बिजली आज के जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। यह राज्य का कर्तव्य है कि वह अन्य आवश्यकताओं के साथ-साथ, इस मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति पर्याप्त मात्रा में सभी लोगों के लिए ऐसी क़ीमत पर करवाये, जो लोगों की ख़रीद क्षमता के भीतर हो। राज्य ने न केवल इस ज़िम्मेदारी को निभाने से इंकार किया है बल्कि बिजली को इजारेदार पूंजीपतियों की मुनाफ़ाखोरी की वस्तु में बदल दिया है।
बिजली मूल्य निर्धारण की नीति को निजी बिजली उत्पादक इजारेदार पूंजीपति, अपने हित में निर्देशित कर रहे हैं। आज टाटा, अदानी और अन्य इजारेदारों के बिजली संयंत्र आयात किये जाने वाले कोयले के इस्तेमाल से चलते हैं। भारतीय ऊर्जा विनिमय के माध्यम से उनके द्वारा बेची जाने वाली बिजली की क़ीमत, 20 रुपये प्रति यूनिट तक चार्ज करने की उन्हें अनुमति है!
एक वितरण कंपनी किसी उत्पादक कंपनी से जिस क़ीमत पर बिजली ख़रीदती है, वह लोगों द्वारा भुगतान की गई दर का 70-80 प्रतिशत होती है। इस दर का बाक़ी हिस्सा ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन से जुड़े ख़र्चे होते हैं। इसलिए, उत्पादक कंपनियां जिन क़ीमतों पर बिजली बेचती हैं, उनके आधार पर ही लोगों को बेची जाने वाली बिजली के दरें निर्धारित होती हैं।
बिजली उत्पादक निजी कंपनियां, राज्य के स्वामित्व वाली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के साथ बिजली ख़रीद समझौता (पी.पी.ए.) करती हैं। ऐसे बिजली ख़रीद समझौते, उन्हें एक सुनिश्चित बाज़ार और एक ऐसी क़ीमत पर बिजली बेचने की सुविधा प्रदान करते हैं, जो अधिकतम मुनाफ़े की गारंटी देता है।
1992 में जब बिजली उत्पादन को लाइसेंस मुक्त किया गया था और निजी क्षेत्र के लिए खोला गया था। उसके बाद बिजली परियोजनाओं को स्थापित करने के लिए पूंजीपतियों के बीच होड़ लग गयी थी, क्योंकि उन्हें दीर्घकालीन बिजली ख़रीद समझौतों के ज़रिये आकर्षक मुनाफ़े सुनिश्चित करने का आश्वासन दिया गया था। पूंजीपतियों ने नई नीति की घोषणा के दो साल के भीतर ही बिजली परियोजनाओं के लिए 130 से ज्यादा समझौते किए। इन परियोजनाओं की उत्पादन क्षमता, उस समय देश में स्थापित बिजली उत्पादन की क्षमता से अधिक थी!
एक निश्चित मात्रा में बिजली की ख़रीद के लिए, डिस्कॉम द्वारा 25 साल तक की लंबी अवधि के लिए बिजली ख़रीद समझौते किए जाते हैं। इसके लिए राज्य विद्युत बोर्डों को अगले 25 सालों में होने वाली बिजली की मांग का अनुमान लगाने की आवश्यकता होती है। निजी क्षेत्र के बिजली उत्पादनकर्ता के साथ किये गये बिजली ख़रीद समझौते को जायज़ ठहराने के लिए, बिजली की अनुमानित मांग को अधिक आंकने के लिए डिस्कॉम को मजबूर होना पड़ा है। नतीजतन, डिस्कॉम अपनी आवश्यकताओं से कहीं अधिक बिजली ख़रीदने के लिए प्रतिबद्ध हैं। कई राज्यों में तो अनुबंधित क्षमता बिजली की अधिकतम मांग से कहीं अधिक है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र ने 37,896 मेगावाट की बिजली की आपूर्ति के लिए बिजली ख़रीद समझौते किये थे, जबकि इसकी अधिकतम मांग केवल 22,516 मेगावाट थी यानि कि अधिकतम आवश्यकता का लगभग 1.7 गुना अधिक। इसी तरह तमिलनाडु में जब अधिकतम मांग केवल 14,223 मेगावाट थी, तब भी बिजली बोर्ड ने 26,975 मेगावाट बिजली की ख़रीद के समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे, जो कि अधिकतम मांग से लगभग 90 प्रतिशत से अधिक है।
बिजली ख़रीद समझौता प्रणाली टाटा, अडानी, जिंदल, टोरेंट, आदि जैसे इजारेदार पूंजीपतियों के लिए बहुत फ़ायदेमंद रही है। कुल मिलाकर उनका हिस्सा देश की उत्पादन क्षमता का 50 प्रतिशत से अधिक है।
डिस्कॉम द्वारा उत्पादन संयंत्र को बिजली के लिये भुगतान की जाने वाली दर के दो हिस्से होते हैं – एक निश्चित हिस्सा और एक परिवर्तनीय हिस्सा। डिस्कॉम को उत्पादक कंपनी से बिजली न लेने पर भी निश्चित हिस्से का भुगतान करना पड़ता है। जिसे ’निष्क्रिय क्षमता शुल्क’ के रूप में जाना जाता है। इस तरह से डिस्कॉम को बिजली ख़रीदे बिना ही एक निजी बिजली उत्पादक कंपनी को, इस शुल्क का भुगतान करना पड़ता है। यह निष्क्रिय क्षमता शुल्क पुराने उत्पादन संयंत्रों के लिए औसतन लगभग 2 रुपये प्रति यूनिट होता है।
मध्य प्रदेश में बिजली वितरण कंपनियों ने 2016-17 से 2020-21 के दौरान, निजी उत्पादन कंपनियों से बिजली प्राप्त किए बिना ही ’निष्क्रिय क्षमता शुल्क’ के रूप में 12,834 करोड़ रुपये का भुगतान किया था। अंततः डिस्कॉम इस अतिरिक्त लागत का बोझ बिजली की बढ़ी हुई दरों के ज़रिये लोगों पर ही डाल देते हैं।
मूल्य का परिवर्तनीय हिस्सा यह सुनिश्चित करता है कि ईंधन और अन्य उत्पादन लागत में किसी भी वृद्धि को पूरी तरह से वसूल किया जाये और जिसका भुगतान अंततः लोगों द्वारा ही किया जाता है।
इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा जब चाहे पी.पी.ए. का उल्लंघन
इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा बिजली ख़रीद समझौते का उल्लंघन तब किया जाता है, जब ये समझौते किसी भी कारण से उनके मुनाफे़ के प्रतिकूल हो जाते हैं। हालांकि, पूंजीपतियों का कहना है कि बिजली ख़रीद समझौते का सम्मान किया जाना चाहिए, भले ही ये समझौते डिस्कॉम और अंततः उपभोक्ताओं के लिए अत्यधिक प्रतिकूल हो जाएं।
आंध्र प्रदेश की सरकार ने 2019 में अनुमान लगाया था कि बिजली ख़रीद समझौते के कारण पिछले पांच वर्षों के दौरान, उसने सालाना 2,200 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च किया था। ये बिजली ख़रीद समझौते, सौर ऊर्जा उत्पादन कंपनियों के साथ किये गये थे। पिछले कुछ वर्षों के दौरान तकनीकी विकास के कारण सौर ऊर्जा के माध्यम से उत्पन्न की जाने वाली बिजली की लागत में बहुत तेज़ी से गिरावट आई है। हस्ताक्षरित किये गये बिजली ख़रीद समझौते में बिजली की दर ज्यादा थी, जबकि इस समय सौर ऊर्जा से मिलने वाली बिजली बहुत कम दरों पर उपलब्ध है। इसी वजह से आंध्र प्रदेश सरकार, राज्य में बिजली की दरों को कम करने के लिए बिजली ख़रीद समझौतों पर फिर से बातचीत करना चाहती थी। लेकिन केंद्र सरकार ने कहा कि वह इन समझौतों की दोबारा समीक्षा नहीं कर सकती है और न ही उन पर फिर से बातचीत कर सकती है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री को लिखा कि “बिजली ख़रीद समझौते ’सभी हस्ताक्षरकर्ताओं पर बाध्यकारी अनुबंध’ हैं। यदि अनुबंधों का सम्मान नहीं किया जाता है तो निवेश आना बंद हो जाएगा। उपरोक्त कारणों से सभी समझौतों को रद्द करना ग़लत है और क़ानून के ख़िलाफ़ होगा।“
दूसरी ओर, जब इजारेदार पूंजीपति बिजली ख़रीद समझौते का उल्लंघन करना चाहते हैं, तो उन्हें केंद्र सरकार द्वारा ’सभी हस्ताक्षरकर्ताओं पर बाध्यकारी अनुबंध’ नहीं माना जाता। टाटा और अदानी समूह की कंपनियों द्वारा आयातित कोयले की क़ीमत में वृद्धि के बाद बिजली की क़ीमतों में संशोधन करने की मांग की गई और उन्हें अनुमति दी गई। हाल ही में, जब यूक्रेन में युद्ध के कारण कोयले की क़ीमतें बढ़ गईं, तो इन संयंत्रों ने अपने समझौतों का सम्मान करने से इनकार कर दिया और यह कहते हुए अपने संयंत्रों को बंद कर दिया कि बिजली के लिये उन्हें दी जा रही क़ीमत उत्पादन लागत को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। उन्होंने पूर्ण उत्पादन तभी शुरू किया जब उन्हें एनर्जी एक्सचेंज में 20 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली बेचने की अनुमति दी गई!
अदानी पावर ने गुजरात में मुंद्रा तट पर, पूरी तरह से आयातित कोयले से चलने वाले एक बिजली संयंत्र को स्थापित किया। उसने 2.35 से 2.89 रुपये प्रति यूनिट की दर पर बिजली की आपूर्ति के लिए 25 साल लंबा समझौता किया। लेकिन 2011 में जब आयातित कोयले की क़ीमत में उछाल आया, तो उसने बिजली ख़रीद समझौता होने के बावजूद, यह घोषणा कर दी कि वह क़ीमत में संशोधन होने पर ही बिजली की सहमत मात्रा की आपूर्ति करने के अपने समझौते को पूरा कर सकता है। राज्य और केंद्र सरकार ने इस मांग पर सहमति जताई। अदानी पावर और सरकार के बीच दिसंबर 2018 में एक पूरक-समझौते पर हस्ताक्षर किए गए।
राज्य विधानसभा में गुजरात के ऊर्जा मंत्री द्वारा दिए गए बयान के अनुसार, अदानी पावर से ख़रीदी गई बिजली की औसत लागत दोगुनी से अधिक हो गयी – 2021 में यह 3.58 रुपये प्रति यूनिट से बढ़कर 2022 में 7.24 रुपये प्रति यूनिट हो गई। बिजली की क़ीमतों में उछाल के बावजूद, राज्य सरकार ने 2021 की तुलना में 2022 में अदानी पावर से 7.5 प्रतिशत ज्यादा बिजली की ख़रीदारी की।
इस प्रकार, मूल्य और मात्रा के संबंध में निजी इजारेदार बिजली उत्पादक कंपनियों द्वारा बिजली ख़रीद समझौते का उल्लंघन किया जाता है, लेकिन राज्य के स्वामित्व वाली डिस्कॉम को अनुबंधित क्षमता के प्रति प्रतिबद्धता के मामले में इसे बनाए रखने के लिए मजबूर किया जाता है।
इजारेदार पूंजीपतियों को अधिक से अधिक मुनाफे़ की गारंटी
केंद्र सरकार द्वारा, विद्युत नियामक आयोगों को “लागत प्लस लाभ“ के आधार पर ’लाभदायक’ बिजली टैरिफ तय करने के लिए निर्देश दिये गये हैं। टैरिफ निर्धारण के लिए, इस समय मुनाफे़ की गारंटीकृत दर थर्मल पावर के लिए 15.5 प्रतिशत है और पवन व सौर ऊर्जा आधारित संयंत्रों के लिए 16 प्रतिशत है। यह इक्विटी पर टैक्स के बाद का रिटर्न है। निजी बिजली उत्पादकों के लिए मुनाफे़ की गारंटीकृत दर, अन्य क्षेत्रों में हिन्दोस्तान के उद्योगों के लाभ की औसत दर से बहुत अधिक है। बिजली उत्पादन में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए आवश्यक होने का दावा करके, मुनाफे़ की ऊंची दर को उचित ठहराया जाता है।
पिछले कुछ सालों के दौरान, बिजली उत्पादकों का ध्यान अक्षय ऊर्जा के उपयोग की ओर स्थानांतरित हो गया है – मुख्य रूप से सौर व पवन ऊर्जा की ओर। इजारेदार पूंजीपतियों को सौर ऊर्जा पर आधारित विशाल संयंत्र लगाने के लिए कर प्रोत्साहन दिया जाता है। इसके लिए उन्हें कौड़ियों के दाम पर या पट्टे पर ज़मीनों के बड़े हिस्से मुहैया कराए जा रहे हैं।
अक्षय-ऊर्जा का क्षेत्र पूरी तरह से निजी इजारेदार कंपनियों के प्रभुत्व में है – इस क्षेत्र में अदानी सबसे बड़ा खिलाड़ी है। डिस्कॉम को न केवल अक्षय-ऊर्जा उत्पादक के साथ बिजली ख़रीद समझौते करने के लिए मजबूर किया जा रहा है बल्कि उन्हें अपनी बिजली ख़रीद में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए भी बाध्य किया जा रहा है। नतीजन, डिस्कॉम राज्य के स्वामित्व वाली उत्पादक कंपनियों (जेनकोज़) से कम से कम बिजली ले रहे हैं। जल्द ही अधिकांश जेनकोस बीमारू स्थिति में पहुंच जाएंगे और उनके निजीकरण को सही ठहराने के लिए उनकी इस बीमार अवस्था का इस्तेमाल किया जाएगा। बिजली उत्पादन पर चंद बड़े पूंजीपतियों का एकाधिकार हो जाएगा, फिर वे ही देश में बिजली की दरें तय करेंगे।
बिजली ख़रीद समझौते और बिजली नीतियों का वास्तविक उद्देश्य, बिजली उत्पादन को इजारेदार पूंजीपतियों के लिए गारंटीशुदा मुनाफ़ों के साथ-साथ, एक कम जोखि़म वाला व्यवसाय बनाना रहा है। पीपीए ने राज्य के स्वामित्व वाली उत्पादन और वितरण कंपनियों की वित्तीय-हालातों को ख़राब कर दिया है, जिससे उनके निजीकरण के लिए ज़रूरी वजह और औचित्य के रूप में हालातें तैयार हो रही हैं।