अमरीकी डॉलर की दादागीरी

इस वर्ष मार्च के अंतिम सप्ताह में चीन द्वारा संयुक्त अरब-अमीरात (यू.ए.ई.) से खरीदे गए 65,000 टन तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एल.एन.जी.) के भुगतान के लिए चीन की मुद्रा युआन का उपयोग किया गया था। सऊदी अरब ने अपने तेल का कुछ हिस्सा, युआन मुद्रा में चीन को निर्यात करने में रुचि दिखाई है। सऊदी अरब ने केन्या की तेल कंपनियों को तेल के भुगतान के रूप में केन्या की मुद्रा (करेंसी) केन्याई-शिलिंग को स्वीकार करने के लिए केन्या की सरकार के साथ एक समझौते पर भी बातचीत की है। ये सौदे, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अमरीकी डॉलर के अलावा अन्य मुद्राओं का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति का हिस्सा हैं, जिसमें हिन्दोस्तान और चीन द्वारा रूसी तेल की ख़रीद भी शामिल है।

ये व्यापार सौदे इसलिये महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पिछले पांच दशकों से दुनिया के देशों में सभी प्रमुख पेट्रोलियम उत्पादों की बिक्री, केवल अमरीकी डॉलर में की जाती रही है। वास्तव में, यूरोप, जो कि दुनिया में पेट्रोलियम का सबसे बड़ा आयातक है, जहां पर  पेट्रोलियम का 85 प्रतिशत आयात अभी भी अमरीकी डॉलर में ही होता है।

गौरतलब है कि अमरीकी डॉलर के अलावा, अन्य मुद्राओं में पेट्रोलियम व्यापार करने के पहले के प्रयासों का अमरीका द्वारा हिंसक विरोध किया गया था। इराक ने अक्तूबर 2000 में यह घोषणा की थी कि वह यूरोप को अपना तेल यूरो मुद्रा में बेचेगा। अमरीका ने तभी से इराक पर हमला करने की तैयारी शुरू कर दी थी।

अमरीका ने एक कहानी गढ़ी कि इराक के पास सामूहिक विनाश के हथियार हैं। यह एक ऐसा दावा था जिसकी पुष्टि संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष निरीक्षकों द्वारा भी नहीं की गई थी, जिन्हें इस दावे की जांच करने के लिए ही इराक भेजा गया था। 2003 में संयुक्त राष्ट्र संघ के किसी भी निर्णय के बिना, अमरीका और उसके मित्रों ने इराक पर आक्रमण करके, इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को गिरफ्तार किया और बाद में दिसंबर 2006 में उनकी हत्या कर दी। इसी तरह 2008 में लीबिया पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद, अमरीका और उसके सहयोगियों ने लीबिया पर आक्रमण किया और लीबिया के नेता गद्दाफी की हत्या कर दी। लीबिया की सरकार अपने डॉलर खातों के संचालन में अमरीका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को किसी तरह टालने का प्रयास कर रही थी। लीबिया की सरकार ने अपने तेल को सोने से समर्थित एक मुद्रा में बेचने की योजना बनाई थी। झूठे बहानों के तहत अमरीका और उसके मित्र राष्ट्रों के नेतृत्व में की गई सैन्य कार्रवाइयों के ज़रिये इराक और लीबिया दोनों देशों को बुरी तरह तबाह किया गया। परन्तु सैन्य हमले शुरू करने का असली कारण यह सुनिश्चित करना था कि अमरीकी डॉलर में तेल व्यापार जारी रहे ताकि अमरीकी डॉलर की, आरक्षित मुद्रा (रिज़र्व करंसी) की स्थिति को बरकरार रखने के रास्ते में कोई चुनौती न पैदा हो सके।

रिज़र्व मुद्रा का अर्थ है कि यह मुद्रा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में व्यापक रूप से स्वीकार की जाती है। इसका मतलब है कि व्यापार के सौदे उसी मुद्रा में किए जाते हैं और अधिकांश सरकारें अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार से आयात करने के लिए उसी मुद्रा का भंडार रखती हैं।

अमरीकी डॉलर के विश्व की रिज़र्व करंसी होने से, अमरीका को इसका बहुत बड़ा फ़ायदा होता है। सबसे पहला फ़ायदा यह है कि अमरीका उन देशों से सस्ता क़र्ज़ पाने में सक्षम होता है जो आयात के मुक़ाबले ज्यादा निर्यात करते हैं और जिनके पास बेशी (सरप्लस) अमरीकी डॉलर होते हैं और जिन्हें वे अमरीकी ट्रेजरी बांड में निवेश करते हैं। दूसरा फ़ायदा यह होता है कि अमरीका को उच्च घरेलू मुद्रास्फीति का सामना किए बिना, बड़ी संख्या में डॉलर छापने की छूट मिल जाती है क्योंकि इन डॉलरों का एक बड़ा हिस्सा अमरीका के भीतर नहीं रहता है – अमरीकी डॉलर का व्यापक रूप से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में उपयोग किया जाता है, व्यापारिक लेनदेन को सुविधाजनक बनाने के लिए बड़ी संख्या में उनकी आवश्यकता होती है। इस प्रकार, अमरीका को एक बड़े व्यापार-घाटे को बनाये रखने की सुविधा प्राप्त हो जाती है; अमरीका को आयात करने के लिए, जितना चाहिए उतने डालरों को छापने की छूट मिल जाती है क्योंकि विश्व बाज़ार में डॉलर की हमेशा मांग रहती है। इस तरह, सस्ते विदेशी क़र्ज़ का उपयोग करके और अधिक डॉलर छापकर, टैक्स राजस्व से कहीं अधिक सरकारी व्यय के साथ, अमरीकी राज्य एक भारी बजट घाटे के बावजूद, बिना उच्च घरेलू मुद्रास्फीति के अपनी अर्थव्यवस्था को चलाने में सक्षम है। इस प्रकार अमरीकी सरकार इस डॉलर क़र्ज़ के बलबूते पर अपने सैन्य बलों को मजबूत करने के लिये मनचाहा खर्चा करने में सक्षम है। वह बड़ी ढांचागत और अन्य परियोजनाओं को भी वित्तपोषित करता है, जिससे उसे अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक विकसित रखने में मदद मिलती है। इसीलिये, अमरीका हर क़ीमत पर अमरीकी डॉलर को दुनिया की रिज़र्व करंसी के रूप में क़ायम रखना चाहता है। डॉलर के आधिपत्य को दी गयी किसी भी चुनौती का मुक़ाबला करने के लिए, अमरीका ने सैन्य हस्तक्षेप का सहारा लिया है।

अमरीकी डॉलर दुनिया की आरक्षित मुद्रा कैसे बना?

20वीं शताब्दी के शुरुआती वर्षों तक, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिये मुद्रा के रूप में सोने को स्वीकार किया जाता था। सभी प्रमुख साम्राज्यवादी शक्तियों की मुद्राएं सोने से जुड़ी हुई थीं। 1914 में हुये प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत में, सोने के सबसे बड़े भंडार वाले शीर्ष पांच देश थे – रूस, फ्रांस, अमरीका, जर्मनी और ब्रिटेन।

युद्ध में शामिल कई यूरोपीय देशों को अमरीका से हथियारों को ख़रीदने के लिए भारी मात्रा में सोने को भौतिक रूप से स्थानांतरित करना पड़ा। इस प्रकार 1913 में, अमरीकी फेडरल रिज़र्व (अमरीकी रिज़र्व बैंक) और कोष (ट्रेज़री) में सोने का भंडार, 431 मीट्रिक टन से बढ़कर 1918 में 3,675 मीट्रिक टन हो गया। यह अमरीकी राज्य के सोने के भंडार में 8.5 गुना वृद्धि थी। नतीजतन, अमरीका दुनिया में सोने का सबसे बड़ा धारक बन गया। पूरी दुनिया के सोने के भंडार में उसका हिस्सा (यानी कि दुनिया के सभी देशों द्वारा रखे गए सारे सोने के भंडार का कुल मिलाकर अमरीका का हिस्सा) युद्ध के पहले के लगभग 5 प्रतिशत से बढ़कर युद्ध के बाद लगभग 37 प्रतिशत हो गया। युद्ध के परिणामस्वरूप जहां यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाएं कमज़ोर हुईं, वहीं अमरीकी अर्थव्यवस्था और अधिक मजबूत हुई। द्वितीय विश्व युद्ध में यह प्रक्रिया फिर दोहराई गयी क्योंकि अमरीका द्वितीय विश्व युद्ध के सबसे अंत में उसमें शामिल हुआ था और उसका बहुत कम नुक़सान हुआ था। इस तरह अमरीका की अर्थव्यवस्था और अधिक मजबूत हुई और 1941 में इसका सोने का भंडार बढ़कर 20,206 मीट्रिक टन हो गया, जो कि दुनिया की सभी सरकारों के पास मौजूद सोने के भंडार का 80 प्रतिशत था।

1944 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, 44 देशों के प्रतिनिधियों ने अमरीका के न्यू हैम्पशायर राज्य के ब्रेटन वुड्स में मुलाक़ात की। सम्मेलन का उद्देश्य था युद्ध के बाद आर्थिक व्यवस्था और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की व्यवस्था पर एक समझौता करना। सम्मेलन में भाग लेने वालों ने इसके समापन पर इंटरनेशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट बनाने का समझौता किया, जो कि विश्व बैंक प्रणाली और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) का हिस्सा है। चूंकि सभी यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं युद्ध के कारण बर्बाद हो गई थीं और उनकी मुद्राओं का बहुत अवमूल्यन हुआ था, इसलिए यह सहमति हुई थी कि अन्य देशों की मुद्राओं को अमरीकी डॉलर से जोड़ा जाएगा, जबकि अमरीकी डॉलर को सोने से जोड़ा जायेगा (1 ट्रॉय औंस = 31.1035 ग्राम = 35 अमरीकी डॉलर)। इस प्रकार, विश्व की अधिकांश मुद्रायें अमरीकी डॉलर के ज़रिये स्वर्ण मानक से जुड़ी हुई थीं। ब्रेटन वुड्स समझौते के अनुसार, सभी देश जब चाहें अपने डॉलरों को सोने में बदलने की मांग कर सकते थे। इस प्रकार अमरीकी डॉलर विश्व की रिज़र्व मुद्रा बन गया। अगले कुछ दशकों में अमरीकी डॉलर ने ब्रिटिश पाउंड को विस्थापित कर दिया और वैश्विक व्यापार, तेज़ी से अमरीकी डॉलर में किया जाने लगा।

स्वर्ण मानक का उन्मूलन

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, अमरीका ने बड़े पैमाने पर सैन्य विस्तार किया तथा अपने बुनियादी ढांचे और अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर भारी खर्च किया जिससे उसकी अर्थव्यवस्था तेज़ी से आगे बढ़ी, जिसकी वजह से अमरीका सबसे बड़ी सैन्य शक्ति के रूप में उभरा। उसने यूरोप और अन्य सभी महाद्वीपों में अपने सैन्य अड्डे स्थापित किए। उसने कोरिया और वियतनाम में युद्ध छेड़ा और दर्जनों देशों में सैन्य हस्तक्षेप किया। बड़े पैमाने पर होने वाले इस सैन्य खर्च को वित्तपोषित करने के लिए, अमरीकी राजकोष ने बड़ी संख्या में डॉलरों की छपाई शुरू कर दी। इस सैन्य ख़र्च से इजारेदार अमरीकी पूंजीपतियों को गारंटीशुदा मुनाफ़ा मिला, लेकिन इस खर्च से लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने वाला उत्पादन नहीं हुआ। इस प्रकार सोने के मूल्य की तुलना में अमरीकी डॉलर का वास्तविक मूल्य गिरना शुरू हो गया, जबकि ब्रेटन वुड्स समझौते के तहत डॉलर, उसी दर पर सोने से जुड़ा रहा। कई देशों को समझ में आया कि क्या हो रहा था। 1960 के दशक में फ्रांसीसी सरकार से शुरू होकर, कई सरकारों ने अपने डॉलर के भंडार के लिए, अमरीका से सोने की मांग शुरू कर दी।

1970 तक अमरीकी सोने का भंडार, 1941 में अपनी चरम सीमा की तुलना में आधे से भी कम हो गया था जो कि दुनिया के सोने के कुल भंडार का 25 प्रतिशत से भी कम हिस्सा था। अमरीकी सरकार ने महसूस किया कि डॉलर को सोने में बदलने की मांग को पूरा करने के लिए उसके पास पर्याप्त सोना नहीं होगा। अमरीकी राष्ट्रपति ने 15 अगस्त 1971 को एक हुक्मनामा जारी करके यह घोषणा की कि अमरीकी डॉलर अब सोने में परिवर्तनीय नहीं होगा।

1971 में सोने से अलग होने के बाद, अमरीकी डॉलर के आधिपत्य को बनाए रखने के लिए, अमरीका ने सऊदी अरब में राजशाही पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि सऊदी अरब का तेल केवल अमरीकी डॉलर में ही बेचा जाए। अमरीका ने अरब के लोगों के क्रोध से सऊदी अरब के अलोकप्रिय शासकों का बचाव किया। पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) में सऊदी अरब का दबदबा था। सऊदी के शासकों ने ओपेक में अपनी स्थिति का फ़ायदा उठाकर यह सुनिश्चित किया कि तेल का कारोबार अमरीकी डॉलर में ही हो। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिली कि अमरीकी डॉलर की मांग उतनी ही बनी रहेगी क्योंकि तेल को ख़रीदने में सक्षम होने के लिए, देशों को डॉलर के भंडार को बनाए रखने की आवश्यकता होगी। तेल का व्यापार केवल अमरीकी डॉलर में ही करने के लिए, अमरीका के साथ सऊदी अरब की सहमति ने अमरीकी डॉलर के प्रभुत्व को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, भले ही डॉलर अब सोने से जुड़ा नहीं है।

बतौर हथियार अमरीकी डॉलर का प्रयोग

अमरीका उन देशों, जो उसके हुक्म का पालन नहीं करते है, उनके ख़िलाफ़ अमरीकी डॉलरों का इस्तेमाल हथियार के रूप में इसलिये कर पाता है, क्योंकि अमरीकी डॉलर को दुनिया में रिज़र्व मुद्रा का दर्ज़ा प्राप्त है। उदाहरण के लिए, उत्तर कोरिया, वेनेजुएला, क्यूबा और ईरान जैसे देश इस समय अमरीका द्वारा लगाये गए आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि अमरीकी डॉलर की दादागिरी और अमरीकी सैन्य ताक़त के कारण, अमरीका ये प्रतिबंध लगाने में समर्थ है। जब अमरीका ईरान पर प्रतिबंध लगाता है, तो हक़ीक़त में इसका मतलब यह होता है कि वह सभी देशों पर ईरान के साथ व्यापार न करने का दबाव डालता है। यदि कोई देश प्रतिबंधित देश के साथ व्यापार करना जारी रखता है तो उस देश पर या कम से कम, व्यापार करने वाली कंपनी पर, दंडात्मक कार्रवाई की जाती है। दंडात्मक कार्रवाई के रूप में हो सकता है कि वह देश अपनी वस्तुओं और सेवाओं को अमरीका या उसके सहयोगियों को निर्यात न कर सके या उसके डॉलर-खातों को फ्रीज़ कर दिया जाए, या उसे स्विफ्ट जैसे अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन की सुविधा देने वाले संस्थानों का उपयोग करके धन हस्तांतरित करने पर रोक लगाई जाये, आदि – इन तरीकों से, उस देश या उस कंपनी को, अंतरराष्ट्रीय व्यापार गतिविधियों से लाभ उठाने से रोका जा सके।

निष्कर्ष

जिन तरीकों से इस समय अमरीकी दादागीरी का विरोध किया जा रहा है, उनमें से एक है, डी-डॉलराइजेशन – यानी, अमरीकी डॉलर के अलावा अन्य मुद्राओं में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और अन्य वित्तीय लेनदेन को विकसित करने के लिए कदम लेना। चीन, रूस और हिन्दोस्तान सहित कई देश, अमरीकी डॉलर के अलावा अन्य मुद्राओं में आयात और निर्यात करने के लिए द्विपक्षीय समझौते कर रहे हैं। कई देश ऐसे द्विपक्षीय और बहुपक्षीय मंच तैयार करने के लिए एक साथ आ रहे हैं जिन पर अमरीकी साम्राज्यवाद का वर्चस्व नहीं है। कई देश, आगे आने वाले एक गंभीर वैश्विक आर्थिक संकट की संभावनाओं से खुद को बचाने के लिए अपने सोने के भंडार को बढ़ा रहे हैं।

दूसरी ओर अमरीकी साम्राज्यवाद, अमरीकी डॉलर के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अपनी पूरी ताक़त लगा रहा है। वह अर्थव्यवस्थाओं और देशों को नष्ट करने के लिए आर्थिक हथियारों के साथ-साथ सैन्य हस्तक्षेप करने के लिये भी तैयार है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अमरीकी डॉलर के वर्चस्व को कोई आंच न आये।

1 https://www-middleeastbriefing-com/news/china&conducts&first&lng&purchase&in&rmb&yuan&with&united&arab&emirates/

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