संपादक महोदय,
मजदूर एकता लहर द्वारा प्रकाशित “हम हैं इसके मालिक हिन्दोस्तान हमारा! 1857 के महान ग़दर की यह पुकार अभी तक साकार नहीं हुई है” लेख आज के नज़रिए से प्रासंगिक है। यह लेख हिंदोस्तानी मज़दूर वर्ग के लगभग 300 वर्षों का कालखंड दिखाता है जिसमें 1857 के पूर्व और पश्चात के दृश्य समाहित किए गए हैं। लेख में उल्लेखित कुछ विषयों पर बात करना जरूरी समझती हूँ।
1857 के गौरवशाली इतिहास को अंग्रेज़ी सल्तनत ने दबा रखा था। हुक्मरानों के चेहरों के रंग जरूर बदले परंतु उन्होंने भी इस इतिहास को दबाना जरूरी समझा है। इतने विशाल विप्लव, संयोजन और नियोजन से उभरे सबक को आज का हुक्मरान वर्ग शोषित जनता तक नहीं पहुंचने देना चाहता है क्योंकि उसे भी उतना ही खौफ है, जितना अंग्रेजी हुक्मरान को उस वक्त था। समाज में व्याप्त प्रचारित सारे भेदभावों से ऊपर उठकर पूरे देश की जनता ने एक मकसद लेकर खुद समाज का मालिक बनने की सोच से प्रेरित होकर अंग्रेजी हुक्मरान के प्रति धावा बोला था। आज के हिन्दोस्तानी हुक्मरान मजदूरों के मालिक बनने की सोच को फिर दोबारा नहीं पनपने देना चाहते है और वह खुद उससे उतनी ही खौफजदा है, जितनी अंग्रेजी हुक्मरान थे। यही एक मात्र कारण है कि आज उन नायकों की पूजा की जाती है। उन्हे हार मालाएं भी पहनाई जाती हैं, परंतु उनके क्रांतिकारी विचारों को छिपाया जाता है। नायकों को जगह देने का मकसद भी सिर्फ इतना ही है कि वे सामान्य लोगों की आँखों में भ्रमजाल पैदा करें। उन्हे लोगों का साथ मिले, परंतु उनकी हुकूमत को कोई खतरा भी न हो।
एक और बात है कि ‘वेस्ट मिनस्टर मॉडल’‘ का जिक्र जब आता है, तब उसे लोकतंत्र का सर्वश्रेष्ठ चित्र बतौर पेश किया जाता है। सवाल यह है कि क्या वह वाकई सच्चा लोकतंत्र है, जिसने देश की संपूर्ण जनता को उत्साहित किया है? क्या उनके जीवन में आमूल बदलाव किए हैं, उनकी चेतना, उनके ज़मीर के हक को सम्मान दिया है? शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और तमाम बुनियादी जनसुवधाओं को सभी दबे-कुचले शोषित पीड़ित लोगों तक पहुंचाने का कार्य किया है या सिर्फ चंद मुट्ठीभर लोगों की जेबों और उनकी शहंशाहियत के लिए ही उसका निर्माण हुआ है? हिन्दोस्तान और विश्व के और भी कई देशों में ऐसे कई बदलाव हुए हैं जब देश की जनता ने सारे भेदभावों से ऊपर आकर तख्त को पलटा है और नई बुनियादों के साथ नए समाज की रचना की है। लेख में उल्लेखित ‘कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेसन’ भी उसका ही एक सबूत है सभी तबकों, दबे-कुचले शोषित पीड़ितों की आवाज़ को मौका देने का। उन्हें समाज के निर्णायक फैसलों में शामिल करने का। यह सब प्रयास हमारे शहीदों, हमारे पुरखों ने कर दिखाये हैं। उन गौरवशाली प्रयोगों को ज़रूर खत्म किया गया है, परंतु वे आज भी उतने ही प्रासंगिक और अनिवार्य हैं। हम सभी उसी गौरवशाली परंपरा के विरासत हैं और हमारा फौरी कर्तव्य है कि हम भी मज़दूर वर्ग के सच्चे सिपाही बनें और सारे भेदभावों से ऊपर उठकर हिन्दोस्तान के मालिक बनने की ओर अग्रसर हों।
धन्यवाद,
शालिनी
मुंबई