछड़े रीति-रिवाजों के बोझ तले दबाकर रखने के लिए ऐसा किया था।

सभी महिलाओं के समान अधिकारों की मान्यता के लिए, महिलाओं और सभी प्रगतिशील ताक़तों ने अनवरत संघर्ष किया है। इस संघर्ष की वजह से, संविधान सभा को 1950 के संविधान में “राज्य के नीति-निदेशक तत्वों“ में से एक के रूप में, समान नागरिक संहिता को शामिल करना पड़ा था। परन्तु, यह क़ागज़ पर ही रह गया है, क्योंकि हुक्मरान सरमायदार वर्ग के लिए मेहनतकश जनता को बांटकर रखना और उपनिवेशवादी तौर-तरीक़ों से हुकूमत को जारी रखना ज्यादा फ़ायदेमंद रहा है। हुक्मरानों ने मेहनतकश जनता के शोषण और उत्पीड़न को तेज़़ करने के लिए, महिलाओं की दबी-कुचली स्थिति के साथ-साथ, समाज के हर तरह के पिछड़ेपन का इस्तेमाल किया है। हुक्मरान वर्ग ने तरह-तरह के धार्मिक अधिकारियों को सामाजिक मामलों से संबंधित क़ानूनों के संरक्षक के रूप में बढ़ावा दिया है।

सरमायदारों की राजनीतिक पार्टियां वास्तव में महिलाओं के खि़लाफ़ भेदभाव को खत्म करने के लिए सामाजिक मामलों से संबंधित क़ानूनों में सुधार करने में रुचि नहीं रखती हैं। जो सरमायदारी पार्टियां समान नागरिक संहिता की ज़रूरत की बात करती हैं, वे सिर्फ हिंदुओं में मुस्लिम-विरोधी भावनायें भड़काने के लिए ऐसा करती हैं। हकीक़त यह है कि मुस्लिम और हिंदू, दोनों महिलाएं भेदभाव और उत्पीड़न की शिकार हैं, साथ ही अन्य धार्मिक समुदायों की महिलाएं भी।

महिलाओं के खि़लाफ़ भेदभाव करने वाले क़ानूनों में सुधार लाने का संघर्ष समाज में सभी प्रकार के शोषण और दमन को समाप्त करने के संघर्ष का हिस्सा है। इस संघर्ष को एक ऐसे राज्य की स्थापना करने के नज़रिए से आगे बढ़ाने की ज़़रूरत है, जो सभी मनुष्यों के अधिकारों को मान्यता देता है और उनका आदर करता है; एक ऐसा राज्य जो महिलाओं के खि़लाफ़ भेदभाव करने वाले सभी विचारों और रीति-रिवाजों को मिटाने के लिए लगातार संघर्ष करता है।

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