हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा!
1857 के महान ग़दर की यह पुकार अभी तक साकार नहीं हुई है

10 मई को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के ख़िलाफ़ हुये महान ग़दर की वर्षगांठ को हिन्दोस्तान के लोग बड़े गर्व के साथ मनाते हैं। 1857 में इसी दिन सेना की मेरठ छावनी के सैनिकों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बग़ावत का झंडा बुलंद किया था। उन्होंने दिल्ली की ओर कूच किया था और मुगल शासक बहादुर शाह ज़फर के समर्थन से अंग्रेजों को हिन्दोस्तान से निकाल फेंकने के अपने इरादे का ऐलान किया था। उन्होंने देश के कोने-कोने से सभी समुदायों के लोगों से अपने साथ जुड़ने का आह्वान किया था। उनका बहुत ही प्रेरणादायक नारा था – हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा!

1857_Ghadar_Artists_impressionअंग्रेजों के ख़िलाफ़ की गई यह बग़ावत थोड़े ही समय में उत्तरी, मध्य पूर्वी, पूर्वोत्तरी और दक्षिणी हिन्दोस्तान में जंगल की आग की तरह फैल गयी। उपमहाद्वीप में ब्रिटिश सत्ता का पतन लगभग होने ही वाला था, क्योंकि आम जनता के समर्थन के साथ, ब्रिटिश सेना के सिपाहियों ने अपनी बंदूकों की नलियों को सत्ता की ओर तान दिया था। उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश सत्ता के ख़िलाफ़ कहीं भी होने वाला यह सबसे बड़ा विद्रोह था, वह भी ऐसे समय पर जब ब्रिटिश हुकूमत अपनी शक्ति की ऊंचाईयों पर थी। अभूतपूर्व क्रूरता और आतंक का इस्तेमाल करके, अंततः ब्रिटिश शासक हिन्दोतानियों के इस बहादुर संघर्ष को कुचलने में सफल रहे थे। फिर भी, 1857 का महान ग़दर तब से लेकर आज तक हमारे लोगों के मुक्ति संघर्षों में एक प्रेरणादायी और एक शक्तिशाली ताक़त बतौर उनका हौसला बढ़ाता आया है।

ठीक उसी समय कार्ल मार्क्स ने इस बग़ावत को हिन्दोस्तान के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पहचान दी थी और उसका स्वागत किया था। यह स्पष्ट था कि वह एक ऐसा आंदोलन था जिसमें विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों और समाज के विभिन्न वर्गों व स्तरों के लोग शामिल थे। उसका उद्देश्य कुछ लोगों के विशेषाधिकारों को बहाल करना नहीं था, बल्कि एक नए हिन्दोस्तान का निर्माण करना था, जो उसके अपने लोगों का हो। ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने इस बहादुर संघर्ष को जानबूझकर छिपाने की कोशिश की थी। उन्होंने इसके महत्व को कम करने के लिये कहा कि यह बंगाल सेना के “केवल सिपाहियों का विद्रोह” था जो कुछ महीनों में ख़त्म हो गया। उपनिवेशवादी शासन की समाप्ति के बाद, हिन्दोस्तान के पूंजीवादी शासकों ने भी महान ग़दर के महत्व को कम करके आंका है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1947 में अंग्रेजों के साथ समझौता करके और हमारे लोगों के शोषण और दमन के लिये उपनिवेशवादियों द्वारा बनाये गये ढांचे को बरकरार रखते हुए ही यह वर्ग सत्ता में आया था। यह उनके हित में था कि 1857 के विद्रोह के वास्तविक प्रेरणादायक चरित्र और उसके देशभक्तिपूर्ण व लोकतांत्रिक विचारों तथा हिन्दोस्तान के लिए उसके एक नए दूरदर्शी दृष्टिकोण को सामने न लाया जाए।

अंग्रेजों ने जिस तरह से उस विद्रोह को पेश करने की कोशिश की थी, उसके विपरीत 1857 का वह विद्रोह एक अचानक हुई घटना या सेना के किसी एक रेजिमेंट के भीतर के असंतोष से उत्पन्न नहीं हुआ था। पूरे हिन्दोस्तान के गांवों और क़स्बों में आम लोगों और आदिवासी लोगों ने कई दशकों से अंग्रेजों तथा उनके दमनकारी शासन और शोषण के खि़लाफ़ कई लड़ाइयां लड़ी थीं। विद्रोह के फैलने के पहले से ही ब्रिटिश क़ब्ज़ाकारियों के खि़लाफ़ लोगों को लामबंध करने के लिए महीनों से प्रयास किए जा रहे थे। यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसकी वजह से 1857 की मई में एक रेजिमेंट में शुरू हुए विद्रोह ने विदेशी शासन के खि़लाफ़ सर्व हिन्द बग़ावत का रूप धारण कर लिया।

एक बार जब दिल्ली में ग़दर का झंडा फहरा दिया गया, तब लड़ने वाले सिपाहियों ने न केवल अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ युद्ध के संचालन को व्यवस्थित करने की, बल्कि एक नई राज्य सत्ता का आधार स्थापित करने की पहल भी की थी। इस नई राज्य सत्ता का मक़सद न तो मुगलों के शासकों को वापस लाना था, न ही ब्रिटिश हुकूमत की नकल करना था। इस हक़ीक़त से पता चलता है कि वे देशभक्त बहुत ही दूरदर्शी लोग थे, जिनकी दूरदृष्टि केवल अंग्रेजों को हराने तक ही सीमित नहीं थी।

इस संघर्ष के दौरान एक सैनिक परिषद की स्थापना की गई थी जिसने एक छः पृष्ठ का दस्तावेज़ जारी किया था। जिसे एक नई सरकार का ‘संविधान’ कहा जा सकता था और जिसमें एक बारह सूत्रीय कार्यक्रम शामिल था। अन्य बातों के अलावा परिषद ने प्रशासन के कामकाज को चलाने के लिये एक कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन की स्थापना की थी, जिसने अपने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव किया था। इस कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन में, पैदल सेना, घुड़सवार सेना और तोपखाने के दो-दो प्रतिनिधि और चार नागरिक सदस्य थे जिन्हें चुना गया था। प्रत्येक सदस्य एक विभाग का प्रभारी होता था और चार अन्य सदस्यों की एक समिति द्वारा उसे सहायता प्रदान की जाती थी। समितियां विचार-विमर्श करती थीं और अपनी सिफ़ारिशें पेश करती थीं, लेकिन अंतिम फै़सले सदस्यों के बहुमत के आधार पर ही लिए जाते थे। केवल अध्यक्ष के पास दो वोट थे, जबकि बाकी सभी सदस्यों के पास एक-एक वोट थे। मुगल बादशाह को कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन की सभाओं में शामिल होने का अधिकार था और उसे उसके निर्णयों को अपनी स्वीकृति देनी पड़ती थी, लेकिन सभी फै़सले कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा ही लिए जाते थे।

इस नए प्रकार की राज्यसत्ता को भू्रण अवस्था में ही रहना पड़ा, क्योंकि सभी संघर्षरत लोगों को बहुत ही जालिम, वहशी और धूर्त शत्रु के विरुद्ध लगातार युद्ध छेड़ना पड़ता था। इसलिए उन्हें इस नई राज्य सत्ता को मजबूत करने और विकसित करने के लिए बहुत कम समय मिल पाया था। फिर भी इससे पता चलता है कि अंग्रेजों के ख़िलाफ़ हुई बग़ावत के दौरान, हिन्दोतान के लोगों ने अपनी खुद की लोकतांत्रिक परंपराओं और प्रतिभा को उस तरह की एक नई शासन-प्रणाली बनाने के लिए प्रेरित किया जिसमें हिन्दोस्तान के आम लोग देश के मालिक होंगे।

ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने यह भ्रम फैलाने की कोशिश की कि यह विद्रोह उत्तरी हिन्दोस्तान के कुछ हिस्सों और कुछ रेजीमेंटों तक ही सीमित था। विशेष रूप से उन्होंने दावा किया था कि पंजाब उनके प्रति ‘वफ़ादार’ था। परन्तु हक़ीक़त यह है कि उस समय पंजाब के कई हिस्सों में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ विद्रोह हो रहा था। इसी तरह, यह कहा जाता है कि विद्रोह का विस्तार दक्षिण हिन्दोस्तान तक नहीं हुआ था। इसके विपरीत, दक्षिण हिन्दोस्तान के क्षेत्र में कई विद्रोह हुए, जो मुख्य रूप से सेना में नहीं होने के बावजूद, उन संघर्षों में विभिन्न वर्गों के लोग शामिल थे। इस क्षेत्र के विद्रोहियों को उत्तरी हिन्दोस्तान में होने वाले ग़दर के बारे में पता था और उन्होंने भी उनके साथ अपने संघर्षों का समन्वय करने की पूरी कोशिश की थी।

निस्संदेह, वह सैनिकों और किसानों, आदिवासियों, कारीगरों, शहरी आबादी और विभिन्न वर्गों के देशभक्त लोगों का एक सामूहिक विद्रोह था। जिसमें विदेशी आक्रमणकारियों को देश से बाहर निकालने के उद्देश्य से धर्म, जाति और क्षेत्रीय मतभेदों को दरकिनार करके सभी लोगों ने एकजुट होकर संघर्ष किया था। वह विद्रोह सितंबर 1857 में समाप्त नहीं हो गया, जब ब्रिटिश सेना ने दिल्ली पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया था। उसके बाद के कई वर्षों तक वह हिन्दोतान के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न रूपों में जारी रहा। वह बाद में भी हिन्दोस्तान के लोगों के लिए और स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले सभी देशभक्तों और क्रांतिकारियों की प्रेरणा का स्रोत बना रहा है।

हालांकि 1947 में, उपनिवेशवादी ब्रिटिश शासन के समाप्त होने के बाद, हिन्दोस्तान के शासकों ने कभी भी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को उनके अपराधों के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया है। लेकिन हिन्दोस्तान के लोग 1857 के वीर सिपाहियों के खि़लाफ़ ब्रिटिश शासकों द्वारा की गई अभूतपूर्व बर्बरता को  नहीं भूले हैं। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, मोटे तौर पर देखा जाये तो उस समय हिन्दोस्तान की आबादी का सात प्रतिशत या एक करोड़ हिन्दोस्तानी लोग ब्रिटिश शासकों के अत्याचारों का शिकार हुए थे या बेरहमी से मार दिये गए थे! बाद के कई वर्षों तक देश के कई इलाकों में आबादी इतनी कम हो गयी थी और इस हद तक कम हो गई थी कि बाद में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के अधिकारियों ने यह शिकायत की थी कि उन्हें कई जिलों में अपनी परियोजनाओं के लिए पर्याप्त मज़दूर नहीं मिल रहे। दिल्ली और अन्य शहरों को बदले की भावना से पूरी तरह से बर्बाद कर दिया गया। एक ऐसी ताक़त जो यह दावा करती थी कि वह हिन्दोस्तान में “सभ्यता” लायेगी, लेकिन उसके प्रतिनिधियों ने विद्रोह को दबाने के लिए सबसे जालिम और बर्बर तरीक़ों का इस्तेमाल किया था। जिनमें शामिल थे विद्रोहियों को तोप के मुंह से बांधकर उड़ा देना और सड़कों के किनारे खड़े पेड़ों की शाखाओं पर लटकाकर फांसी दे देना। इससे पता चलता है कि यह ”विद्रोह” शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के लिए कितना बड़ा ख़तरा और चुनौती था।

हालांकि हमारे लोगों के निरंतर संघर्षों ने 1947 में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों को हिन्दोस्तान छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन जिन उद्देश्यों के लिए 1857 के बहादुर सेनानियों ने लड़ाई लड़ी थी, वे पूरी तरह से साकार नहीं हुए। उपनिवेशवादी शासन के साथ सहयोग करने वाला, हिन्दोस्तान का बड़ा पूंजीपति वर्ग देश का नया मालिक बन गया। जिसने मज़दूरों, किसानों और लोगों का दमन और शोषण करना जारी रखा है। अंग्रेजों ने हमारे लोगों को बेरहमी से दबाने के लिए जिन क़ानूनों और संस्थाओं को स्थापित किया था, नये शासकों ने उनका इस्तेमाल जारी रखा है। ब्रिटिश वेस्टमिंस्टर प्रणाली का एक रूप, हिन्दोस्तान में अभी तक जारी है, जो लोगों को हक़ीक़त में सत्ता से वंचित करके, केवल लोकतंत्र का भ्रम फैलाने का काम करता है। देशी और विदेशी शोषकों द्वारा अधिकतम मुनाफ़ा बनाने के लिए, लोगों के धन और संसाधनों का लूटा जाना अभी तक जारी है। 1857 के सेनानियों द्वारा शुरू किया गया वास्तविक मुक्ति का संघर्ष आज भी जारी है। इस संघर्ष में 1857 के महान ग़दर के विचार और उदाहरण आज भी हम सबको शिक्षित करते हैं और आगे की राह दिखाते हैं।

Share and Enjoy !

Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *