मई के पहले हफ्ते से मणिपुर को दहला देने वाली हिंसा को समाचार माध्यमों में “दंगा“ बताया जा रहा है। यह सरासर ग़लत सूचना है।
यह दंगा नहीं है
दंगे का मतलब है कि लोगों की भीड़ स्वतः स्फूर्त हिंसा पर उतर आई है। लेकिन, इस समय मणिपुर में जो हिंसक घटनाएं हुई हैं और हो रही हैं, वे स्वतः स्फूर्त नहीं हैं। उन्हें बहुत ही सुनियोजित तरीके़ से अंजाम दिया गया है। हिंसा में शामिल सशस्त्र गिरोहों ने अपनी पहचान छिपाने के लिए मास्क पहना था। पुलिस मूक दर्शक बनकर खड़ी रही और हमलों को होने दिया।
जब भी हमारे देश में किसी समूह को निशाना बनाकर बड़े पैमाने पर हिंसा होती है, तब सरकार इन्हें दंगों का नाम देती है और इनके लिए लोगों को दोषी ठहराती है। मिसाल के तौर पर, जब दिल्ली में नवंबर 1984 में, जनसंहार हुआ था, तो सरकार ने यह प्रचार किया था कि हिंदू और सिख एक-दूसरे का क़त्ल कर रहे हैं। परन्तु, हक़ीक़त इससे बिलकुल अलग थी।
कांग्रेस पार्टी की केंद्र सरकार ने सिखों पर हमला करने के लिए विभिन्न गिरोहों को लामबंध किया था। सिखों के घरों की पहचान करने के लिए कातिलाना गिरोहों को मतदाता सूची दी गई थी। सिखों के जनसंहार को जायज़ ठहराने के लिए, पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने खूब सारी झूठी अफ़वाहें फैलायी थीं जैसे कि “सिखों ने दिल्ली के पानी में ज़हर मिला दिया है“, आदि। इस तरह जनता में उन्माद फैलाया गया था। दिल्ली में कई हिंदू परिवारों ने अपने सिख पड़ोसियों की रक्षा की थी, उन्हें अपने घरों में आश्रय दिया था। इन बातों से अब सभी वाकिफ़ हैं। लेकिन, सरकारी रिकॉर्ड में उस जनसंहार को अभी भी “सिख विरोधी दंगे“ कहा जाता है।
इसी तरह, 2002 के गुजरात नरसंहार को भी “दंगे“ कहा जाता है, इस हक़ीक़त को छिपाने के लिए कि वह सत्ता में बैठे लोगों द्वारा एक सुनियोजित अपराध था। फरवरी 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली में राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा को भी “दंगे” कहा जाता है।
“दंगे“ शब्द का प्रयोग, हुक्मरान वर्ग, उसके नेताओं और राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए अपराधों के लिए आम लोगों को दोषी ठहराने का एक सोचा-समझा प्रयास है।
मणिपुर के मामले में, दंगा शब्द का प्रयोग और भी चौंकाने वाला है, क्योंकि मणिपुर एक ऐसा राज्य है जहां सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (आफ़स्पा) लागू है। यह क़ानून सेना और अर्धसैनिक बलों को लोगों पर गोली चलाने और मात्र शक के आधार पर हत्या करने का अधिकार देता है। 5 मई को, केंद्र सरकार ने वहां शांति बहाल करने के नाम पर, मणिपुर में हजारों और सैनिकों को भेजा। परन्तु इसके बावजूद, आगजनी और लूटपाट जारी है। हथियारबंद गिरोहों को राष्ट्रीय राजमार्गों पर, वाहनों को लूटते और यात्रियों की पहचान की जांच करते देखा गया है। सत्ता में बैठे लोगों के समर्थन के बिना कोई भी ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकता है।
ऐसे कई जिले हैं जो शांतिपूर्ण रहे हैं, जैसे कि वे क्षेत्र जहां नगा लोगों के संगठनों का जन समर्थन है। ऐसे संगठनों ने घोषणा की है कि कोई भी वाहनों को रोकने और यात्रियों की पहचान की जांच करने की हिम्मत नहीं कर सकता। यदि जन संगठन यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनके क्षेत्र हिंसा-मुक्त रहें, तो सवाल उठता है कि केंद्रीय और मणिपुर सरकारें इतनी बड़ी संख्या में सशस्त्र बलों और पुलिस के सहारे भी, कैसे इंफाल और अन्य क्षेत्रों में हिंसा को रोकने में असमर्थ हैं?
मणिपुर के लोग, जिनमें घाटी और पहाड़ी दोनों के लोग शामिल हैं, कई सदियों से मिलजुलकर, शांतिपूर्वक एक साथ रह रहे हैं। उन्होंने मणिपुरी होने के नाते, अपने सांझे अधिकारों के लिए एकजुट होकर संघर्ष किये हैं।
इंफाल, चुरचंदपुर, मोरेह और अन्य जगहों के हिंसा प्रभावित जिलों में कई दिल दहलाने वाले हादसों वाली घटनाओं की खबरें मिली हैं – जिनमें एक समुदाय के लोगों ने अपनी जान को जोखिम में डालकर, दूसरे समुदाय के लोगों की रक्षा की है।
सत्ता में बैठे लोगों ने जानबूझकर मैतेई और कुकी समुदायों के बीच तनाव पैदा किया है। उन्होंने लोगों के बीच आपसी दुश्मनी की भावनाओं को पैदा करने के लिए, सोशल मीडिया के ज़रिये झूठे प्रचार फैलाये। 3 मई की रात को, चुरचंदपुर और मोरेह में मैतेइयों को निशाना बनाकर हमले किए गए। अगली सुबह, हथियारबंद गिरोह इंफाल में रहने वाले कुकी लोगों को जलाने, उनके घरों की लूटपाट करने और उन्हें मारने के लिए पहुंच गए, पिछली रात की घटनाओं के लिए तथाकथित “बदला“ लेने के लिए। आंखों देखा हाल बताने वाले लोग इस बात की पुष्टि करते हैं कि कातिलाना गिरोह कहीं बाहर से आये हुए लोग थे, जिन्हें वहां के निवासी जानते-पहचानते नहीं थे।
मणिपुर की मौजूदा स्थिति के लिए हुक्मरान दोषी हैं, न कि जनता। तबाही और हिंसा के लिए न तो कुकी और न ही मैतेई लोग ज़िम्मेदार हैं। इसके विपरीत, वे इस हिंसा के शिकार हैं। मणिपुर में सांप्रदायिक हिंसा सत्ता में बैठे लोगों द्वारा सुरक्षा बलों, अदालतों और राज्य तंत्र के अन्य अंगों की सहायता से किया गया अपराध है। यह राजकीय आतंकवाद है। यह हिन्दोस्तानी हुक्मरान वर्ग की फूट डालो और राज करो की रणनीति का परिणाम है।
फूट डालो और राज करो
हिन्दोस्तान पर पूंजीपति वर्ग का शासन है, जो आबादी का एक छोटा सा हिस्सा है। इस वर्ग की अगुवाई करने वाले लगभग 150 इजारेदार पूंजीपति हैं। पूंजीपति हिन्दोस्तान में बसे हुए सभी लोगों की भूमि, श्रम और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करके खुद को समृद्ध करते हैं। देशभर के मजदूर, किसान और आदिवासी लोग इस नाजायज़, शोषक और दमनकारी व्यवस्था के खिलाफ़ अपने अधिकारों की मांग करते हुए, संघर्ष करते रहते हैं। हुक्मरान वर्ग लोगों को बांटकर, दबाकर रखने के लिए लगातार धर्म, जाति, राष्ट्रीयता या आदिवासी पहचान के आधार पर, मेहनतकश लोगों के बीच दुश्मनी और आपसी झगडे़ उकसाता है।
लोगों की असली समस्याओं का फ़ायदा उठाकर, हुक्मरान एक तबके के लोगों को दूसरे तबके के खि़लाफ़ भिड़ा देते हैं। वे एक तबके के लोगों को दूसरे तबके की समस्याओं के लिए दोषी ठहराते हैं। इस तरह वे एक तीर से दो शिकार करते हैं। सबसे पहले, वे यह सुनिश्चित करते हैं कि लोग अपनी समस्याओं के असली स्रोत को न पहचान सकें, जो कि शोषण की पूंजीवादी व्यवस्था और इस व्यवस्था की हिफ़ाज़त करने वाला हिन्दोस्तानी राज्य है। दूसरा, लोगों को एक-दूसरे के खि़लाफ़ भिड़ाकर, हुक्मरान हमारी एकता को तोड़ते हैं और हमारी समस्याओं को हल करने के लिए हमारे अपने सांझे संघर्ष को कमज़ोर करते हैं। हिन्दोस्तान के सभी लोग हुक्मरान पूंजीपति वर्ग की इस रणनीति का शिकार हुए हैं।
मणिपुर के नौजवान अपनी प्रतिभा, कड़ी मेहनत करने की क्षमता और ज्ञान हासिल करने की प्यास के मामले में किसी से पीछे नहीं हैं। परन्तु, मणिपुर में उच्च और तकनीकी शिक्षा के पर्याप्त संस्थान स्थापित नहीं किए गए हैं। न ही नौजवानों के लिए रोज़गार के पर्याप्त अवसर हैं। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने या नौकरी तलाशने के लिए देश के दूर-दराज़ के क्षेत्रों में जाने को मजबूर होना पड़ता है।
यह अधिकतम नौजवानों को प्रभावित करने वाली समस्या है, चाहे वे पहाड़ी इलाकों के लोग हों या घाटी के लोग। मगर, हुक्मरान वर्ग जानबूझकर प्रचार करता है कि पहाड़ी लोगों को लाभ हुआ है, और कथित तौर पर अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के लिए आरक्षण के कारण घाटी के लोगों के साथ भेदभाव किया गया है।
पिछले कुछ वर्षों में, म्यांमार की सेना द्वारा शुरू किए गए दमन के कारण लाखों-लाखों शरणार्थी म्यांमार से मणिपुर में आ गए हैं। इनमें से कई शरणार्थी मणिपुर के पहाड़ी लोगों के साथ नज़दीकी से जुड़े हुए हैं। इन शरणार्थियों की मानवीय ज़रूरतों का ध्यान रखना हिन्दोस्तानी राज्य की ज़िम्मेदारी है। ऐसा करने के बजाय, हिन्दोस्तान की सरकार ने इन तमाम शरणार्थियों का इस्तेमाल करके, अलग-अलग तबकों के लोगों को एक दूसरे के खि़लाफ़ भिड़ाने का काम किया है।
हिन्दोस्तान के संविधान का अनुच्छेद 371-सी राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों पर मणिपुर विधानसभा की शक्ति को सीमित करता है। यह अनुच्छेद केंद्र सरकार को इन क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में मणिपुर सरकार को निर्देश देने की शक्ति देता है। यह प्रावधान केंद्र सरकार को, पहाड़ी क्षेत्रों के संबंध में, मणिपुर की राज्य सरकार को दरकिनार करने में सक्षम बनाता है। केंद्र सरकार ने बार-बार इस प्रावधान का इस्तेमाल करके, घाटी और पहाड़ी क्षेत्रों के लोगों के बीच की खाई को गहरा करने का काम किया है।
हुक्मरान वर्ग के बंटवारा-कारी और अपराधी तरीक़ों के बावजूद, मणिपुर के लोग एकजुट होकर, अपने सांझे हितों के लिए संघर्ष करते रहे हैं। अपने राष्ट्रीय अधिकारों की हिफ़ाज़त में और सैनिक शासन के खि़लाफ़ एकजुट संघर्ष का उनका लंबा इतिहास रहा है।
सैनिक शासन और आफ़स्पा
मणिपुर में 1950 के दशक से सैनिक शासन लागू है। शुरू में, सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम या आफ़स्पा, मणिपुर के नगा बसावट वाले क्षेत्रों में लागू था। 18 सितंबर, 1981 को पूरे राज्य पर इसे लागू कर दिया गया था।
आफ़स्पा को उसी तरह के अधिनियम के रूप में बनाया गया है, जिसे ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासकों ने 1942 में उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष के बढ़ते ज्वार को कुचलने के लिए लागू किया था। हिन्दोस्तान को आज़ादी मिलने के बाद, नगा लोगों के आत्मनिर्धारण के संघर्ष को कुचलने के लिए, आफ़स्पा को लागू किया गया था। इसका इस्तेमाल पूर्वोत्तर के विभिन्न राज्यों में रहने वाले सभी लोगों के साथ-साथ, जम्मू-कश्मीर के लोगों के खि़लाफ़ भी किया गया है।
आफ़स्पा एक क्रूर अधिनियम है जो सशस्त्र बलों को शक मात्र के आधार पर लोगों को मारने, अपहरण करने, गिरफ़्तार करने और प्रताड़ित करने, उनके घरों पर छापा मारने और तलाशी लेने का अधिकार देता है। लोगों पर किये गए अपराधों के लिए, सशस्त्र बलों के सिपाहियों पर, किसी भी अदालत में मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता है।
मणिपुर में सुरक्षा बलों द्वारा मारे गए लोगों के परिजनों के एक समूह, अन्याय हत्याओं से पीड़ित परिवार संघ, द्वारा 2012 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी। उस याचिका में 1970 के दशक के बाद से 1,528 फ़र्ज़ी मुठभेड़ हत्याओं के सबूत के दस्तावेज़ पेश किये गए थे। याचिका में बताया गया था कि इनमें से किसी भी मामले में, सेना के अपराधी जवानों के खि़लाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई थी।
उस याचिका के जवाब में, सुप्रीम कोर्ट ने 8 जुलाई, 2016 को फै़सला सुनाया था कि “अशांत क्षेत्र“ घोषित किए जाने वाले इलाके में भी “आपराधिक अदालत में मुक़दमे से संपूर्ण बचाव की कोई अवधारणा नहीं है“। सुप्रीम कोर्ट ने फै़सला सुनाया था कि “मणिपुर के अशांत क्षेत्र सहित, सशस्त्र बलों के हाथों होने वाली हर मौत की पूरी तरह से जांच की जानी चाहिए, अगर कोई शिकायत या ग़लत उपयोग या सत्ता के दुरुपयोग का आरोप है।“
12 अप्रैल, 2017 को हिन्दोस्तान की सरकार ने इस फ़ैसले पर, एक उपचारात्मक याचिका दायर की, जिसमें 8 जुलाई, 2016 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को वापस लेने की मांग की गई। हिन्दोस्तान की सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले अटॉर्नी जनरल ने यह तर्क़ दिया कि उस आदेश को लागू करना सशस्त्र बलों के मनोबल के लिए “हानिकारक होगा।“। उन्होंने यह कहते हुए एक याचिका प्रस्तुत की कि मणिपुर में युद्ध जैसी स्थिति है और “ऐसी स्थिति में सशस्त्र बलों द्वारा लिए गए किसी भी क़दम पर अदालती जांच नहीं हो सकती है।“
यह मणिपुर के लोगों के प्रति हिन्दोस्तानी हुक्मरान वर्ग के कपट और अवमानना को दर्शाता है। केंद्रीय राज्य “सशस्त्र बलों के मनोबल“ को बनाए रखने के नाम पर सशस्त्र बलों द्वारा बेक़सूर लोगों के बलात्कार, उत्पीड़न और हत्या को क़ानूनी रूप से जायज़ ठहराता है। यह साफ़-साफ़ राजकीय आतंकवाद है, लोकतांत्रिक अधिकारों और मानवाधिकारों का घोर हनन है।
मणिपुर में सभी लोग आफ़स्पा और सशस्त्र बलों के आतंकवादी शासन के खि़लाफ़ एक लंबा संघर्ष कर रहे हैं। उनके इस लगातार और एकजुट संघर्ष की वजह से ही अगस्त 2004 में हिन्दोस्तान की सरकार को मणिपुर की राजधानी, इम्फाल, के कुछ क्षेत्रों से आफ़स्पा को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था।
असली उद्देश्य
इस समय, मणिपुर में बड़े पैमाने पर अराजकता और हिंसा फैलाने के पीछे असली उद्देश्य मणिपुर में सैनिक शासन और आफ़स्पा को जारी रखने का बहाना बनाना है।
40 से अधिक वर्षों के लिए, वहां सैनिक शासन को जायज़ ठहराने के लिए यह कहा गया है कि सशस्त्र विद्रोहियों और अलगाववादियों से निपटने के लिए इसकी आवश्यकता है। इस प्रचार पर अब वहां के लोग बिलकुल यक़ीन नहीं करते हैं। लोगों को साफ़-साफ़ दिखता है कि इनमें से कई गिरोह हिन्दोस्तानी राज्य की खुफ़िया एजेंसियों की सांठ-गांठ में काम करते हैं।
हिन्दोस्तानी सेना और विभिन्न सशस्त्र गिरोह, दोनों उन्हीं लोगों पर दमन और आतंक फैलाते हैं, जिनकी रक्षा करने का वे दावा करते हैं। दोनों मिलजुलकर, अफीम की खेती, नशीली दवाओं की तस्करी और म्यांमार के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार तस्करी, आदि को अंजाम देते हैं। परजीवियों की तरह, वे लोगों का खून चूसते हैं और अपनी-अपनी तिजौरियां भरते हैं। मणिपुर में चुनकर आई सरकारें केंद्रीय राज्य की देखरेख में, विभिन्न सशस्त्र गिरोहों के साथ नज़दीकी से मिलजुलकर काम करती हैं। यह सब लोगों को ज्यादा से ज्यादा हद तक पता होने लगा है।
अब वहां सैनिक शासन को जायज़ ठहराने के लिए एक नया कारण दिया जा रहा है। लोगों को एक-दूसरे का जनसंहार करने से रोकने के नाम पर, सैनिक शासन को जायज़ ठहराया जा रहा है।
1990 के दशक से, हिन्दोस्तानी हुक्मरान वर्ग “पूर्व की ओर देखो“ की नीति को अपना रहा है। यह चीन के साथ स्पर्धा में, दक्षिण-पूर्व एशिया में हिन्दोस्तानी साम्राज्यवादी प्रभाव का विस्तार करने के उद्देश्य से बनाई गयी एक नीति है। हिन्दोस्तान से दक्षिण पूर्व एशिया के देशों तक सड़क और रेल मार्ग बनाने की योजना है, जो मणिपुर और म्यांमार से होकर गुजरेगा। हिन्दोस्तानी हुक्मरान वर्ग को मणिपुर के लोगों को अपने अधीन रखने के लिए, वहां सैनिक शासन और आफ़स्पा को जारी रखने का एक नया बहाना देने की ज़रूरत है।
आगे बढ़ने का रास्ता
मणिपुर के लोगों के लिए आगे का रास्ता अपनी एकता को बनाये रखना और अपने सांझे संघर्ष की हिफ़ाज़त करना तथा उसे मजबूत करना है। हुक्मरान वर्ग की पैशाचिक साज़िशों को नाक़ामयाब करना होगा। वर्तमान स्थिति में देश की सभी लोकतांत्रिक और प्रगतिशील ताक़तों को यह मांग करनी चाहिए कि मणिपुर पर सैनिक क़ब्ज़े और सभी प्रकार के राजकीय आतंकवाद को फ़ौरन रोक दिया जाए।
मणिपुर के लोगों का, अपने मानवीय, लोकतांत्रिक और राष्ट्रीय अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए एकजुट संघर्ष करने का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हजारों देशभक्त शहीद हुए हैं। फिर भी मणिपुरी लोगों ने अपना जायज़ संघर्ष कभी नहीं रोका है।
सरमायदारों की हुक्मशाही के मौजूदा राज्य से पीड़ित सभी लोगों को एकजुट होकर, इसकी जगह पर मज़दूरों और किसानों की हुकूमत के नए राज्य की स्थापना करने के उद्देश्य से, संघर्ष करना होगा। दमनकारी उपनिवेशवादी रूप के हिन्दोस्तानी संघ को यहां बसे हुए सभी राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और लोगों के एक स्वैच्छिक संघ के रूप में पुनः स्थापित करना होगा। हिन्दोस्तानी संघ और उसके घटकों के बीच संबंध यहां बसे हुए सभी लोगों के आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों को मान्यता देने और सुनिश्चित करने पर आधारित होना चाहिए।
राजनीतिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन करने की आवश्यकता है, ताकि लोगों में संप्रभुता निहित हो। वर्तमान की बेहद अपराधी राजनीतिक प्रक्रिया को ख़त्म करके, एक नई राजनीतिक प्रक्रिया स्थापित करनी होगी, जिसमें लोग अपने चुने गए प्रतिनिधियों पर नियंत्रण कर सकेंगे और खुद अपने हित में फै़सले ले सकेंगे। अपने हाथ में राजनीतिक सत्ता के साथ, मज़दूर, किसान और अन्य मेहनतकश लोग पूंजीवादी लालच को पूरा करने के बजाय, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अर्थव्यवस्था को नई दिशा दे सकेंगे।