संपादक महोदय,
मेरा पत्र आपके “पूंजीपति निगमों के लिये अधिकतम मुनाफा और मज़दूरों व किसानों के लिये कड़वा घूंट” शीर्षक के लेख के बारे में है जो मज़दूर एकता लहर के 1-15 अप्रैल 2013 अंक में छापा गया था।
संपादक महोदय,
मेरा पत्र आपके “पूंजीपति निगमों के लिये अधिकतम मुनाफा और मज़दूरों व किसानों के लिये कड़वा घूंट” शीर्षक के लेख के बारे में है जो मज़दूर एकता लहर के 1-15 अप्रैल 2013 अंक में छापा गया था।
इस लेख में, हिन्दोस्तानी राज्य के चरित्र व यह किसके हित में चलता है, इसका स्पष्ट तरीके से पर्दाफाश किया गया है। यह दिखाता है कि मेहनतकश लोगों को अपने वेतन का एक बढ़ता अंश प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों को चुकाने में त्याग देना होगा, जबकि बड़े पूंजीवादी निगमों को रियायतें व करों में छूट मिलती रहेगी।
सरकार के द्वारा कमाया राजस्व पूरी तरह से अनुत्पादक, वित्तीय संस्थाओं के ऋण चुकाने पर, रक्षा खर्चे पर और परजीवी सरकार व उसकी पुलिस मशीनरी पर खर्च होगा यानि कि दमन के साधनों पर। इसके बाद, स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास, मां व शिशु विकास, रेल व सड़क यातायात, जैसे उत्पादक खर्चों के लिये बहुत ही कम पैसा बचेगा।
“स्वतंत्र हिन्दोस्तान” के वित्तमंत्री द्वारा प्रस्तुत इस साल के बजट की जन-विरोधी दिशा, आज़ादी के बाद, एक के बाद एक सरकारों द्वारा प्रस्तुत बजट की दिशा से अलग नहीं है।
परन्तु सबसे अचंभे की बात तो यह है कि यह दिशा हिन्दोस्तान पर पहले के बर्तानवी राज की कर नीति से अलग नहीं है।
5 अगस्त, 1853 को न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून में “हिन्दोस्तानी मामलों” के अंतर्गत छपे लेख में कार्ल मार्क्स ने इन नीतियों की निम्नलिखित झुलसा देने वाली आलोचना की थी।
“हिन्दोस्तान की वास्तविक परिस्थिति का इन तथ्यों के ज़रिये चित्रण किया जा सकता है। गृह संस्थापन शुद्ध राजस्व का 3 प्रतिशत सोख लेता है, और गृह ऋण के वार्षिक ब्याज व लाभांश में 14 प्रतिशत जाता है – मिलाकर यह 17 प्रतिशत बनता है। अगर हम हिन्दोस्तान से इंगलैंड को भेजा गया यह पैसा निकाल दें तो, शेष का दो-तिहाई हिन्दोस्तानी सेना पर खर्च होता है, यानि कि हिन्दोस्तान को उपलब्ध कुल खर्चे का 66 प्रतिशत, जबकि लोकनिर्माण कार्य पर कुल खर्च कुल राजस्व का 2.75 प्रतिशत से ज्यादा नहीं था। अपने-अपने राजस्वों के लोकनिर्माण पर खर्च बंगाल में 1 प्रतिशत, आगरा में 7.75 प्रतिशत, पंजाब में 1/8 प्रतिशत, मद्रास में 1/2 प्रतिशत और बॉम्बे में 1 प्रतिशत थे।”
दूसरे शब्दों में, ब्याज चुकाने और लोगों के दमन पर सरकार का अधिकांश खर्च होता था और लोकनिर्माण के लिये बहुत ही कम बचता था।
दूसरी तरफ, आज के जैसे ही, अधिकांश राजस्व हिन्दोस्तानी लोगों के श्रम और उनकी भूमि पर करों से जमा किया जाता था। इसी लेख में माक्र्स लिखते हैं कि, “दूसरी तरफ कुल शुद्ध राजस्व का तकरीबन तीन-पांचवां हिस्सा भूमि करों से, एक-सातवां हिस्सा अफीम से, एक-नौवें हिस्से से ज्यादा नमक से आता था। सब मिलाकर ये कुल आय का 85 प्रतिशत बनता है।”
अतः यह साफ है कि आज के हिन्दोस्तानी शासकों ने हिन्दोस्तानी लोगों के श्रम और ज़मीन के शोषण की वही लुटेरी नीति जारी रखी है जो उपनिवेशवादी शासकों की थी। एक ही फर्क है कि अब इस नीति का फायदा उठाने वाले बड़े हिन्दोस्तानी पूंजीपति हैं।
मज़दूर एकता लहर के लेख ने सही निष्कर्ष निकाला है कि “मुद्दा सार्वजनिक पैसों की साहूकारों, हथियारों के व्यापारियों व समाज के दूसरे परजीवी तत्वों द्वारा लूट को खत्म करना है।”
समय का तकाजा है कि हिन्दोस्तानी लोग, बड़े पूंजीपतियों, साहूकारों व परजीवियों को मोटा करने के लिये लोगों की लूट की उपनिवेशवादी विरासत को खत्म करें। हिन्दोस्तानी कम्युनिस्टों व मज़दूर वर्ग को समय की पुकार है कि वे हिन्दोस्तानी अर्थव्यवस्था की वैकल्पिक दिशा सामने रखें, एक ऐसी दिशा जिसका लक्ष्य होगा मेहनतकश लोगों की भौतिक व सांस्कृतिक जरूरतों की पूर्ति और परजीवी शोषकों का बलपूर्वक दमन और लोगों को एक नये हिन्दोस्तान के निर्माण में अगुवाई।
आपका पाठक
जॉन, नवी मुंबई